क्या विवाह से जुड़े विवादों में झूठी FIR हाईकोर्ट रद्द कर सकता है?

Update: 2025-07-26 11:52 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने Apoorva Arora बनाम राज्य उत्तर प्रदेश मामले में एक अहम निर्णय दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि CrPC (Code of Criminal Procedure) की धारा 482 (Section 482) के तहत हाईकोर्ट के पास यह शक्ति है कि वह ऐसे criminal proceedings (आपराधिक कार्यवाही) को रद्द कर सके जो केवल बदले की भावना या प्रताड़ना के उद्देश्य से की गई हो।

यह निर्णय खासतौर पर विवाह संबंधी झगड़ों (Matrimonial Disputes) में दायर की गई FIRs से संबंधित है, जिनमें अक्सर IPC (Indian Penal Code) की धारा 498A, 323, 504, और 506 लगाई जाती हैं।

कोर्ट ने दोहराया कि अगर कोई FIR (First Information Report) कानून का दुरुपयोग करते हुए दर्ज की गई हो, और उसका उद्देश्य न्याय नहीं बल्कि प्रतिशोध हो, तो हाईकोर्ट को आगे बढ़कर ऐसे मामलों को समाप्त कर देना चाहिए।

धारा 482 CrPC का दायरा और उद्देश्य (Scope and Spirit of Section 482 CrPC)

धारा 482 CrPC के तहत हाईकोर्ट को "Inherent Powers" (निहित शक्तियां) दी गई हैं। यह शक्तियां असीम नहीं हैं, बल्कि इन्हें केवल तब उपयोग में लाया जाना चाहिए जब किसी व्यक्ति के खिलाफ की गई आपराधिक कार्यवाही पूरी तरह से अन्यायपूर्ण प्रतीत हो रही हो।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट का कार्य Mini Trial (लघु सुनवाई) करना नहीं है। उसे केवल यह देखना होता है कि क्या FIR या चार्जशीट (Chargesheet) में लगाए गए आरोप खुद में किसी अपराध को दर्शाते हैं या नहीं। यदि आरोपों से साफ है कि मामला पूरी तरह से झूठा, बेबुनियाद या दुर्भावनापूर्ण (Malicious) है, तो हाईकोर्ट उसे रद्द कर सकता है।

सही शिकायत और कानूनी उत्पीड़न में अंतर (Distinguishing Between Genuine Grievance and Legal Harassment)

कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि कई Matrimonial Cases (विवाह संबंधित मामलों) में क्रिमिनल केस सिर्फ प्रतिशोध के रूप में दायर किए जाते हैं, खासकर जब परिवारिक या सिविल मामले कोर्ट में चल रहे हों।

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि धारा 498A IPC का असली उद्देश्य महिला को उसके ससुराल में होने वाले अत्याचार से बचाना है, लेकिन जब इस धारा का दुरुपयोग होता है तो असली पीड़ितों की आवाज दब जाती है और न्याय प्रणाली का विश्वास भी कमजोर होता है।

इसलिए, अगर FIR का मकसद केवल उत्पीड़न या निजी झगड़ों का बदला लेना है, और उसमें लगाए गए आरोप सामान्य और अस्पष्ट (Vague and Omnibus Allegations) हैं, तो उसे जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग (Abuse of Process) माना जाएगा।

महत्वपूर्ण निर्णयों का उल्लेख (Key Judicial Precedents Discussed)

इस फैसले में कोर्ट ने कई पुराने अहम फैसलों का उल्लेख किया, जिनसे हाईकोर्ट को धारा 482 के तहत कार्रवाई करने का मार्गदर्शन मिलता है।

सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था:

State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) – इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ स्थितियों को चिन्हित किया था जब आपराधिक कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है, जैसे:

• जब आरोप स्वयं में किसी अपराध को स्थापित नहीं करते,

• जब शिकायत दुर्भावनापूर्ण हो, या

• जब कार्यवाही न्याय के विपरीत हो।

दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय था:

