सीआरपीसी की धारा 482 : जानिए उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति (Inherent Power) का अर्थ और उससे संबंधित कुछ विशेष प्रकरण
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (CrPC) के अंतर्गत धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय को अंतर्निहित शक्ति (Inherent Power) प्रदान की गई है। इस धारा के अधीन उच्च न्यायालय को एक विशेष शक्ति दी गई है। यह शक्ति दिए जाने का उद्देश्य न्यायालय की कार्यवाही को दुरुपयोग से बचाना है तथा न्याय के उद्देश्यों को बनाए रखना है।
कोई भी संहिता, अधिनियम, नियम, अपने आप में पूर्ण नहीं होते हैं क्योंकि समय, परिस्थितियां, क्षेत्र, काल के अनुरूप सब कुछ बदलता रहता है तथा अधिनियम नियमों एवं सहिंता को बनाने वाली विधायिका में इतनी दूरदर्शिता नहीं रहती है कि वह किसी संहिता को परिपूर्ण तथा अंतिम कर दे। भविष्य में उत्पन्न होने वाली सभी संभावित समस्याओं की पूर्व कल्पना करना संभव ही नहीं होता है क्योंकि भविष्य के गर्भ में देख पाना असंभव सा है।
इस समस्या से निपटने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत हाईकोर्ट को अंतर्निहित शक्ति प्रदान की जाती है, ताकि वह न्यायिक कार्यवाहियों के दौरान समय-समय पर उत्पन्न होने वाली ऐसी कठिनाइयों का निवारण कर सकें जिनके बारे में विधि के उपबंध मौन हो। इसका अर्थ यह है कि न्यायालय द्वारा अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है जब उसके समक्ष उत्पन्न किसी विधिक प्रश्न के निवारण के संदर्भ में उपबंध न हो। किसी समस्या के निवारण हेतु विधिक उपबंध विद्यमान होने की दशा न्यायालय द्वारा अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाएगा।
एक अन्य लेख में हम देख चुके हैं कि सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत किस प्रकार के मामले, कौन सी परिस्थितियों में एवं किस प्रकार से निपटाए जाते हैं।
इस लेख में हम कुछ महत्वपूर्ण प्रकरणों की रौशनी में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में धारा 482 पर और चर्चा करेंगे।
ललित मोहन मंडल बनाम ध्यानेन्द्र नाथ चटर्जी एआईआर 1982 सुप्रीम कोर्ट 785 के प्रकरण में कहा गया है कि कुछ असाधारण परिस्थितियों में हाईकोर्ट द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है एवं अंतर्निहित शक्ति के प्रयोग के प्रश्न पर न्यायालय को अपने विधिक विवेक का प्रयोग करना चाहिए।
समय-समय पर जो प्रकरण आए हैं, उन्हें देखने के उपरांत यह प्रतीत होता है कि उच्च न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के अधीन अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग मुख्यतः कुछ तीन प्रकार की परिस्थितियों में करता है-
1)- सहिंता की धारा 154 के अंतर्गत दर्ज की जाने वाली प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को अभिखण्डित (Quash) करने हेतु।
2)- सहिंता की धारा 173 के अधीन न्यायालय के समक्ष अभियोजन द्वारा पेश किए जाने वाले अंतिम प्रतिवेदन को निरस्त करने हेतु।
3)- किसी आपराधिक प्रकरण के पक्षकारों में आपसी राजीनामा हो जाने के उपरांत भी चलाई जा रही किसी दंडित कार्यवाही को निरस्त करने हेतु।
4)- आरोप- पत्र में किसी अभियुक्त के विरुद्ध आरोप तय नहीं किए जाने के उपरांत भी उस पर चलाए जा रहे आयुक्तियुक्त विचारण (Trial) की कार्यवाही को निरस्त करने हेतु।
सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत उच्च न्यायालय द्वारा अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग कुछ सिद्धांतों के अधीन किया जाता है-
