निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 26: परक्राम्य लिखत में तात्विक परिवर्तन (धारा 87)

Update: 2021-09-27 04:15 GMT

परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत धारा 86 तात्विक परिवर्तन से संबंधित प्रावधानों पर प्रकाश डालती है तथा अपने नियमों को प्रस्तुत करती है। परक्राम्य लिखत में किसी प्रकार की कूटरचना न हो तथा कोई हेरफेर नहीं की जा सके इस उद्देश्य से परिवर्तन से संबंधित भी नियम प्रस्तुत किए गए है।

कौन से परिवर्तन तात्विक परिवर्तन हो सकते हैं इसका उल्लेख इस धारा के अंतर्गत किया गया है। इस धारा का महत्व यही है कि यह धारा ऐसे परिवर्तनों का उल्लेख करती है जो किसी परक्राम्य लिखत को अवैध नहीं बनाते हैं तथा कूटरचित परिवर्तन को प्रतिषेध करती है।

यह सामान्य सिद्धान्त है कि कोई भी तात्विक परिवर्तन लिखत को, ऐसे परिवर्तन के समय उसका पक्षकार है, के विरुद्ध शून्य बनाने का प्रभाव रखता है। परन्तु ऐसा लिखत परिवर्तन के पूर्व के पक्षकारों में विधिमान्य बना रहेगा।

यह नियम इस सिद्धान्त पर आधारित है कि ऐसे परिवर्तन से लिखत की पहचान नष्ट होती है और पक्षकारों को ऐसी परिस्थिति में दायी ठहराना होगा जिसके लिए उन्होंने कभी करार न किया हो। लिखत का परिवर्तन उसके कूटरचना से भिन्न होता है कूटरचना लिखत को निष्प्रभावी एवं शून्य बनाता है।

इस धारा के अधीन परिवर्तन के लिए निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए:-

(1) साशयित परिवर्तन।

(2) परिवर्तन का तात्विक होना।

(3) मूल पक्षकारों के सामान्य आशय को पूरा करने के लिए न हो।

(4) अन्य पक्षकार उसके प्रति सम्मत नहीं है।

(v) जहाँ परिवर्तन दृश्यमान नहीं है। [ धारा 89]

(1) साशयित परिवर्तन- केवल साशय परिवर्तन लिखत की विधिमान्यता को प्रभावित करती है।

परिवर्तन साशय होना चाहिए। दूसरे शब्दों में यह सिद्धान्त घटनावश पर प्रयोज्य नहीं होता है। इस बिन्दु पर सूचक प्राधिकारी प्रिवी कौंसिल ने हांग कांग एण्ड संघई बैंकिंग कार्पोरेशन बनाम लीली शी में धारित किया है :

ली ली शी (प्रत्यर्थी) को पति ने £500 का प्रत्येक दो चेक दिया। उसने चेक को अपने वस्त्र के पाकेट में रखकर भूल गई। वस्त्र को उसने धोया, सुखाया और माड़ों लगाया। जब वह इसे प्रेस करने चली तो उसने पाकेट में कागज का लुगदी पायी। इसके पश्चात् उसने चेक को कुछ समय तक चेक को स्थापित किया सिवाय नम्बर को छोड़कर बैंकर ने संदाय करने से मना कर दिया। बैंक संदाय के लिए आबद्ध माना गया।

(2) परिवर्तन का तात्विक होना- द्वितीय यह कि परिवर्तन तात्विक होना चाहिए। यह धारित किया गया है कि परिवर्तन तात्विक है, यदि वह लिखत के कारोबार प्रभाव को परिवर्तित करता है, यदि उसका कारोबार प्रभाव है।

एक वाद में कहा गया है-

"परिवर्तन के प्रकृति का परीक्षण किया जाना चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि क्या यह लिखत को पूर्णता में या उसके मर्म में है या नहीं। यदि ऐसा है तब लिखत नष्ट हो जाता है, परन्तु यह उसके एक छोर को दूषित करता है, लिखत जीवित बना रहेगा, यद्यपि कि निःसन्देह दोषयुक्त होगा।"

