निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स में प्रतिफल का महत्व

Update: 2025-03-18 03:50 GMT
निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स में प्रतिफल का महत्व

चूँकि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक निश्चित धनराशि भुगतान करने की संविदा करता है, अत: एक विधिसम्मत संविदा के समर्थन के लिए प्रतिफल का होना आवश्यक होता है। लिखतों के सम्बन्ध में प्रतिफल की उपधारणा होती है।

अधिनियम की धारा 118 (क) में यह उबन्धित है कि प्रत्येक निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स जब यह प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित परक्राम्य या अन्तरित किया जाता है तो ऐसा प्रतिग्रहण, पृष्ठांकन, परक्रामण या अन्तरण प्रतिफल से किया गया है परन्तु वह उपधारणा खण्डनीय होती है। तातोपमुला नागराजू बनाम पैटेम पदमावती के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया है कि टेम्परड वचनपत्र में जहाँ वादी की ओर से प्रतिफल नहीं है, प्रतिवादी को आबद्ध धारित नहीं किया जा सकता है।

प्रतिफल की उपधारणा का खण्डन प्रतिफल को विद्यमानता की सांविधिक उपधारणा होता है। इसका अर्थ है कि यह उपधारित है कि जब कोई लिखत लिखा, प्रतिगृहीत परक्रामित या अन्तरित किया है तो यह प्रतिफल के लिये किया जाता है। व्यक्ति जो यह कहता है कि प्रतिफल नहीं है, इसे साबित करने की आबद्धता उस पर होती है कि उक्त कार्य बिना प्रतिफल के किए गए हैं। ऐसे मामलों में पुनः बाध्य दूसरे पक्षकार पर आ जाता है कि वह साबित करे कि प्रतिफल था। यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है, यह माना जाएगा कि प्रतिफल नहीं था।

विजय किशोर बनाम पेट्टा ब्रह्मानन्द राजे के मामले में आन्ध्र प्रदेश हाईकोर्ट का निर्णय महत्वपूर्ण है। इस मामले में यह अभिकथित था कि लेखक (प्रतिवादी प्रत्यर्थी) ने क से (लेनदार) 27,500 रु० कर्ज लेकर 19-9-90 को एक वचनपत्र लिखा 24% की दर से ब्याज के साथ उक्त राशि चुकाने का वचन दिया और इसे क ने अपीलकर्ता (के० वी० किशोर) को 18-10-90 को पृष्ठांकित किया। अपने प्रत्यर्थी (लेखक) पर वचनपत्र के पृष्ठांकन के आधार पर उसके वसूली के लिए वाद लाया। अपीलार्थी का कथन था कि प्रत्यर्थी ने 27,500 रु० का कर्ज 'क' से लिया और एक वचनपत्र निष्पादित किया जिसे अपीलार्थी ने पृष्ठांकन द्वारा 27,500 रु० प्रतिफल के लिए प्राप्त किया था। वचनपत्र की धनराशि की बार-बार माँग करने पर भी लेखक ने भुगतान नहीं किया।

अपीलकर्ता उन परिस्थितियों जिसके अधीन वचनपत्र लिखा गया था उसका स्पष्टीकरण देने में असमर्थ रहा। सबसे ऊपर के प्रत्यर्थों की कर्ज देने की क्षमता स्थापित नहीं हो सकी। क की आर्थिक स्रोत और कहाँ से और कैसे उसने सम्बन्धित धनराशि की व्यवस्था की थी, जबकि यह एक साधारण चिट फण्ड में एक क्लर्क था. समुचित रूप में जवाब देने में असमर्थ रहा था। न्यायालय का मानना था कि वचनपत्र का एवं प्रतिफल का भुगतान साबित नहीं हो सका है। अतः विचारण न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया और हाईकोर्ट में अपील होने पर अपोल उन्हीं आधारों पर खारिज कर दिया।

कुन्दन लाल रालाराम बनाम कस्टोडियन इवैकुई प्रापटॉ, बाम्बे में यह निर्णत किया गया है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स निष्पादित या पृष्ठांकित बिना प्रतिफल के किया या पृष्ठांकित किया गया है, को साबित करने का भार लेखक/पृष्ठांकितो की होती है।

के० पी० ओ० मोईदीन हाजी बनाम पप्पू मंजूरन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया है कि अधिनियम की धारा 118 (क) के अधीन यह उपधारणा होती है कि जब तक प्रतिफल साबित न हो, यह उपधारित की जाएगी कि प्रत्येक लिखत प्रतिफल के लिए लिखा गया है। जहाँ किसी वचनपत्र के निष्पादन की स्वीकृति है, धारा 118 (क) के अधीन प्रतिफल को उपधारणा की जाती है।

केदार सिंह बनाम भगवान सिंह में भी यह धारित किया गया है कि धारा 118 के अधीन यह उपधारणा को जाती है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स जब तक कि प्रतिकूल साबित न हो प्रतिफल से समर्थित होता है। विशम्भर दयाल बनाम विश्वनाथ अग्रवाल में यह धारित किया गया है कि यह उपधारणा कि वचनपत्र प्रतिफल सहित लिखा गया है केवल इस आधार पर निष्फल नहीं करेगा कि दिखाया गया प्रतिफल वचनपत्र में इंगित प्रतिफल के समान नहीं है।

