राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 9 और 10 के अंतर्गत अधीनस्थ राजस्व न्यायालयों पर सामान्य पर्यवेक्षण और बोर्ड का क्षेत्राधिकार किस प्रकार प्रयोग किया जाता है?

Update: 2025-04-22 13:02 GMT
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 9 और 10 के अंतर्गत अधीनस्थ राजस्व न्यायालयों पर सामान्य पर्यवेक्षण और बोर्ड का क्षेत्राधिकार किस प्रकार प्रयोग किया जाता है?

राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 के प्रारंभिक प्रावधानों में राज्य में राजस्व न्यायिक प्रणाली की नींव रखी गई है। अधिनियम की धारा 4 से लेकर धारा 8 तक, राजस्व बोर्ड की स्थापना, उसकी संरचना, मुख्यालय, अधिकार और कर्तव्यों के बारे में विस्तार से बताया गया है। धारा 4 में बोर्ड के गठन की बात की गई है, धारा 5 में सदस्यों की नियुक्ति और कार्यकाल का उल्लेख है, धारा 6 में मुख्यालय अजमेर बताया गया है, जबकि धारा 7 में मंत्रीगणीय अधिकारियों की नियुक्ति और धारा 8 में बोर्ड की शक्तियों को बताया गया है।

अब हम धारा 9 और 10 को विस्तार से समझेंगे, जो राजस्व बोर्ड की अधीनस्थ न्यायालयों पर निगरानी और बोर्ड की न्यायिक शक्तियों के प्रयोग से संबंधित हैं। ये धाराएँ बोर्ड की संवैधानिक स्थिति को और अधिक मजबूत करती हैं।

धारा 9 – अधीनस्थ राजस्व न्यायालयों का सामान्य पर्यवेक्षण

धारा 9 इस बात को सुनिश्चित करती है कि राज्य में कार्यरत सभी राजस्व न्यायालय और सभी राजस्व अधिकारी, राजस्व बोर्ड के अधीन हों। अर्थात, बोर्ड इन सभी पर सामान्य नियंत्रण और पर्यवेक्षण (General Superintendence and Control) रखता है।

यह प्रावधान इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य के विभिन्न जिलों और तहसीलों में स्थित अलग-अलग राजस्व न्यायालय अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य तो करते हैं, लेकिन उनके कार्यों पर एक उच्च स्तर की निगरानी बोर्ड के माध्यम से होती है। इससे न्यायिक प्रणाली में एकरूपता और अनुशासन सुनिश्चित होता है।

उदाहरण के लिए, यदि किसी जिले में किसी उपखंड अधिकारी द्वारा भूमि बंटवारे में नियमों का उल्लंघन करते हुए निर्णय दिया गया है, तो उस निर्णय की जांच और सुधार की व्यवस्था राजस्व बोर्ड के माध्यम से की जा सकती है।

ध्यान देने योग्य है कि यह नियंत्रण “सामान्य” है, अर्थात यह प्रतिदिन की कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं करता, परंतु जब कोई गंभीर अनियमितता या अपवादजनक स्थिति उत्पन्न होती है, तब बोर्ड इसमें हस्तक्षेप करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि अधीनस्थ अधिकारी और न्यायालय विधि के अनुसार कार्य करें और कोई भी पक्ष न्याय से वंचित न रहे।

धारा 10 – बोर्ड का क्षेत्राधिकार किस प्रकार प्रयोग किया जाता है

राजस्व बोर्ड की स्थापना का मुख्य उद्देश्य राजस्व मामलों की अपील, पुनर्विचार और समीक्षा को सुनना और अंतिम निर्णय देना है। लेकिन बोर्ड के कार्य करने की प्रक्रिया और उसके अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कैसे होगा, इस बात को स्पष्ट करने के लिए धारा 10 बनाई गई है।

इस धारा का पहला उपखंड यह बताता है कि जब तक कोई अन्य व्यवस्था अधिनियम के अंतर्गत या किसी अन्य लागू कानून के अंतर्गत नहीं की गई हो, तब तक बोर्ड का क्षेत्राधिकार निम्नलिखित दो तरीकों से प्रयोग किया जा सकता है:

पहला तरीका यह है कि बोर्ड का कोई सदस्य, चाहे वह अध्यक्ष हो या कोई अन्य सदस्य, अकेले बैठकर (Sitting Singly) मामलों की सुनवाई कर सकता है। इसका उपयोग तब किया जाता है जब मामला अपेक्षाकृत कम जटिल हो या कानूनी दृष्टि से कोई विशेष विवाद न हो। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को भूमि के किराए से जुड़ी किसी छोटी अपील की सुनवाई करनी है, तो एकल सदस्य इस पर निर्णय दे सकता है।