यह तथ्य का प्रश्न होगा कि क्या परिवर्तन सम्पूर्ण को दूषित करता है या यह केवल क्षतिकारक है। कलियन्ना गाउण्डर बनाम पलानी गाउण्डर के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि तात्विक परिवर्तन का अर्थ है परिवर्तन जो लिखत के विधि पहचान, चरित्र, शर्तों को परिवर्तित करे या पक्षकारों के सम्बन्धों में मूल परिवर्तन करे, तात्विक परिवर्तन है।

पुनः लूनकरन सेठिया बनाम इवान एण्ड जॉन में न्यायालय ने यह धारित किया है कि तात्विक परिवर्तन वह है जो लिखत के पक्षकारों का सम्बन्ध मूलतः अभिनिश्चित है उनके अधिकारों, दायित्वों एवं विधिक स्थिति में परिवर्तन करता है या पक्षकार जो मूल लिखत में निष्पादित है उनके आबद्धता में अन्यथा हानिकारक है।

तात्विक परिवर्तन से मूल लिखत की पहचान नष्ट हो जाती है और पक्षकार जो मूल लिखत के अधीन दायित्व से करारित थे परिवर्तित लिखत द्वारा दायी नहीं बनाए जा सकते जिसके लिए उन्होंने कभी भी सहमति नहीं दी थी।

यदि कोई लिखत जिसे एक पक्षकार ने कोई तात्विक परिवर्तन किया है उससे दूसरे पक्षकार को बाध्य बनाना है, तो यह सामान्य सहमति से संविदा के निबन्धनों में एक पक्षीय कार्यवाही से परिवर्तित करना होगा या दूसरे के किए गए निबन्धनों में बिना दूसरे को सहमति से परिवर्तन होगा। इस प्रकार जो व्यक्ति लिखत में तात्विक परिवर्तन करता है या अपने अधिकारों को लिखत के अधीन खोने का जोखिम रखता है।

हाल्सबरी लॉज ऑफ इंग्लैण्ड में यह सम्प्रेक्षित किया गया है कि:

"ऐसे परिवर्तन आबद्धकारी पक्षकार को सहमति के बिना किया गया जैसा कि लिखत को रद्द करने से है।"

वही प्रभाव उत्पन्न करेगा रंगास्वामी बनाम गनेसन के मामले में यह धारित किया गया है कि कैलेण्डर वर्ष के अनुसार माह और वर्ष में परिवर्तन तात्विक परिवर्तन नहीं होगा।

तात्विक परिवर्तन के उदाहरण निम्नलिखित के सम्बन्ध में परिवर्तन तात्विक परिवर्तन हैं:-

(i) तिथि, (चेक को विधिमान्य बनाने को छोड़कर)

(ii) संदाय का समय,

(iii) संदाय का स्थान,

(iv) धनराशि,

(v) व्याज दर

(vi) संदाय का माध्यम,

(vii) नए पक्षकार/पक्षकारों को जोड़ने,

(viii) पाने वाला के नाम, और

(ix) जहाँ चेक संक्षेपित चेक का कोई इलेक्ट्रानिक प्रतिरूप है यहाँ ऐसे इलेक्ट्रानिक प्रतिरूप और संक्षेपित चेक के प्रकट शब्दों में कोई अन्तर तात्विक परिवर्तन होगा। [धारा 89(2)]

इंग्लिश विधि-आंग्ल बिल आफ एक्सचेंज, 1882 के अनुसार निम्नलिखित तात्विक परिवर्तन है :-

(i) तिथि सम्बन्धी,

(ii) धनराशि सम्बन्धी,

(iii) संदाय का समय,

(iv) संदाय का स्थान,

(v) जहाँ विनिमय पत्र को सामान्य रूप में प्रतिग्रहीत किया जाता है, परन्तु प्रतिग्रहीता के सहमति के बिना संदाय स्थान जोड़ना।

एक वचन पत्र बिना समुचित स्टाम्प का निष्पादित था। वादी ने इसके पश्चात् इस कमी को पूरा करने के लिए आवश्यक स्टाम्प लगाया। यह धारित किया गया कि वचन पत्र में परिवर्तन था जिससे धारक (वादी) को वाद संस्थित करने के लिए परिवर्तित लिखत में हकदार नहीं माना गया।

