जानिए अदालत में किसी आरोपी की ज़मानत लेने वाले व्यक्ति पर क्या जिम्मेदारियां आ सकती हैं
आपराधिक विधि में ज़मानत अत्यधिक प्रचलन में आने वाला शब्द है। दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में ज़मानत से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं।
ज़मानत का अर्थ विस्तृत है, परंतु आपराधिक विधि में ज़मानत से तात्पर्य है- 'किसी अपराध में किसी व्यक्ति को न्यायालय में पेश कराने की जिम्मेदारी लेना।'
इससे सरल शब्दों में ज़मानत को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। अदालत में अभियुक्त को समय-समय पर पेश कराने एवं जब भी न्यायालय अभियुक्त को न्यायालय में प्रस्तुत होने के लिए आदेश करें, तब उसके प्रस्तुत होने की गारंटी लेने वाले व्यक्ति को जमानतदार अर्थात प्रतिभू (Surety) कहा जाता है।
आपराधिक विधि में किसी अपराध में किसी अभियुक्त की जमानत लेने पर कुछ दायित्व ज़मानतदार व्यक्ति पर भी होते हैं।
यह लेख विधि के छात्रों के साथ आम साधारण व्यक्ति के लिए भी सार्थक जानकारी है तथा उन्हें भी इस पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि जीवन में कभी ना कभी एक साधारण व्यक्ति अपने मित्र या रिश्तेदार की जमानत ले ऐसा समय भी आ ही जाता है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436, 437, 438 और धारा 439 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा बंदी व्यक्ति को ज़मानत पर छोड़े जाने के प्रावधान है।
ज़मानत पुलिस अधिकारियों द्वारा भी दी जाती है। जो ज़मानती अपराध जो होते हैं, उनमें पुलिस अधिकारियों द्वारा भी जमानत दी जाती है परंतु गैर ज़मानतीय अपराध की दशा में न्यायालय अभियुक्त को ज़मानत देता है। न्यायालय द्वारा ज़मानत दिए जाते समय व्यक्तिगत मुचलका जो आरोपी स्वयं देता है या फिर ज़मानतदार की ओर से कोई बंधपत्र दिया जाता है।
प्रतिभू (Surety)
प्रतिभू का अर्थ है ज़मानतदार अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अभियुक्त के न्यायालय में पेश होने की जिम्मेदारी ले रहा है। जब कोई व्यक्ति इस तरह का दायित्व लेता है तो न्यायालय उससे किसी एक निश्चित धनराशि का बंधपत्र न्यायालय मांगता है।
प्रतिभू दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 441(ए) के अंतर्गत यह घोषणा करता है की वह अभियुक्त को जब भी आवश्यक हो या न्यायालय द्वारा बुलाया जाए, तब न्यायालय में पेश करेगा। ऐसी घोषणा के अंतर्गत प्रतिभू का दायित्व होता है की वह अभियुक्त को लाकर अदालत में पेश करे।
न्यायालय द्वारा निश्चित की गई एक धनराशि का बंधपत्र प्रतिभू द्वारा प्रस्तुत कर दिया जाता है।
बंधपत्र के ज़ब्त कर लिए जाने के परिणाम
इस मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 446 सबसे महत्वपूर्ण धारा है, जो यह उल्लेख करती है कि ज़मानतदार के दायित्वों से क्या परिणाम होते हैं। धारा 446 के अंतर्गत यदि बंधपत्र को ज़ब्त कर लिया जाता है तो ऐसे बंधपत्र में जितनी धनराशि का उल्लेख होता है, इतनी धनराशि की वसूली के लिए न्यायालय को ऐसा अधिकार मिल जाता है जैसा अधिकार जुर्माना वसूल करने के लिए होता है।
समाधानप्रद रूप से यह साबित हो जाता है कि बंधपत्र ज़ब्त हो चुका है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय बंधपत्र की जो राशि है उसकी वसूली के एक नवीन वाद की रचना करती है।
यदि ज़मानतदार द्वारा जितनी धनराशि का बंधपत्र अपने ज़मानत पत्र में दिया था, उसे शास्ति के रूप में जमा नहीं करता है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय द्वारा 6 माह तक का कारावास जमानतदार को दिया जा सकता है।
न्यायालय किन्हीं विशेष कारणों से बंधपत्र की राशि को कम कर सकता है या फिर उसको आधा कर सकता है, परंतु ऐसे कारणों का स्पष्ट वर्णन किया जाना होगा।
ज़मानतदार की मृत्यु हो जाने पर
किसी प्रकरण में कोई व्यक्ति किसी अभियुक्त की ज़मानत लेता है और ज़मानतपत्र में एक निश्चित धनराशि का उल्लेख करता है, जिसे बंधपत्र के रूप में न्यायालय को सौंपता है और ज़मानतदार की मृत्यु हो जाती है, ऐसी स्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 446 उपधारा (4) के अंतर्गत में जिस संपदा का उल्लेख किया गया है जैसे कोई रजिस्ट्री या कोई फिक्स डिपॉज़िट इत्यादि हो तो वह उन्मोचित हो जाती है और किसी भी संपदा पर कोई दायित्व नहीं रह जाता है।