1)- दीदीगम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2008 क्रिमिनल लॉ जर्नल 724 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहा गया है-
यदि व्यथित (Victim) पक्षकार को दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत उसकी परिवेदना के निवारण हेतु निर्दिष्ट प्रावधान (Provisions) उपलब्ध हो तो उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं करेगा।
यह शक्ति केवल कभी-कभी ही प्रयुक्त की जानी चाहिए वह भी उस स्थिति में प्रयोग की जाना चाहिए जब न्यायालय की किसी प्रक्रिया का दुरुपयोग किया जा रहा है और न्याय के उद्देश्यों को भंग किया जा रहा है।
2)- यदि न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग किया जाना आवश्यक हो।
हरियाणा राज्य बनाम भजनलाल एआईआर 1992 सुप्रीम कोर्ट 604 के प्रकरण में संज्ञेय अपराधों के मामले में उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग कुछ निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है जिनका उल्लेख अग्रलिखित किया जा रहा है-
1)- जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में कथित आरोप या परिवाद में उल्लिखित आरोपों के आधार पर अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथम दृष्टया अपराध नहीं बनता हो।
2)- जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद में उल्लिखित आरोपों में से कोई संज्ञेय अपराध का कारित होना प्रकट न होता हो।
3)- जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद में लिखे गए आरोपों के संबंध में उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त के विरुद्ध अपराध न बनता हो।
4)- जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) या परिवाद के आधार पर संज्ञेय अपराध के बजाय असंज्ञेय अपराध का कारित होना साबित होता है।
5)- जहां (FIR) और परिवाद में लगाए गए आरोप व्यर्थ है जिनके आधार पर कोई अपराध न बनता हो और अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही का कारण न हो।
6)- जहां दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन पीड़ित पक्षकार को विशिष्ट उपचार उपलब्ध नहीं हो।
भजनलाल के प्रकरण में दिए गए यह दिशा निर्देश से स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि किसी भी प्रकरण में यदि पीड़ित पक्षकार के पास कोई विशिष्ट उपचार उपलब्ध हो तो ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय द्वारा नहीं किया जाएगा।
इस शक्ति का प्रयोग केवल तब ही किया जाएगा जब अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Court) कोई ऐसी कार्यवाही कर रहा है जिस कार्यवाही से न्याय के उद्देश्य भंग हो रहे हैं या कोई ऐसी एफआईआर दर्ज की गई है या फिर ऐसे परिवाद के आधार पर प्रकरण दर्ज किया गया है, जिससे अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई अपराध नहीं बनता हो, अभियुक्त को आपसी रंजिश के परिणाम स्वरूप किसी प्रकरण में झूठा फंसाया जा रहा हो, राजनीतिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए किसी अभियुक्त को प्रकरण में अवैध तरीके से फंसाया गया है, द्वेष भावना से किसी व्यक्ति पर आयुक्तियुक्त तरीके से कार्यवाही की गई है, तब ही न्यायालय आपने इन्हेरेंट पॉवर का उपयोग करेगा।
रतीलाल भांजी मथानी बनाम असिस्टेंट कलेक्टर ऑफ कस्टम्स एआईआर 1967 सुप्रीम कोर्ट 1639 के मामले में कहा गया है कि यदि उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्ति के अंतर्गत अभियुक्त की ज़मानत को निरस्त कर देता है, जिसके कारण उसकी स्वधीनता प्रभावित होती है तो इस तरह की ज़मानत का निरस्तीकरण विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही होना चाहिए अन्यथा उच्च न्यायालय का यह कार्य संविधान के अनुच्छेद 21 के विरुद्ध माना जाएगा।