कोच बनाम डिक्स में द ने लन्दन में लिखे गये विनिमयपत्र को प्रतिग्रहीत किया। एक पृष्ठांकिती ने लेखीवाल के समझौते के साथ लिखत के लिखने के स्थान को लन्दन से जर्मनी में एक स्थान "डीसलोनजेन" परिवर्तित किया। कोर्ट ऑफ अपील ने यह धारित किया कि द बिल के अधीन दायी नहीं था, क्योंकि यह तात्विक रूप में परिवर्तन था।

लार्ड जस्टिस स्कूटान ने संगत सिद्धान्त को स्पष्ट किया :

"लिखत के स्थान लन्दन को हटाकर डोसलीनजन लिखना एक तात्विक परिवर्तन है, क्योंकि इससे यह एक विदेशी बिल हो जाता है। आंग्ल विधि में देशी बिल एवं विदेशी बिल में बिना किसी सन्देह के उत्तर है, इसका एक भिन्न विधिक लक्षण होगा।

अत: यह केवल विचार करने के लिए बचता है कि क्या एक परिवर्तन जो लिखत के पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है, क्या तात्विक परिवर्तन है। इस मत का हूँ कि ऐसा कोई परिवर्तन, चाहे जो पक्षकारों के लिए लाभकारी हो या हानिकारक हो किया गया परिवर्तन, ऐसा परिवर्तन है जो लिखत को शून्य बनाता है।

इस सम्बन्ध में प्रतिभूतियों के विधि के समान हो विधि है जैसा कि मुख्य न्यायाधीश लार्ड कम्पबेल ने गार्डेनर बनाम वाश में स्पष्ट किया है। परन्तु हम यह पाते हैं कि वह दायित्व से उन्मोचित हो जाता है यदि परिवर्तित लिखत मूल लिखत से भिन्न प्रवर्तित होता है, चाहे परिवर्तन हानिकारक हो या न हो जहाँ वचन पत्र की तिथि परिवर्तित होती है जिससे लिखत के अधीन कार्यवाही परिसीमा अवधि के अन्दर बना रहे, लिखत शून्य था।

एक मुद्रित वचन पत्र में सभी प्रविष्टियां सिवाय ब्याज कालम के भरी हुई थी वचनग्रहीता ने बिना रचयिता के परामर्श से 11/2 अंक भर दिया। यह धारित किया गया कि यह तात्विक परिवर्तन था और वचन पत्र के रचयिता को उन्मोचित करता है।

पी० एल० एस० चेट्टियार बनाम पी० एल० यू० चेट्टियार, के मामले में वचन पत्र जारी करने के पश्चात् वादी ने प्रतिवादी के सहमति के बिना ब्याज दर में परिवर्तन किया ऐसा परिवर्तन तात्विक परिवर्तन धारित किया गया अतः धारा 87 के अधीन शून्य अप्रवर्तनीय माना गया।

राम खिलोना बनाम सरदार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया है कि परिवर्तन जो किसी भी तरह से लिखत की वैधता या प्रवर्तनीयता को प्रभावित नहीं करता है, यद्यपि कि पश्चात्वर्ती किया गया है, तात्विक परिवर्तन नहीं होता है।

नारायन स्वामी बनाम मदन लाल के मामले में जो दूसरे पक्षकार को हानिकारक ढंग से उसके निवेदन को प्रभावित करता है, तात्विक परिवर्तन है।

पुनः एम० एम० अनिरूधन बनाम धामकोस बैंक लि० में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया है कि कोई गैर-तात्विक परिवर्तन तात्विक परिवर्तन नहीं हो सकता है, परन्तु परिवर्तन जो दूसरे पक्षकार के अधिकारों को हानिकारक ढंग से प्रभावित करता है, तात्विक परिवर्तन है।

(3) मूल पक्षकारों के आशय को पूरा करने वाले परिवर्तन नहीं होना- ऐसा परिवर्तन जो मूल पक्षकारों के आशय को पूरा करने के लिए किया गया है, तात्विक परिवर्तन नहीं होता है और लिखत की विधिमान्यता को प्रभावित नहीं करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि सहमतिजन्य परिवर्तन लिखत की वैधता को प्रभावित नहीं करते हैं।