Preeti Gupta v. State of Jharkhand (2010) – इसमें कोर्ट ने माना कि विवाह संबंधित मामलों में 498A का बढ़ता दुरुपयोग एक गंभीर समस्या बन चुका है और न्यायालयों को सतर्कता बरतनी चाहिए।

तीसरा निर्णय था:

Kahkashan Kausar v. State of Bihar (2022) – इसमें कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल सामान्य आरोपों के आधार पर पति के रिश्तेदारों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही नहीं चलाई जा सकती। सभी को आरोपित करना बिना किसी तथ्य के गंभीर दुरुपयोग है।

धारा 498A IPC और न्यायिक दृष्टिकोण (Section 498A IPC and Judicial Handling)

धारा 498A IPC का उद्देश्य महिलाओं को विवाह के बाद उनके ससुराल में हो रही क्रूरता (Cruelty) से बचाना था। लेकिन समय के साथ-साथ इसके Misuse (दुरुपयोग) को भी अदालतों ने गंभीरता से लिया है।

इस निर्णय में कोर्ट ने यह दोहराया कि यदि आरोप केवल सामान्य हैं और उसमें किसी व्यक्ति की भूमिका स्पष्ट नहीं है, खासकर जो लोग विवाह के समय साथ नहीं रहते थे, तो उन पर मुकदमा चलाना अनुचित होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने यह संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है कि जहां असली पीड़िता को न्याय मिले, वहीं निर्दोषों को अनावश्यक रूप से परेशान न किया जाए।

"Malice in Law" का सिद्धांत (Doctrine of Malice in Law)

कोर्ट ने इस निर्णय में Malice in Law (कानूनी दुर्भावना) की अवधारणा पर भी प्रकाश डाला। इसका अर्थ है कि यदि कोई मामला कानून की प्रक्रिया का पालन करता हुआ भी गलत उद्देश्य (Improper Purpose) से किया गया हो, तो उसे दुर्भावनापूर्ण माना जाएगा।

इस प्रकार के मामलों में शिकायतकर्ता का व्यवहार, तथ्यों की पूरी तस्वीर और शिकायत के समय की परिस्थितियाँ यह स्पष्ट कर सकती हैं कि क्या मामला वास्तव में न्याय प्राप्त करने के लिए किया गया था या किसी को प्रताड़ित करने के लिए।

मैरिटल मामलों में हाईकोर्ट की जिम्मेदारी (Duty of the High Court in Matrimonial Matters)

कोर्ट ने कहा कि जब साफ दिखता हो कि मामला दुर्भावनापूर्ण है, तो हाईकोर्ट को धारा 482 के तहत दखल देना चाहिए और कार्यवाही को खत्म कर देना चाहिए। हालांकि यह शक्ति केवल सतर्कता और विवेक (Judicial Discretion) से ही इस्तेमाल की जानी चाहिए।

हाईकोर्ट को निर्णय लेने में यह नहीं देखना चाहिए कि आरोप सच हैं या झूठ, बल्कि यह देखना चाहिए कि क्या लगाए गए आरोपों से किसी अपराध का गठन होता है या नहीं। अगर नहीं होता, तो कार्यवाही को जारी रखना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगा।

Apoorva Arora का यह फैसला इस बात को मजबूत करता है कि आपराधिक कानून का इस्तेमाल केवल न्याय के लिए होना चाहिए, प्रतिशोध के लिए नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि कोर्ट का समय और शक्ति झूठे मामलों में नहीं जानी चाहिए और निर्दोष व्यक्तियों को बचाना भी न्याय का हिस्सा है।

यह निर्णय उन मामलों के लिए मार्गदर्शक बनेगा जहाँ वैवाहिक विवाद में आपराधिक मामले दर्ज किए जाते हैं, और यह सुनिश्चित करेगा कि न्याय निष्पक्ष, न्यायसंगत और संतुलित बना रहे।

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