सीआरपीसी की धारा 482 और उच्च न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियां: विस्तार से जानिए इस प्रावधान की महत्वता
SPARSH UPADHYAY
28 April 2019 10:00 AM IST
अगर हम दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की बात करें तो इसमें कोई भी संशय नहीं है कि यह अपने आप में एक सम्पूर्ण एवं विस्तृत कानून है। यही नहीं, इसके अंतर्गत आपराधिक मामलो में अन्वेषण, ट्रायल, अपराध की रोकथाम एवं तमाम अन्य प्रकार की कार्यवाही का सम्पूर्ण ब्यौरा मिलता है। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि कानून बनाते वक़्त, हर प्रकार की संभावनाओं को ध्यान में रखने के बावजूद कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन्हे 'केस टू केस' देखने की जरुरत होती है।
ऐसे मामलों में प्रायः कानून द्वारा अदालत के ऊपर यह निर्णय छोड़ दिया जाता कि वो अपने विवेक से परिस्थिति के मुताबिक निर्णय लें। ऐसी ही परिस्थिति से निपटने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में धारा 482 को जगह दी गयी। इस लेख में इसी धारा और इससे जुड़े मामलों को हम देखेंगे और यह समझने का प्रयास करेंगे कि इस धारा के अंतर्गत किस प्रकार के मामले, किन परिस्थितियों में एवं किस प्रकार से निपटाए जाते हैं। इन्हे हम आम भाषा में न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों के रूप में जानते हैं।
इससे पहले कि हम दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों के बारे में समझे, आइये धारा को शब्दशः समझ लेते हैं जिससे हमे इसके बारे में बेहतर ढंग से जानकारी हासिल हो सके।
धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 - इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अन्तर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिए या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरूपयोग निवारित करने के लिए या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो।
इसके साथ ही यह भी गौरतलब है कि ऐसी कोई भी शक्ति, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत किसी और न्यायालय अथवा न्यायाधीश/मजिस्ट्रेट को प्राप्त नहीं हैं। किसी भी प्रकार की शंका के निवारण के लिए, यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि इस शक्ति का इस्तेमाल केवल उस परिस्थिति में ही उच्च न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जहाँ पर उन शक्तियों से जुड़ा कोई प्रावधान संहिता में पहले से मौजूदा न हो।
आर. पी. कपूर बनाम पंजाब राज्य के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माननीय उच्च न्यायालय की शक्तियों को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के दायरे में सीमित कर दिया है। इस फैसले में कहा गया था की, "सीआरपीसी में विशिष्ट प्रावधानों द्वारा सीधे कवर किए जाने वाले मामलों के संबंध में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति को लागू नहीं किया जा सकता है।"
अगर बात सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की करें तो संहिता की धारा 151 में भी अदालत की अन्तर्निहित शक्ति की बात की गयी है। हालाँकि यह धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 से इस प्रकार अलग है कि धारा 151 में किसी भी सिविल अदालत की अन्तर्निहित शक्तियों को पहचान दी गयी है, वहीँ दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 केवल उच्च न्यायालयों की अन्तर्निहित शक्तियों को पहचान देती है।
धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की अवधारणा
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक राज्य बनाम मुनीस्वामी मामले (AIR 1977 SC 1489) में कहा है कि धारा 482 केवल 3 परिस्थितियों की परिकल्पना करती है जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा स्वयं में निहित अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है। वे परिस्थितियां हैं, "संहिता के तहत किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिए, किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिए एवं और न्याय सुरक्षित करने के लिए"।
वास्तव में यह धारा उच्च न्यायालयों को यह स्मरण कराने के लिए भी हैं कि वे न केवल कानून की अदालत हैं, बल्कि वे न्याय की अदालतें भी हैं और वे अन्याय को दूर करने के लिए निहित शक्तियों के अधिकारी हैं।" चूँकि धारा 482 के तहत क्षेत्राधिकार विवेकाधीन है, इसलिए, उच्च न्यायालय अपने इस विवेक का प्रयोग करने से किसी केस में इनकार भी कर सकता है, यदि कोई पक्ष अदालत की शक्ति का दुरूपयोग करने की कोशिश करता है।
यह गौरतलब है कि केवल उन्ही मामलों में, जहां उच्च न्यायालय इस बात को लेकर संतुष्ट है कि या तो दंड प्रक्रिया संहिता के तहत पारित एक आदेश अप्रभावी हो जाएगा या कि किसी भी अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो सकता है या न्याय सुरक्षित नहीं किया जा सकेगा, उच्च न्यायालय को इस निहित शक्ति का प्रयोग करना चाहिए [तलब हाजी हुसैन बनाम मधुकर पुरुषोत्तम मोंडकर (1958 AIR 376) मामला]।
धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की उपयोगिता वाले मामले
असिस्टेंट गवर्नमेंट अधिवक्ता बनाम उपेंद्र नाथ मुखर्जी (AIR 1931 Pat 81 : 32 Cri LJ 551) मामले में अदालत द्वारा यह साफ़ किया गया था कि, 'अंतर्निहित न्याय अधिकारिता', 'प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए', 'न्याय सुरक्षित करने के लिए', कुछ ऐसे वाक्य हैं, जिन्हे परिभाषित करना मुश्किल है। हालाँकि ये आपराधिक न्यायशास्त्र के अच्छी तरह से स्थापित सिद्धांत अवश्य हैं।
यह भी सत्य है कि संहिता का निर्माण करने वाले लोग, उन सभी मामलों को परिभाषित या प्रतिपादित नहीं कर सकते थे जहाँ उच्च न्यायालय अपनी अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग कर सकता है। 'न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग' के अंतर्गत क्या मामले आएंगे यह 'केस टू केस' निर्भर करता है। इसलिए यह अन्तर्निहित शक्ति, न्यायालय के लिए विशेष मामलों में निर्णय लेने के लिए है [एडिलेयन कुन्हाम्बु नायर और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (1978 CriLJ 107) मामला]।
दरअसल संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत और संहिता की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति की कोई सीमा नहीं है, लेकिन इन शक्तियों को लागू करने के लिए अधिक सावधानी बरती जानी चाहिए। उन मामलों में जहाँ उच्च न्यायालय की शक्तियों का प्रयोग अनुच्छेद 227 या संहिता की धारा 482 के तहत हो सकता है, तो अनुच्छेद 226 के प्रावधानों को लागू करना हमेशा आवश्यक नहीं होता है। इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय के कुछ फैसले भी उच्च न्यायालय द्वारा इन अन्तर्निहित शक्तियों के प्रयोग के लिए सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं जिन्हे संदर्भित किया जा सकता है [मेसर्स पेप्सी फूड्स लिमिटेड और अन्य बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट और अन्य (1998 5 SCC 749) मामला]।
हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल मामला
धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के लिए हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992 AIR 604) का मामला बेहद अहमियत रखता है। इसके अंतर्गत माननीय उच्च न्यायालय द्वारा उन मामलों को बताया गया था, जहाँ उच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 या संहिता की धारा 482 के तहत दी गयी शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। हम उसका सार आपके सामने यहाँ रख रहे हैं:-
(1) जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट या शिकायत में लगाए गए आरोप से, भले ही उन्हें उनके अंकित मूल्य पर लिया गया हो और उनको उनकी संपूर्णता में स्वीकार किया गया हो, अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई अपराध नहीं बनता है;
(2) जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट और अन्य सामग्रियों में आरोप (यदि कोई हो,), एक संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं करते हैं, जिससे कोड की धारा 156 (1) के तहत पुलिस अधिकारियों द्वारा अन्वेषण का औचित्य साबित होता हो;
(3) जहां एफआईआर या 'शिकायत में लगाए गए अनियंत्रित आरोप और उसी के समर्थन में एकत्र किए गए सबूत किसी भी अपराध के कमीशन का खुलासा नहीं करते हैं और आरोपी के खिलाफ कोई भी मामला नहीं बनाते हैं;
(4) जहां प्राथमिकी में आरोप संज्ञेय अपराध का गठन नहीं करते हैं, लेकिन केवल गैर-संज्ञेय अपराध का गठन करते हैं, किसी भी पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी जांच की अनुमति नहीं है जैसा कि संहिता की धारा 155 (2) के तहत विचार किया गया है;
(5) जहां प्राथमिकी या शिकायत में लगाए गए आरोप इतने बेतुके और स्वाभाविक रूप से अनुचित हैं जिनके आधार पर कोई भी विवेकशील व्यक्ति कभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता है कि अभियुक्त के खिलाफ कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद है;
(6) जहां इस कोड या संबंधित अधिनियम (जिसके तहत एक आपराधिक कार्यवाही शुरू की गई है) के किसी भी प्रावधान के तहत कानूनी प्रक्रिया की शुरुआत या जारी रहने पर कानूनी निषेध लगाया गया हो, और/या जहां संहिता या संबंधित अधिनियम में प्रावधान, उत्तेजित पक्ष की शिकायत के लिए प्रभावी निवारण प्रदान करते हों;
(7) जहां एक आपराधिक कार्यवाही साफ़ तौर से 'mala fide' हो और/या जहां कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण रूप से आरोपी पर प्रतिशोध लेने के लिए एक गुप्त उद्देश्य के साथ शुरू की जाती है और निजी और व्यक्तिगत शिकायत के कारण उसे परेशान करने की कोशिश की गयी हो।
निसंदेह रूप से, हाल के समय में ज्यादातर मामलों में उच्च न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों के माध्यम से आपराधिक कार्यवाहियों को खत्म करने की याचिका दी जाती है।