(4) ये पक्षकार जो परिवर्तन पर सहमति नहीं देते- तात्विक परिवर्तन दो पक्षकारों के बीच किया जाता है, जिससे पक्षकारों के अधिकार एवं आबद्धता प्रभावित होते हैं, परन्तु ऐसे परिवर्तन पर जो पूर्विक पक्षकार अपनी सहमति नहीं देते हैं। लिखत के अधीन अपनी आवद्धता से उन्मोचित हो जाते हैं।

दृश्यमान परिवर्तन-

धारा 89 की योजना है कि कोई भी किया गया तात्विक परिवर्तन लिखत पर दृश्यमान होना चाहिए, यदि यह ऐसा नहीं है वहाँ सम्यक् अनुक्रम में किया गया संदाय बाध्यकारी होगा और एक सही एवं मान्य संदाय माना जाएगा।

इस धारा के अनुसार यदि :-

(क) कोई वचन पत्र, विनिमय या चेक

(i) तात्विक रूप में परिवर्तित है,

(ii) परन्तु ऐसा किया गया परिवर्तन दिखाई नहीं देता है, या

(ख) जहाँ चेक को संदाय के लिए उपस्थापित किया गया है,

(i) जो उपस्थापन के समय

(ii) रेखांकित है, दिखाई नहीं देता, या

(iii) रेखांकन है, परन्तु उसे मिटा दिया गया है,

(iv) व्यक्ति बैंकर जो संदाय करने के लिए आबद्ध है, संदाय कर देता है,

(v) संदाय के समय लिखत के दृश्यमान शब्दों के अनुसार,

(vi) सम्यक् अनुक्रम में संदाय कर देता है, सही तथा विधिमान्य संदाय होगा। ऐसा संदाय ऐसे व्यक्ति या बैंकर को सभी दायित्वों से उन्मोचित कर देता है और ऐसा संदाय इस आधार पर कि लिखत में परिवर्तन किया गया है या चेक को रेखांकित किया गया था, को प्रश्नगत नहीं बनाया जा सकता है।

अधिनियम का उद्देश्य वचन पत्र या विनिमय पत्र की दशा में किसी व्यक्ति द्वारा एवं चेक की दशा में बैंकर द्वारा किए गए संदाय को संरक्षण देना है जहाँ लिखत में तात्विक परिवर्तन है या चेक का रेखांकन को मिटाया गया है जो दृश्यमान नहीं है, परन्तु यह कि जहाँ संदाय सद्भावनापूर्वक एवं सम्यक् अनुक्रम में किया गया है। परन्तु जहाँ परिवर्तन दृश्यमान है अर्थात् युक्तियुक्त परीक्षण से देखने योग्य है। ऐसे लिखत को अभिप्राप्त करने वाले व्यक्ति को भी कोई अधिकार नहीं होते।

परन्तु ऐसी दशा में प्रतिग्रहांता की आवद्धता केवल लिखत के मूल शब्दों के अनुसार न कि परिवर्तित शब्दों के अनुसार होती है। यह हाउस आफ लार्ड्स ने स्कालफील्ड बनाम दि अर्ल ऑफ लोन्डेसबरों में धारित किया है।

इस मामले में एक विनिमय पत्र £500 के लिए प्रतिग्रहण के लिए उपस्थापित किया गया जिस पर अपेक्षित स्टाम्प से अधिक स्टाम्प था एवं स्थान खाली था। प्रतिग्रहीता ने लिखत को प्रतिग्रहीत कर लेखीवाल को परिदत्त कर दिया जिसने कपटपूर्वक खाली स्थान को भरकर विनिमय पत्र को £3500 में परिवर्तित कर इस कीमत के प्रतिफल पर एक सद्भावी धारक को परक्रामित कर दिया।

यह धारित किया गया कि प्रतिग्रहीता केवल प्रतिग्रहीत रकम £500 के लिए ही दायी था। विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता इसे प्रतिग्रहण के पश्चात् कपटपूर्ण परिवर्तन के लिए सतर्कता लेने के लिए कर्तव्याधीन नहीं था। परन्तु लेखीवाल की विनिमय पत्र में आबद्धता £ 3500 के लिए एक सम्यक् अनुक्रम धारक के प्रति विस्तारित है, क्योंकि वह सतर्कता लेने के लिए आबद्ध था।