उच्च न्यायालय द्वारा धारा 482 के अंतर्गत अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए एवं उन्हीं परिस्थितियों में किया जाना चाहिए जिन परिस्थितियों में संहिता के उपबंध उपलब्ध नहीं हो।
सीआरपीसी की धारा 482 से जुड़े कुछ विशेष प्रकरण
हमीदा खातून बनाम झारखंड राज्य 2004 क्रिमिनल लॉ जर्नल 3626 के मामले में एक महिला परिवादी थी। उसने अपने पति को तंग करने की नीयत से परिवाद दायर किया था कि पति के रिश्तेदार उसे प्रताड़ित कर रहे हैं तथा यातनाएं पहुंचा रहे हैं। इसकी जांच के पश्चात यह आरोप निराधर पाए जाने के कारण परिवाद खारिज कर दिया गया।
इसके बाद परिवादी पत्नी ने पति की ओर से तलाक का नोटिस प्राप्त होने पर उसने पति के विरुद्ध वही आरोप लगाते हुए उच्च न्यायालय से सीआरपीसी की धारा 482 के अधीन अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए आवश्यक कार्यवाही करने का निवेदन किया।
इस पर न्यायालय में उसके आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया कि वह बदले की भावना से प्रेरित था, ताकि पति परेशान हो। स्पष्ट किया कि धारा 482 का सहारा लेते हुए आवेदन बुरी प्रेरणा से प्रेरित है तथा अभियुक्त को परेशान करने के उद्देश्य से न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। ऐसा आवेदन अपास्त किए जाने योग्य है।
शिवनाथ प्रसाद बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 1181 के प्रकरण में अपीलार्थियों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 406, 420, 467, 417 और 204 एवं धारा 120 बी का आरोप लगाते हुए परिवाद दायर किया गया था।
इस वाद में पति-पत्नी ने आपस में मौखिक अनुबंध किया था कि उनकी दोनों की मृत्यु के पश्चात उनकी संपत्ति दान कर दी जाए। आरोपियों के विरुद्ध आरोप था कि उन्होंने आपराधिक षड्यंत्र द्वारा उक्त महिला की वसीयत में हेराफेरी करके गुप्त दान संपत्ति को हड़प लिया था और उसे अपने स्वयं के नाम पर कर लिया था। प्रस्तुत परिवाद पति-पत्नी के मध्य किए गए आपसी मौखिक गुप्त न्यास से संबंध था। न्यायालय के समक्ष विचार का प्रश्न यह था कि क्या ऐसा न्यास वैध था तथा क्या पत्नी को पति की मृत्यु के पश्चात उस न्यास को समाप्त कर अपनी इच्छा अनुसार इच्छा पत्र तैयार करने का अधिकार था।
न्यायालय ने निश्चित किया कि यह मुद्दे बचाव पक्ष की ओर से अपनी रक्षा में उनकी साक्ष्य लिखित होने के चरण में उठाए जाने चाहिए थे। परिवाद दुर्भावना से प्रेरित था। उच्च न्यायालय द्वारा धारा 482 के अधीन अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए परिवाद को खारिज नहीं किया जाना न्यायोचित था, इस आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अपील में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
धर्मपाल बनाम श्रीमती राजी तथा अन्य 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1049 उच्चतम न्यायालय के मामले में कहा गया है कि जहां मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध सेशन न्यायालय में पुनरीक्षण आवेदन दायर किया गया हो और जिसे सेशन न्यायालय द्वारा खारिज किया जा चुका हो तो उक्त दशा में उच्च न्यायालय धारा 397(3) की विधिमान्यता में धारा 482 के अधीन प्रदत अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए द्वितीय पुनरीक्षण याचिका स्वीकार नहीं कर सकता।