धारा 482 के अन्य प्रयोग एवं कुछ जरुरी बातें
इस धारा का उपयोग संयमपूर्वक और सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए और केवल तब जब इस तरह के अभ्यास को विशेष रूप से अनुभाग में निर्धारित परीक्षणों द्वारा उचित ठहराया जाता है। इसको 'exdebito justitiae' (अधिकार के रूप में) का अभ्यास करते हुए वास्तविक और पर्याप्त न्याय करने के लिए किया जाना चाहिए, जिसके लिए अदालतें होती हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के एक मामले में यह भी दोहराया है कि एक उच्च न्यायालय, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए, यह जांच कर सकता है कि क्या एक मामला जो कि अनिवार्य रूप से एक सिविल प्रकृति का है, क्या उसे एक आपराधिक अपराध की शक्ल दी जा रही है [प्रोफेसर आर. के. विजयसारथी बनाम सुधा सीताराम (CRIMINAL APPEAL No. 238 OF 2019)]
हालांकि यह क्षेत्राधिकार एक असाधारण प्रकृति का है और केवल अधिकांश असाधारण मामलों में ही इसका उपयोग किया जाना चाहिए, लेकिन यह निस्संदेह है कि न्याय सुरक्षित करने और अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक फैसले से टिप्पणी को वापस (expunging the comment) लेने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा आदेश किया जा सकता है [उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मोहम्मद नईम (1964 AIR 703) मामला]।
धारा 482 के तहत निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते समय, न्यायालय के पास ऐसे मामलों को पारित करने की शक्ति है (जो संहिता के किसी प्रावधान के साथ असंगत नहीं है) जिसमें उचित मामलों में लागत (cost) के लिए दिया जाने वाला आदेश शामिल है। हालाँकि, इस असाधारण शक्ति का उपयोग असाधारण परिस्थितियों में और विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। लागत का आदेश, मुकदमेबाजी के खर्चों या उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हो सकता है [मैरी एंजल और अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (1999 5 SCC 209) मामला]।
उच्च न्यायालय के पास दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत किसी कार्यवाही में साक्ष्य को जांचने (appreciation) का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उस कार्यवाही में गवाहों के बयानों में विरोधाभास या/और विसंगतियां हैं या नहीं, अनिवार्य रूप से साक्ष्य की जांच से संबंधित मुद्दा है, जिसे न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा मुकदमे के विचरण के दौरान देखा जा सकता है जब पक्षकारों द्वारा साक्ष्य दिए जा रहे हों [मोहम्मद अलाउद्दीन खान बनाम बिहार राज्य (CRIMINAL APPEAL No. 675 OF 2019) मामला]।
सुप्रीम कोर्ट ने दिनेशभाई चंदूभाई पटेल बनाम गुजरात राज्य (CRIMINAL APPEAL No. 12 OF 2018) के मामले में यह निर्णय दिया गया है कि उच्च न्यायालय, दंड प्रक्रिया संहिता ("कोड") की धारा 482 के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए, यह जांचने के लिए कि क्या एफआईआर की तथ्यात्मक सामग्री किसी भी प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है या नहीं, जांच एजेंसी की तरह कार्य नहीं कर सकता है और न ही यह इस दौरान अपीलीय अदालत की शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। इस मामले में अदालत का मानना था की, उच्च न्यायालय को एफआईआर की सामग्री और प्रथम दृष्टया सामग्री, यदि कोई हो, को बिना किसी प्रमाण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए जांच करने की आवश्यकता थी।
हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह व्यवस्था दी है कि चार्जशीट दायर होने के बाद भी आरोपी एफआईआर रद्द करवाने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत उच्च अदालत में याचिका दे सकता है।
धारा 482 और उच्च न्यायालय की न्याय के प्रति जिम्मेदारियां
धारा 482 में, अपने वर्तमान स्वरूप में बदलते समय और जरूरतों के साथ कई बदलाव देखे हैं और इन दिशानिर्देशों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने कई निर्णयों में बताया गया है। धारा 482 राज्य के हाईकोर्ट को यह अधिकार देने में सक्षम रही है कि वह न्यायहित में किसी भी मामले पर सुनवाई कर सकता है। इसमें ऐसे मामले भी शामिल हैं, जिनसे किसी अदालत के अधिकार को चुनौती दी गई हो। कोर्ट निचली अदालतों में चल रहे मामलों को भी खुद सुनवाई के लिए मांग सकती है।
निसंदेह, इस धारा के चलते हाईकोर्ट को काफी हद तक असीमित शक्तियां प्राप्त हुई हैं। यही नहीं, इस धारा के चलते हाईकोर्ट की न्यायिक अधिकारों की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो सकी है। जैसा कि हमने पहले भी देखा है कि इस धारा से कोर्ट को कोई नया अधिकार नहीं मिला है, बल्कि इस धारा से उच्च न्यायालय के संवैधानिक अधिकारों की ही सुरक्षा सुनिश्चित हुई है।
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