वचन पत्र रचयिता के द्वारा स्वयं पूरित करने की अपेक्षा नहीं जीवन सिंह बनाम शिव सिंह गलुडिया के मामले में यह धारित किया गया है कि वचन पत्र की सभी प्रविष्टियाँ स्वयं रचयिता के द्वारा पूरित करने के लिए अपेक्षित नहीं हैं।

जब कृत से साबित है कि एक वचन पत्र रचयिता के हस्ताक्षर से युक्त है, तब यह आवश्यक नहीं है कि तिथि, रकम आदि स्वयं रचयिता द्वारा भरी जाय एवं ऐसी प्रविष्टियाँ तात्विक परिवर्तन को आकृष्ट नहीं करती हैं।

प्रतिफल के लिए वाद-उन सभी मामलों में जहाँ तात्विक परिवर्तन से किसी लिखत को परिवर्तनीय बनाया जाता है, धारक लिखत के अधीन अपने अधिकारों को खो देता है। परन्तु जो प्रतिफल उसने लिखत के लिये दिया है, तद्वारा निर्वापित (समाप्त) नहीं होती।

धारक लिखत को प्रवर्तनीय नहीं करा सकता है, परन्तु वह प्रतिफल पर बाद ला सकेगा। परन्तु धारा 87 अभिव्यक्तः यह उपबन्धित करती है कि पृष्ठांकक अपने दायित्व से यहाँ तक प्रतिफल से भी उन्मोचित हो जाता है।

इस प्रकार कोई परिवर्तन अनाधिकृत व्यक्ति के द्वारा किया गया है परन्तु पृष्ठांकिती के द्वारा नहीं बावजूद इसके लिखत को वर्जनीय बनाया जा सकता है, परन्तु पृष्ठांकिती प्रतिफल के लिए पृष्ठांकक पर वाद ला सकेगा।

संक्षेपित चेकों के सम्बन्ध में (तात्विक परिवर्तन)-

परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 89 (2) संक्षेपित चेकों में तात्विक परिवर्तन का उपबन्ध करती है।

इसके अनुसार,

"जहाँ चेक संक्षेपित चेक का कोई इलेक्ट्राकि प्रतिरूप है वहाँ ऐसे इलेक्ट्रानिक प्रतिरूप और संक्षेपित चेक के प्रकट शब्दों में कोई अन्तर तात्विक परिवर्तन होगा और यथास्थिति बैंक या समाशोधन गृह का यह कर्तव्य होगा कि वह प्रतिरूप का संक्षेपण और पारेषण करते समय, संक्षेपित चेक के इलेक्ट्रॉनिक प्रतिरूप के प्रकट शब्दों की यथार्थता को सुनिश्चित कर ले।"

अजनवी व्यक्ति द्वारा परिवर्तन- अनिरुधन बनाम धामकोस बैंस के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि जहाँ लिखत प्रतिग्रहीता या उसके अभिकर्ता के कब्जे में है और लिखत में कोई परिवर्तन प्रतिग्रहीता के संज्ञान के बिना किसी अजनवी व्यक्ति के द्वारा किया जाता है, वहाँ दूसरा पक्षकार (वचनदाता) अपने दायित्व से उन्मुक्त हो जाता है, परन्तु जहाँ लिखत किसी अजनबी के द्वारा परिवर्तित किया जाता है जब लिखत प्रतिग्रहीता या उसके अभिकर्ता के कब्जे में नहीं था, वहीं वचनदाता अपने दायित्व से उन्मुक्त नहीं होगा। परन्तु इस धारा के निबन्धनों के अनुसार ऐसा परिवर्तन किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध शून्य होगा जो लिखत का पक्षकार है और ऐसे परिवर्तन की सहमति नहीं देता है।

परिवर्तन जो लिखत की विधिमान्यता को प्रभावित नहीं करता- निम्नलिखित परिवर्तन परक्राम्य लिखत को दूषित नहीं बनाते हैं या तद्धीन पक्षकारों के दायित्व प्रभावित नहीं होते-

