NI Act में Holder in Due Course के संबंध में प्रतिफल की उपधारणा

Update: 2025-03-20 03:52 GMT
NI Act में Holder in Due Course के संबंध में प्रतिफल की उपधारणा

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 118 (क) प्रतिफल को उपधारणा का उपबन्ध करती है। इसके अनुसार- "यह कि हर एक परक्रामण लिखत, प्रतिफलार्थ रचित, या लिखी गई थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई थी।"

पुनः धारा 118 को उपधारा (छ) यह स्पष्ट करती है कि प्रत्येक धारक, सम्यक् अनुक्रम धारक है, परन्तु इसे साबित करने का भार कि धारक, सम्यक् अनुक्रम धारक है, उस पर है : परन्तु जहाँ कि लिखत उसके विधि पूर्ण स्वामी से या उसकी विधिपूर्ण अभिरक्षा रखने वाली किसी व्यक्ति से अपराध या कपट द्वारा अभिप्राप्त की गई है अथवा उसके रचयिता या प्रतिगृहीता से अपराध या कपट द्वारा अभिप्राप्त या विधि-विरुद्ध प्रतिफल के लिए अभिप्राप्त की गई है वहाँ यह साबित करने का भार कि धारक Holder in Due Course है, उस पर है।

दान एवं चन्दा एक व्यक्ति जो वचन पत्र, विनिमय पत्र या चैक को बिना प्रतिफल के अभिप्राप्त करता है, धारक हो सकता है, परन्तु Holder in Due Course नहीं हो सकता है। अतः यदि कोई व्यक्ति दान या बन्दे में परक्राम्य लिखत प्राप्त करता है तो वह बिना प्रतिफल के धारक होगा, क्योंकि दान एवं चन्दे में प्रतिफल नहीं होता है।

राफेल बनाम बैंक ऑफ इंग्लैण्ड के एक उल्लेखनीय वाद में यह निर्णीत किया गया है कि एक व्यक्ति जो सम्यक् अनुक्रम धारक होने का दावा करता है उसे यह साबित करना होगा कि उसने लिखत को प्रतिफलार्थ प्राप्त किया है। अतः परक्राम्य लिखत जो चन्दा शुल्क में अभिप्राप्त की गई है वहाँ प्रतिफल की परिभाषा में नहीं आती है।

वर्णित रकम देय होने से पूर्व यह शर्त उस समय को दर्शाता है जब परक्राम्य लिखत को अभिप्राप्त किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति जो स्वयं को Holder in Due Course का दावा करता है उसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह आवश्यक है कि एक सम्यक् अनुक्रम धारक होने के लिए उसे लिखत को परिपक्वता के पूर्व अभिप्राप्त किया जाना चाहिए। एक पोस्ट डेटेड चेक का भी धारक Holder in Due Course हो सकता है। यह भी ध्यान में रखनाचाहिए कि अभिनियम की धारा 138 लिखत के अनादर की दशा में उपचार केवल सम्यक् अनुक्रम धारक को ही प्रदान करती है, एक सामान्य धारक को नहीं।

बिना सूचना एवं सद्भाव- सम्यक् अनुक्रम धारक होने के लिए अन्तिम महत्वपूर्ण शर्त है कि धारक ने लिखत को सद्भावना पूर्वक प्राप्त किया है। यहाँ पर किसी व्यक्ति के सदभावी होने के निर्धारण करने की दो कसौटी है, "व्यक्तिपरक (व्यक्ति सापेक्ष) " एवं वस्तुनिष्ठ (यथार्थ) " व्यक्तिपरक कसौटी में कोर्ट को धारक के स्वयं के मस्तिष्क को देखना होता है और इसके लिए केवल यह प्रश्न होता है कि क्या उसने लिखत को ईमानदारी से प्राप्त किया था और यह देखना होता है कि क्या उसने लिखत को प्राप्त करने में एक युक्तियुक्त सावधान व्यक्ति के समान सुरक्षा का प्रयोग किया था। व्यक्तिपरक कसौटी ईमानदारी, जबकि वस्तुनिष्ठ कसौटी "सम्यक् सावधानी एवं सतर्कता" की अपेक्षा करती है।

"Holder in Due Course" का विधि सिद्धान्त अधिनियम की धारा 9 में उपबन्धित है। धारा 9 कहती है कि यह विश्वास करने का कि जिस व्यक्ति से उसे अपना हक व्युत्पन्न हुआ है, उस व्यक्ति के हक में कोई त्रुटि वर्तमान थी, पर्याप्त हेतुक रखे बिना काबिज हो गया है। इसके तत्स्थानी विधि आंग्ल विनिमय पत्र अधिनियम, 1882 की धारा 29 में उपबन्धित है