ज़मानतदार के जीवित होते हुए ही केवल संपदा पर दायित्व रहता है। यदि ज़मानतदार की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी परिस्थिति में ज़मानतदार की संपदा पर दायित्व नहीं होगा। अभियुक्त को न्यायालय द्वारा पुनः नया ज़मानतदार न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाने का आदेश किया जाता है यदि अभियुक्त नया ज़मानतदार नहीं पेश कर पाता है तो उसे गिरफ्तारी वारंट जारी कर कारावास भेज दिया जाता है।
मोहम्मद कुंजू तथा अन्य बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है की ज़मानत बंधपत्र के संबंध में प्रतिभूओ का महत्वपूर्ण दायित्व है कि जब भी अपेक्षा की जाए न्यायालय में अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करें।
बंधपत्र का मूल तत्व अभियुक्त की उपस्थिति कराना है। बंधपत्र के आदेश में अन्य शर्तें भी होती है यदि ज़मानत आदेश (बैल ऑर्डर) में किसी शर्त में परिवर्तन किया जाता है तो प्रतिभू उसका लाभ नहीं ले सकता, यदि प्रतिभू परिवर्तित शर्तों से सहमत नहीं होता है तो उसे संहिता की धारा 444 के अधीन अपने उन्मोचन के लिए आवेदन प्रस्तुत करना चाहिए।
ज़मानतदार और अभियुक्त के बीच कोई मित्रता या रिश्ता नाता होना आवश्यक नहीं है, केवल आवश्यक यह है कि ज़मानतदार अभियुक्त को न्यायालय में पेश करवाने की गारंटी ले रहा है और इसके बदले कोई बंधपत्र न्यायालय के समक्ष अपनी संपदा से जुड़ा हुआ रख रहा है। अब यदि वह न्यायालय में अभियुक्त को पेश नहीं कर पाता है तो न्यायालय उस बंधपत्र में उल्लेखित धनराशि को जुर्माने की तरह वसूल कर सकता है।
ज़मानतदार द्वारा अपनी उल्लेख की गयी धनराशि को न्यायालय में जमा कर दिया जाता है तो भार मुक्त हो जाता है तथा न्यायालय उस अपराध के लिए ज़मानतदार को दोषी नहीं ठहरा सकती तथा यह कदापि नहीं होता है कि जिस अपराध में अभियुक्त को अभियोजित किया गया था, उसका दंड ज़मानतदार को भोगना पड़े। ज़मानतदार केवल उस धनराशि तक ही दायित्व रखता है, जिसका उल्लेख उसने अपने बंधपत्र में किया है, जिस संपत्ति को बंधपत्र में उल्लेखित करता है उस संपत्ति को अपनी स्वतंत्रता से व्ययन कर पाने में असफल हो जाता है।
ज़मानत वापस लेना
कोई भी ज़मानतदार यदि किसी व्यक्ति की ज़मानत लेता है और वह ज़मानत पर छोड़ दिया जाता है, परंतु बाद में उस व्यक्ति के लिए दी ज़मानत वापस लेना चाहता है या फिर उसे इस बात का विश्वास नहीं रहा उसके कहने पर या उसके लाने पर अभियुक्त व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित होगा।
ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 444 के अंतर्गत एक आवेदन संबंधित न्यायालय में ज़मानतदार द्वारा प्रस्तुत करना होगा तथा ज़मानत प्रभाव से मुक्त हो जाती है। किसी भी समय मजिस्ट्रेट से ऐसा आवेदन किया जा सकता है।
जब ज़मानत वापस ले ली जाती है तो अभियुक्त को कोई अन्य ज़मानतदार प्रस्तुत करना होता है। प्रतिभू द्वारा बंधपत्र खारिज किए जाने हेतु आवेदन प्रस्तुत किए जाते ही मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अभियुक्त की गिरफ्तारी का वारंट जारी करें।
ज़मानत कौन ले सकता है
कोई भी स्वास्थ्यचित्त और वयस्क व्यक्ति ज़मानत ले सकता है। न्यायालय जितनी धनराशि बंधपत्र में उल्लेख करती है। इतनी धनराशि की कोई संपदा ज़मानतदार को न्यायालय ने बताना होती है तथा यह सिद्ध करना होता है कि वह इतनी हैसियत रखता है कि ज़मानत में बंधपत्र में निश्चित की गई धनराशि यदि जब्त की जाए तो वह न्यायालय में इतनी राशि डिपॉजिट कर सकता है।
इसके लिए ज़मानतदार को किसी संपत्ति का मालिक होना आवश्यक होता है। जब तक मामला न्यायालय में चलता है, जब तक ज़मानत प्रभावशाली रहती है, तब तक उस संपत्ति को स्वतंत्रता पूर्वक उसका मालिक व्ययन नहीं कर पाता है। जैसे यदि किसी भूखंड कि कोई रजिस्ट्री न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो जिस समय तक ज़मानत प्रभावशाली रहती है उस समय तक उस भूखंड को किसी अन्य व्यक्ति को नामांतरण नहीं किया जा सकता। जिस समय ज़मानत प्रभाव मुक्त हो जाती है, केवल उसी समय भूखंड को बेचा जा सकेगा या उसका नामांतरण किया जा सकेगा।
न्यायालय साधारण तौर पर जमीन की पावती या बैंक का 50% फिक्स डिपॉज़िट तथा मकान की कोई रजिस्ट्री या भूखंड की कोई रजिस्ट्री इत्यादि को ही ज़मानत के तौर पर हैसियत मानता है तथा स्वीकार करता है।