(i) ऐसे परिवर्तन जो लिखत के जारी करने के पूर्व किए गए हैं।

(ii) परिवर्तन जो सभी पक्षकारों की सहमति से किए गए हैं।

(iii) परिवर्तन जो साशय नहीं है एवं घटनावश है।

(iv) परिवर्तन जो लिखत के क्लर्कयल गलतियों या भूलों को सुधारने के लिए किये गये हैं।

(v) परिवर्तन जो लिखत के मूल पक्षकारों सामान्य आशय को पूरा करने के लिए किए गए हैं।

(vi) परिवर्तन जो तात्विक नहीं है एवं जो संविदा को दूषित नहीं बनाते हैं। अधिनियम के अधीन अनुज्ञात परिवर्तन-धारा 87 के अधीन तात्विक परिवर्तन के उपबन्ध अधिनियम की धारा 20, 49, 86 एवं 125 के अधीन है।

अर्थात् ये परिवर्तन अनुज्ञात हैं :-

(i) अधिनियम की धारा 20 के अधीन अपूर्ण लिखतों को पूर्ण करना एवं इससे लिखत को वर्जनीय नहीं बनाया जा सकता यद्यपि कि प्राधिकार में निहित धनराशि से आधिक्यपूर्ण किया जाता है।

(ii) धारा 49 के अधीन निरंक पृष्ठांकन का पूर्ण पृष्ठांकन में परिवर्तित करना।

(iii) धारा 86 विशेषित प्रतिग्रहण की अनुज्ञा देती है।

(iv) धारा 125 चेक का रेखांकन करना, सामान्य रेखांकन को विशेष रेखांकन में परिवर्तन करना, रेखांकन में अपरक्रामणीय", "एण्ड कं०" "आदाता के खाते में" शब्दों को अन्तःस्थापित करना परिवर्तन को अनुज्ञात करती है,

(v) चेक को पुनः वैध बनाना, तात्विक परिवर्तन का सिद्धान्त प्रयोज्य नहीं होता है,

(vi) धारा 88 के अनुसार लिखत में किसी पूर्विक परिवर्तन के होते हुए भी परक्राम्य लिखत का प्रतिग्रहीता या पृष्ठांकक अपने प्रतिग्रहण या पृष्ठांकन से आबद्ध होता है।

धारा 89 उपबन्ध करती है :-

"लिखत में किसी पूर्विक परिवर्तन के होते हुए भी परक्राम्य लिखत का प्रतिग्रहीता या पृष्ठांकक अपने प्रतिग्रहण या पृष्ठांकन से आवद्ध रहता है।" पृष्ठांकिती द्वारा परिवर्तन [ धारा 87 ]- यदि ऐसा कोई परिवर्तन पृष्ठांकिती द्वारा किया गया है, तो वह उसके प्रतिफल की बाबत उसके सब दायित्व से उसके पृष्ठांकक को उन्मोचित कर देता है। इस प्रकार जहाँ कोई परिवर्तन पृष्ठांकिती द्वारा किया गया है, पृष्ठांकक अपनी आबद्धता से पृष्ठांकिती के प्रति उन्मुक्त हो जाता है, परन्तु ऐसा पृष्ठांकक किसी सद्भावी धारक के प्रति आबद्ध बना रहेगा।

क्या चेक का पुनः वैध बनाना तात्विक परिवर्तन है - एक ही महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न होता है कि चेक को पुनः वैध बनाना क्या तात्विक परिवर्तन है? इसी प्रकार अन्य लिखतों विधिमान्य बनाना क्या तात्विक परिवर्तन होता है? यह प्रश्न सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय के समक्ष वीरा एक्सपोर्ट बनाम टी० कलावती के मामले में आया था।

प्रत्यर्थी (टी० कलावधी) ने अपीलार्थी को 8 चेक विभिन्न तिथियों पर 9 अप्रैल, 1995 से 30 अप्रैल, 1995 के लिए सम्पूर्ण रकम चार लाख के लिये जारी किए थे। अतः चेकों को 15 मई, 1995 को संदाय के लिए बैंक के समक्ष उपस्थापित किए गए थे जो अनादूत हो गए।