कि उसने बिल को सद्भावना पूर्वक प्राप्त किया है एवं जिस समय उसे विनिमय पत्र परक्रामित किया गया था, परक्रामित करने वाले व्यक्ति के हक में दोष था, कोई सूचना नहीं रखता था।

ईमानदारी का नियम

घोर उपेक्षा को भी गुडमैन बनाम हार के मामले में परित्याग कर दिया गया। विधि को स्पष्ट करते हुए लार्ड डेनमन, मुख्य न्यायाधीश का सम्प्रेक्षण था कि "हम सभी इस मत के हैं कि केवल घोर उपेक्षा एक पर्याप्त उत्तर नहीं हो सकता है जहाँ पक्षकार ने विनिमय पत्र के लिए प्रतिफल दिया है। घोर उपेक्षा दुर्भावना पूर्वक का साक्ष्य हो सकता है, परन्तु यह समान चीज नहीं है। विरोधी सिद्धान्त के अन्तिम अवशेष को हमने परित्याग कर दिया है। जहाँ विनिमय पत्र बिना किसी दुर्भावना के सबूत के बादी को अन्तरित हो गया है यहाँ लिखत के जीवन को कोई अक्षेप नहीं होना चाहिए।"

इस प्रकार इस निर्णय से "ईमानदारों" के नियम को पुनः स्थापित किया गया। इस ईमानदारी के नियम को रैफेल बनाम बैंक ऑफ इंग्लैण्ड के बाद में प्रयोज्य किया गया जिसे हाउस लाईस ने जोन्स बनाम गोर्डन के मामले में पुष्टि भी की जिसे इंग्लिश विनिमय पत्र अधिनियम, 1882 की धारा 90 में संहिताबद्ध किया गया है। इसके अनुसार "कोई भी चीज सद्भाव पूर्वक की गयी मानी जाएगी किया गया है चाहे इसे उपेक्षा से किया गया है या नहीं।"

जहाँ इसे तथ्य में इमानदारी से सद्भावना पूर्वक के अतिरिक्त इसी अधिनियम की धारा 29 यह उपबन्धित करती है कि धारक को परक्रामित करने वाले व्यक्ति के हक में किसी दोष की सूचना नहीं होनी चाहिए।

भारतीय स्थिति परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 9 में सद्भावना पूर्वक" शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। इसमें उपबन्धित किया गया है कि धारक को लिखत अभिप्राप्त किया जाना चाहिए

"यह विश्वास करने का कि जिस व्यक्ति से उसे अपना हक व्युत्पन्न हुआ है, उस व्यक्ति के हक में कोई त्रुटि वर्तमान थी।" दूसरे शब्दों में, प्रतिफलार्थ धारक के हक को पराजित करने के लिए यह दिखाना आवश्यक होगा कि जब उसने लिखत को लिया था लिखत में कोई दोष या विश्वास करने का कारण नहीं होना चाहिए।"

विश्वास करने का कारण स्वाभाविक रूप से अभिप्रेत है कि उसके मस्तिष्क में लिखत को प्रभावित करने वाले कुछ अवैधताओं के सन्देह से है। इस प्रकार इससे यह अनुसरित होता है कि कोर्ट को धारक के स्वयं के मस्तिष्क को देखना है यदि उसके संज्ञान में विषय तथ्य आते हैं जो इस विश्वास या सन्देह उसके मस्तिष्क में उत्पन्न करे कि विनिमय पत्र के हक में कोई दोष है और वह कोई जाँच-पड़ताल नहीं करता है, तब वह वसूल नहीं कर सकता है।

यहाँ पर उसे हक सम्बन्धी जाँच करने की आवद्धता होती है। इस प्रकार, अतः अधिनियम में व्यक्तिपरक (ईमानदारी) कसौटी को अपनाया गया है जिसमें धारक से केवल ईमानदारी अपेक्षित है। धारा 9 की भाषा कहीं भी धारक के मस्तिष्क के बाहर जाने की अपेक्षा कोर्ट से नहीं करता है।

कोर्ट को यह देखना होता है कि समान परिस्थितियों से किसी अन्य व्यापारी द्वारा कैसी सावधानी एवं सतर्कता लो गई होती। यदि विधायिका की मंशा धारक के दावे को केवल उसके उपेक्षा (असावधानी) के कारण अपवर्जित करने का होता उनके द्वारा ऐसा अभिव्यक्त रूप में कहा गया होता, जैसा कि उनके द्वारा धारा 10 में "सम्यक् अनुक्रम संदाय" की परिभाषा में कहा गया है।

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