बेनी माधव नाथ बनाम जुबान में यह धारित किया गया है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स के निष्पादन की स्वीकृति धारा 115 (क) के अधीन प्रतिफल की उपधारणा को प्रबल उपधारणा उत्पन्न करता है यद्यपि कि यह उपधारणा खण्डनीय है। ए० वी० मुर्ची बनाम बी० एस० नागबसवन्ना के मामले में अधिनियम की धारा 118 (क) के विस्तार पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। मामले के प्रभाव की सराहना के लिए मामले के तथ्यों का वर्णन करना आवश्यक है।

अपीलकर्ता (बैंक का धारक) मजिस्ट्रेट के समक्ष एक परिवाद लाया कि प्रत्यर्थी ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स अधिनियम, 1891 की धारा 138 के अधीन दण्डनीय अपराध कारित किया है। अपीलकर्ता का कथन था कि उसने एवं उसके दो मित्रों ने चार वर्ष पूर्व प्रत्यर्थी को पेट्रोल पम्प खोलने के लिए 7.5 लाख रुपए ऋण दिये थे और प्रत्यर्थी ने इस धनराशि को वापस नहीं लौटाया, परन्तु अपीलकर्ता के अनुरोध पर प्रत्यर्थी ने एक चेक उसे जारी किया जो बैंक ने "खाता बन्द" टिप्पण के साथ अनादूत कर दिया। सांविधिक सूचना के पश्चात् प्रत्यर्थी चेक धनराशि का भुगतान नहीं किया अतः यह परिवाद किया गया।

प्रत्यर्थी का यह कथन था कि चेक 4 वर्ष पूर्व दिये गए ऋण के बाबत चेक जारी किया गया था जो एक प्रवर्तनीय ऋण या आबद्धता नहीं था जिससे यह वाद पोषणीय नहीं है। विद्वान मजिस्ट्रेट ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध समन जारी किया। प्रत्यर्थी ने अपर जनपद न्यायाधीश, मैसूर के समक्ष आपराधिक रिवीजन दाखिल किया। न्यायालय ने प्रत्यर्थी के कथन को स्वीकार करते हुए सम्पूर्ण कार्यवाही को रद्द कर दिया। अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट में आपराधिक रिवीजन प्रस्तुत किया। हाईकोर्ट ने निचली अदालत को मान्य किया, अतः सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई।

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को मान्य करते हुए यह धारित किया कि सत्र न्यायाधीश एवं हाईकोर्ट की एकल पीठ ने याचिका को खारिज करने में धारा 118 (क) के अधीन भूल की है कि क्योंकि रूप की आबद्धता की धारा 118 (क) में उपधारणा है जब तक कि इसके विरुद्ध यह साबित न कर दिया जाए, क्योंकि धारक ने चेक को धारा 138 के अनुक्रम में ऋण एवं आबद्धता के लिये प्राप्त किया था। संविदा अधिनियम की धारा 25 (3) के अधीन भी यह एक विधिमान्य संविदा था साथ ही साथ प्रत्यर्थी ने अपने खातों में प्रत्येक वर्ष इसे ऋण के रूप में दिखाया है जो ऋण की अधिस्वीकृति भी है और याची अद्यतन को अभिस्वीकृति से परिसीमा अवधि रखता है।

इस प्रकार चेक किसी ऋण एवं आबद्धता के लिये लिखा गया का मामला नहीं है, जो विधि के अधीन होने से पूर्ण वर्जित है। उदाहरण के लिए जहाँ एक चेक प्रथम संविदा के अधीन किसी ऋण या आबद्धता के लिये लिखा गया है, यह कहा जाएगा कि चेक किसी ऋण एवं आबद्धता के लिए नहीं लिखा है क्योंकि यहाँ पर दावा विधि के अधीन वर्जित है। यह मामला उस प्रकार का मामला नहीं है। परन्तु प्रक्रिया के इस प्रक्रम पर हम यह कहने के लिए निश्चित हैं कि प्रत्यर्थी द्वारा लिखा गया चेक किसी ऋण एवं आबद्धता के लिये नहीं है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं था, स्पष्टतः अविधिक एवं भ्रामक है।

पुनः विजय शंकर राय बनाम सुजीत अग्रवाला में यह धारित किया गया है कि अभिलेखों के साक्ष्य से यह साबित है कि प्रतिवादियों द्वारा किसी एक प्रतिवादी के विवाह के लिए ऋण लिया गया था प्रतिवादी द्वारा नोट पर अपने हस्ताक्षर का प्रत्याख्यान करने के लिए साक्ष्य बाक्स में उपस्थित न होना हस्तलिखित नोट का सबित होना- यह एक वचनपत्र था जिसके अन्तर्गत प्रतिवादी द्वारा वादी से लिए गए ऋण का माँग पर संदाय करने का वचन था। जब वचनपत्र का निष्पादन साबित हो जाता है, न्यायालय के पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता सिवाय इसके कि वचनपत्र में लिखित प्रतिफल एवं तिथि जिस पर लिखा गया है, साबित माने।

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