अपीलार्थी ने इस तथ्य को प्रत्यर्थों के संज्ञान में लाया उसने अपीलार्थों से कुछ और समय देने के लिए अनुरोध किया जो प्राप्त हुआ, परन्तु प्रत्यर्थी चेकों का संदाय जनवरी, 1996 तक नहीं कर सका। उसने चेक की तिथि को 1995 के स्थान पर 1996 आवश्यक परिवर्तन के साथ उस समय उसमें कर दिया। चेकों को पुनः 18 जुलाई, 1996 को संदाय के लिए बैंक में उपस्थापित किया गया जो अनादृत हो गए।

अपोलार्थी ने एक विधिक सूचना प्रत्यर्थी को 8 अगस्त, 1996 को भेजा। तत्पश्चात् अपीलार्थी ने धारा 138 के अधीन परिवाद दाखिल किया।

प्रत्यर्थी का कथन था कि,

(1) उसे चेक की तिथियों को परिवर्तित करने के लिए दबाव दिया गया और अपनी स्वतंत्र इच्छा से उसने ऐसा नहीं किया; एवं

(2) चेक तात्विक परिवर्तन से शून्य एवं अप्रवर्तनीय हो गए थे।

विचारण न्यायालय ने यह धारित किया कि जब एक बार चेक की वैधता अवधि समाप्त हो जाती है, तो तिथि के परिवर्तन द्वारा चेक को पुनः 6 माह के लिए जीवन प्रदान कर उसे पुनः वैध नहीं बनाया जा सकता है।

उच्च न्यायालय में अपील करने पर यह धारित किया गया कि चेक की तिथि में परिवर्तन एक तात्विक परिवर्तन है जो प्रत्यर्थी के हितों को प्रभावित करता है और यह धारित किया गया है कि प्रत्यर्थी ऐसे परिवर्तन का इच्छुक पक्षकार नहीं था, अधिनियम की धारा 87 के अनुध्यात से चेक शून्य थे।

परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपील में यह धारित किया कि परक्राम्य लिखतों को पुनः वैध बनाया जा सकेगा और इस सम्बन्ध में किया गया परिवर्तन तात्विक परिवर्तन नहीं होता है एवं उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर यह सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि अवैध (पुराना) चेकों को पुनः वैध बनाया जाता है जिससे उन्हें पुनः नया 6 माह का जीवन दिया जा सकता है।

क्या अपूर्ण चेकों को पूर्ण करना तात्विक परिवर्तन है? अधिनियम की धारा 20 के अधीन एक धारक को एक अपूर्ण लिखत को पूर्ण करने का विधिक अधिकार होता है। अतः यह तात्विक परिवर्तन नहीं होता है एच० एस० श्रीनिवासा बनाम गिरिजम्मों के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह धारित किया है कि एक अधूरी लिखत के प्रविष्टियों को पूरित करना अभिलेख में परिवर्तन करना नहीं होता है, क्योंकि संविधि में यह उपबन्धित है (धारा 20) कि इस प्रक्रिया को अधूरी लिखत के लिए अपनायी जाय।

अतः धारा 20 के प्रभाव से एक अधूरी लिखत को पूरित करना तात्विक परिवर्तन नहीं होता है। हितेन भाई बनाम गुजरात राज्यों में भी यह धारित किया गया है कि निरंक चेक को पूरित करना इसे वैध बनाता है और अनादर की दशा में धारा 138 को आकर्षित करता है।

मे० पायनियर ड्रिप सिस्टम प्रा० लि० बनाम मे० जैन इरिगेशन सिस्टम लि०, के मामले में परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 20 के अधीन धारक उस रकम से अधिक न हो जिसके लिए वह स्टाम्प पर्याप्त है, किसी भी रकम के लिए पूरित कर ले और ऐसा करना तात्विक परिवर्तन नहीं होगा जहाँ निरंक (Blank) चेक जारी किया गया है। बोरा सिंह बनाम मुकेश कुमाएँ, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया है कि एक अपूर्ण हस्ताक्षरित चेक को पूर्ण करना परिवर्तन नहीं होता है।

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