राजस्थान न्यायालय शुल्क मूल्यांकन अधिनियम, 1961 की धारा 38– डिक्री अथवा अन्य दस्तावेज को रद्द करने के लिए वादों में कोर्ट फीस की गणना

Update: 2025-04-23 13:19 GMT
राजस्थान न्यायालय शुल्क मूल्यांकन अधिनियम, 1961 की धारा 38– डिक्री अथवा अन्य दस्तावेज को रद्द करने के लिए वादों में कोर्ट फीस की गणना

संपत्ति के अधिकारों और आर्थिक विवादों में अक्सर कुछ ऐसे दस्तावेज या डिक्री सामने आते हैं जिनसे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों, संपत्ति के स्वामित्व, दावे या हक को नुकसान पहुंचता है। ऐसे मामलों में व्यक्ति अदालत की शरण में जाकर उस डिक्री या दस्तावेज को रद्द करने की मांग करता है। Rajasthan Court Fees and Suits Valuation Act, 1961 की धारा 38 इन्हीं वादों में देय न्याय शुल्क (Court Fee) की गणना की विधि को निर्धारित करती है।

धारा 38 विशेष रूप से उन मामलों को कवर करती है जिनमें वादी (Plaintiff) किसी डिक्री या ऐसे दस्तावेज को रद्द करवाना चाहता है जो या तो धनराशि से संबंधित है या किसी संपत्ति—चाहे वह चल संपत्ति हो या अचल—से संबंधित अधिकार, स्वामित्व, सीमाएं, हस्तांतरण, या समापन से संबंधित हो। इस लेख में हम इस धारा के सभी उपबंधों को सरल हिंदी में समझेंगे और उदाहरणों के माध्यम से प्रत्येक बिंदु को विस्तार से स्पष्ट करेंगे।

धारा 38(1): डिक्री या अन्य दस्तावेज को रद्द करने की मांग वाले वादों में न्याय शुल्क की गणना

इस उपधारा के अनुसार, जब कोई वादी अदालत में इस उद्देश्य से वाद दायर करता है कि किसी डिक्री या अन्य दस्तावेज को रद्द किया जाए, और वह डिक्री या दस्तावेज किसी धनराशि या ऐसी संपत्ति से जुड़ा हो जिसकी आर्थिक कीमत हो, या वह दस्तावेज वर्तमान या भविष्य में किसी धन, संपत्ति (चल या अचल) में अधिकार, स्वामित्व, हक या सीमाएं उत्पन्न करने, घोषित करने, सौंपने, सीमित करने या समाप्त करने का कार्य करता हो, तो उस वाद में देय न्याय शुल्क वाद के विषय-वस्तु के मूल्य के अनुसार निर्धारित किया जाएगा।

इसका अर्थ यह हुआ कि चाहे वह दस्तावेज कितना ही पुराना क्यों न हो, अगर वह अभी भी लागू है और उससे वादी के अधिकार प्रभावित हो रहे हैं, तो उसे रद्द कराने के लिए वादी को Court Fee उसी मूल्य के अनुसार देनी होगी, जिससे वह दस्तावेज संबंधित है।

अब हम धारा 38(1) के दोनों उपखंडों को विस्तार से समझते हैं:

धारा 38(1)(a): यदि सम्पूर्ण डिक्री या दस्तावेज को रद्द किया जाना हो

यदि वादी पूरी डिक्री या दस्तावेज को रद्द करवाना चाहता है, तो न्याय शुल्क उस सम्पूर्ण राशि या संपत्ति के मूल्य के अनुसार लगेगा जिसके लिए वह डिक्री पारित हुई थी या जिस पर वह दस्तावेज बनाया गया था।

उदाहरण: मान लीजिए कि किसी व्यक्ति के नाम ₹10 लाख की धनराशि की डिक्री पारित हुई है, और अब वादी यह कहता है कि यह डिक्री झूठी थी, धोखाधड़ी से प्राप्त की गई थी और इसे रद्द किया जाना चाहिए। तो न्याय शुल्क ₹10 लाख के आधार पर तय किया जाएगा।

इसी प्रकार, यदि कोई रजिस्ट्रीड बिक्री पत्र (Registered Sale Deed) किसी अचल संपत्ति, जैसे कि ₹25 लाख के प्लॉट से संबंधित है, और वादी यह कहता है कि वह बिक्री धोखे से करवाई गई थी और वह रद्द होनी चाहिए, तो भी Court Fee ₹25 लाख की Market Value के अनुसार लगेगी।

धारा 38(1)(b): यदि केवल आंशिक डिक्री या दस्तावेज को रद्द करना हो

अगर वादी केवल डिक्री या दस्तावेज के किसी विशेष हिस्से को रद्द करना चाहता है, तो न्याय शुल्क केवल उस हिस्से की राशि या संपत्ति के मूल्य के अनुसार ही लगेगा।

उदाहरण: मान लीजिए किसी डिक्री के माध्यम से ₹15 लाख की संपत्ति का बंटवारा तीन भाइयों में हुआ था, लेकिन चौथा भाई यह कहता है कि उस डिक्री में उसका हिस्सा गलती से शामिल नहीं हुआ, और वह केवल अपने 1/4 हिस्से की वैधता सिद्ध कर रद्द करना चाहता है, तो Court Fee केवल ₹3.75 लाख की Market Value के अनुसार ही ली जाएगी।

इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि Plaintiff को केवल उसी हिस्से के लिए न्याय शुल्क देना पड़े जिसके लिए वह Relief चाहता है, न कि पूरे दस्तावेज के लिए।

धारा 38(2): जब दायित्व विभाजित नहीं किया जा सकता हो और वादी केवल अपनी संपत्ति के लिए राहत चाहता हो

यह उपधारा उन मामलों में लागू होती है जहाँ डिक्री या दस्तावेज ऐसा होता है जिसमें संपूर्ण दायित्व (Liability) विभाज्य नहीं है, लेकिन वादी केवल किसी विशेष संपत्ति या संपत्ति में अपने हिस्से के लिए राहत चाहता है।

ऐसे मामलों में Court Fee दो संभावनाओं में से जो कम होगी, उसके आधार पर निर्धारित की जाएगी—

1. Plaintiff की संपत्ति या हिस्से की मूल्य।

2. पूरी डिक्री की राशि।

उदाहरण: मान लीजिए एक डिक्री ₹20 लाख की है, जिसमें तीन भाइयों की संपत्ति जब्त करने का आदेश है। चौथा भाई यह कहता है कि उसमें उसकी संपत्ति शामिल नहीं थी और वह केवल अपने ₹4 लाख की संपत्ति के लिए रिलीफ चाहता है। अब क्योंकि पूरी डिक्री ₹20 लाख की है और उसकी संपत्ति ₹4 लाख की है, तो Court Fee ₹4 लाख के आधार पर ली जाएगी क्योंकि यह कम है।

इस प्रावधान से यह सुनिश्चित किया जाता है कि Plaintiff पर अनावश्यक आर्थिक बोझ न डाला जाए और उसे केवल अपने हिस्से या दावे के लिए ही न्याय शुल्क अदा करना पड़े।

स्पष्टीकरण (Explanation): पुरस्कार (Award) को रद्द करने की मांग वाला वाद, डिक्री को रद्द करने जैसा माना जाएगा

धारा 38 के अंत में एक स्पष्ट स्पष्टीकरण दिया गया है कि “कोई पुरस्कार (Award) को निरस्त करने हेतु दायर किया गया वाद इस धारा के अंतर्गत डिक्री को निरस्त करने के समान माना जाएगा।”

इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई मध्यस्थ (Arbitrator) द्वारा पारित Award को रद्द करवाना हो, तो वह वाद भी धारा 38 के अंतर्गत ही Court Fee निर्धारण हेतु माना जाएगा। इसका उद्देश्य यह है कि न्यायिक अथवा अर्ध-न्यायिक निर्णयों को समान स्तर पर माना जाए, क्योंकि दोनों ही वादी के अधिकारों को प्रभावित करते हैं।

उदाहरण: यदि किसी मध्यस्थता Award द्वारा ₹12 लाख का भुगतान एक पक्ष को करने का आदेश दिया गया हो, और दूसरा पक्ष यह Award रद्द करवाना चाहता है, तो Court Fee ₹12 लाख के मूल्य के अनुसार ही लगेगी, ठीक उसी प्रकार जैसे डिक्री को रद्द करवाने पर लगती है।

धारा 38 वादियों को यह स्पष्ट रूप से निर्देशित करती है कि यदि वे किसी डिक्री या दस्तावेज को रद्द करवाना चाहते हैं जो धन या संपत्ति से संबंधित है, तो उन्हें न्याय शुल्क उस संपत्ति के मूल्य के अनुसार अदा करना होगा। यदि दस्तावेज का केवल एक भाग रद्द करना हो, तो उसी भाग के मूल्य के आधार पर शुल्क लगेगा। और यदि संपूर्ण दस्तावेज का दायित्व विभाज्य नहीं हो, तो Plaintiff की संपत्ति या पूरी डिक्री में से जो भी कम हो, उसके अनुसार शुल्क लिया जाएगा।

धारा 38 न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता बनाए रखने का कार्य करती है और यह सुनिश्चित करती है कि दस्तावेजों या डिक्री को रद्द करवाने की मांग तभी की जाए जब उसका वास्तव में कोई असर हो और Plaintiff उस पर उचित शुल्क अदा करने को तैयार हो।

यह प्रावधान केवल वादी के लिए ही नहीं बल्कि न्यायालय के लिए भी सहायक है, क्योंकि इससे यह निर्धारित करने में सहायता मिलती है कि विवाद का वास्तविक मूल्य कितना है और कितनी गंभीरता से उस वाद को लिया जाना चाहिए।

इस धारा का व्यावहारिक महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि संपत्ति विवाद, बेईमानी से बने दस्तावेज, या झूठी डिक्री आज भी बड़ी संख्या में मुकदमों का आधार हैं। ऐसे में यह धारा कोर्ट फीस की पारदर्शी गणना का एक मजबूत ढांचा प्रस्तुत करती है।

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