दूसरा तरीका यह है कि बोर्ड की एक पीठ (Bench), जिसमें दो या अधिक सदस्य हों, मामलों की सुनवाई करे। यह व्यवस्था अधिक गंभीर या विवादास्पद मामलों के लिए होती है, जहाँ विभिन्न कानूनी दृष्टिकोण हो सकते हैं या निर्णय का व्यापक प्रभाव हो सकता है।

अब यदि किसी पक्षकार को एकल सदस्य द्वारा दिए गए निर्णय से आपत्ति है, तो वह एक विशेष अपील (Special Appeal) एक महीने के भीतर उस पीठ के समक्ष कर सकता है जिसमें दो या अधिक सदस्य हों। लेकिन यह अपील तभी स्वीकार की जाएगी जब वह सदस्य जिसने निर्णय दिया है, यह घोषित कर दे कि यह मामला अपील के योग्य है। यदि वह सदस्य बोर्ड से अलग हो चुका है, तो कोई अन्य सदस्य भी यह घोषणा कर सकता है।

यह व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि एकल सदस्य के निर्णय के खिलाफ अपील का अधिकार रहे, लेकिन यह अधिकार विवेकपूर्ण और सीमित हो ताकि प्रणाली का दुरुपयोग न हो।

धारा 10 की दूसरी उपधारा – अध्यक्ष द्वारा कार्यों का विभाजन

धारा 10 की दूसरी उपधारा में यह व्यवस्था की गई है कि बोर्ड के अध्यक्ष को यह अधिकार होगा कि वह बोर्ड के कार्यों को बाँटे और अपने विवेक से बोर्ड के क्षेत्राधिकार का क्षेत्रीय या अन्य किसी आधार पर विभाजन कर सके।

इसका अर्थ यह है कि यदि राज्य में मामलों की संख्या बढ़ जाती है या किसी क्षेत्र में विशेष प्रकार के विवाद अधिक होने लगते हैं, तो अध्यक्ष यह तय कर सकता है कि किन सदस्यों को कौन-से मामले सुनने हैं और कौन-सा सदस्य किस क्षेत्र के मामलों को देखेगा।

उदाहरण के लिए, यदि जोधपुर और उदयपुर संभाग में भू-सीमा से संबंधित अपीलें अधिक हैं, तो अध्यक्ष यह आदेश दे सकता है कि दो सदस्यीय पीठ केवल उन क्षेत्रों की अपीलों को सुनेगी, जबकि जयपुर संभाग की अपीलें किसी अन्य सदस्य द्वारा सुनी जाएँगी।

यह व्यवस्था बोर्ड के कार्यों को व्यवस्थित रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है और इससे न्यायिक प्रक्रिया तेज और प्रभावी बनती है।

धारा 10 की तीसरी उपधारा – आदेशों की वैधानिक मान्यता

धारा 10 की तीसरी उपधारा यह स्पष्ट करती है कि उपधारा (1) और (2) के तहत जो भी आदेश पारित किए जाएँगे या कार्य किए जाएँगे, उन्हें बोर्ड का ही आदेश या कार्य माना जाएगा।

इस प्रावधान से यह सुनिश्चित होता है कि चाहे कोई आदेश अकेले सदस्य द्वारा पारित किया गया हो या दो सदस्यीय पीठ द्वारा, अथवा अध्यक्ष द्वारा क्षेत्रीय विभाजन किया गया हो – वह सब वैधानिक रूप से बोर्ड के आदेश माने जाएँगे। इससे यह भ्रम नहीं रहता कि आदेश किसके नाम से पारित हुआ है, और निर्णय की वैधता पर कोई प्रश्न नहीं उठता।

पूर्ववर्ती धाराओं से संबंध

धारा 7 और 8 में जहाँ बोर्ड के आंतरिक प्रशासन और शक्तियों की बात की गई है, वहीं धारा 9 और 10 यह सुनिश्चित करती हैं कि बोर्ड का बाहरी नियंत्रण और क्षेत्राधिकार किस प्रकार उपयोग में लाया जाए। यह प्रावधान राजस्व बोर्ड को एक प्रभावशाली न्यायिक संस्था बनाते हैं, जो न केवल अपील सुनती है, बल्कि अधीनस्थ न्यायालयों की निगरानी भी करती है और न्याय प्रक्रिया का संतुलन बनाए रखती है।

राजस्थान भूमि राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 9 और 10 से यह स्पष्ट होता है कि राजस्व बोर्ड राज्य की पूरी राजस्व न्यायिक प्रणाली का सिरमौर है। वह न केवल अपील का मंच है, बल्कि अधीनस्थ न्यायालयों का मार्गदर्शक और नियंत्रक भी है। उसकी कार्यप्रणाली में लचीलापन है जिससे वह समय और परिस्थिति के अनुसार अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है। इससे न्याय प्रक्रिया अधिक पारदर्शी, संतुलित और नागरिकों के लिए सुलभ बनती है।

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