राजपति बनाम वचन के प्रकरण में यह विनिश्चित किया गया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अधीन अंतिम आदेश पारित करते समय परीशांति भंग होने की आशंका के संबंध में निष्कर्ष को अभिलिखित किया जाना आवश्यक नहीं है क्योंकि इस तरह की आशंका का तथ्य स्वयं पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए लिखित कथनों से परिलक्षित होता है। अतः अंतिम आदेश में ऐसे निष्कर्ष के अभिलेखन में गलती एक ऐसी भूल है जिसे सुधारा जा सकता है तथा इससे संपूर्ण कार्यवाही दूषित नहीं हो जाएगी। मजिस्ट्रेट धारा 145 के अधीन अपने अंतिम आदेश द्वारा पक्षकारों में से किसी एक को विवादित भूमि का कब्जाधारी घोषित करता है यदि आदेश के अभिलेखन में कोई टेक्निकल त्रुटि रह जाती है तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन मिली अंतर्निहित शक्ति से उच्च न्यायालय द्वारा दूर नहीं किया जा सकता है।
मीना कुमारी बनाम बिहार राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 1937 के वाद में पुलिस द्वारा आरोप- पत्र के बिना ही मजिस्ट्रेट ने अभियुक्त के विरुद्ध अपराध का संज्ञान कर लिया। पुलिस को अभियुक्त के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं मिले थे। इस बात के भी कोई संकेत नहीं मिले थे कि मजिस्ट्रेट अन्वेषण अधिकारी की रिपोर्ट से असहमत एवं असंतुष्ट था। इसलिए उसने अभियुक्त के विरुद्ध अपराध का संज्ञान करके आदेशिका जारी की थी। अतः यह स्पष्ट था कि आदेशिका उचित प्रक्रिया का अनुपालन किए बिना जारी की गई थी। इसके बाद इसे केवल एक लिपिकीय त्रुटि मानते हुए उक्त आदेशिका वापस ले ली गई और उसमें से अभियुक्त का नाम निकाल दिया गया।
इसके विरुद्ध अपील में उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए अभिकथन किया कि मजिस्ट्रेट को स्वयं द्वारा पारित आदेश के पुनरीक्षण की अधिकारिता प्राप्त नहीं थी। न्यायालय का अभिमत था कि धारा 362 दंड प्रक्रिया संहिता को स्वयं द्वारा पारित आदेश को वापस लेने की अनुमति नहीं देती है। इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय ने निश्चित किया कि इस प्रकरण में उच्च न्यायालय से अपेक्षित था कि वह धारा 482 के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट द्वारा की गई कार्यवाही को अपास्त कर देता पर उच्च न्यायालय ने नहीं किया।
कृष्ण कांत शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य 2016 (2) एचसी सीडी 807 मध्य प्रदेश के प्रकरण में पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध धारा 498A तथा घरेलू हिंसा अधिनियम एवं भारतीय दंड सहिंता की धारा 307, 308, 323, 294, 506, 134 के अपराधों में प्रकरण चला रखे थे। पति पत्नी में मध्यस्थ द्वारा समझौता करवा दिया गया। उक्त आपराधिक प्रकरणों को निरस्त किए जाने के लिए धारा 482 का आवेदन पेश किया गया। उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया कि प्रकरणों को चालू रखना व्यर्थ होगा सभी प्रकरण समाप्त किए जाएं।
डॉक्टर जयश्री उज्जवल इंगोले बनाम महाराष्ट्र राज्य एआईआर 2017 सुप्रीम कोर्ट 2071 के प्रकरण में सड़क दुर्घटना में आहत हुए व्यक्ति जिसका अधिक खून बह चुका था उसके अस्पताल में भर्ती होने पर लेडी सर्जन को बुलाया गया। सर्जन अस्पताल पहुंची आहत की परिचर्चा की एवं फिजिशियन को बुलाने के लिए टिप्पणी लिख कर चली गईं तथा फिजिशियन के आने तक नहीं रुकीं।
आहत की मृत्यु हो जाने पर लेडी सर्जन के विरुद्ध धारा 304 ए का अपराध इस आधार पर पंजीबद्ध किया गया कि आरोपी फिजीशियन के आने तक क्यों नहीं रुकीं? सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णीत किया गया कि आरोपी आपराधिक उपेक्षा की दोषी नहीं है। वह इस चेष्टा में चली गई होगी कि फिजिशियन शीघ्र आ जाएगा।
आरोपी के विरुद्ध धारा 304 ए का अपराध नहीं बनता। उच्च न्यायालय का निर्णय निरस्त किया गया एवं आरोपी के विरुद्ध प्रारंभ की गई आपराधिक कार्यवाही निरस्त की गई।