दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम के प्रभाव को शैक्षणिक संस्थान के प्रॉस्पेक्टस में रखी गई शर्तों से खत्म नहीं किया जा सकता: केरल हाईकोर्ट
केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम (RPwD) 2016 का प्रभाव जो शारीरिक रूप से दिव्यांग व्यक्ति और उनके प्रमाणन को परिभाषित करता है, शैक्षणिक संस्थान के प्रॉस्पेक्टस में लगाई गई कुछ शर्तों से खत्म नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने कहा कि राज्य पेशेवर संस्थानों में प्रवेश के लिए एक समान प्रक्रिया अपनाने से वंचित नहीं है, जो कि यह बताकर किया जा सकता है कि राज्य मेडिकल बोर्ड प्रॉस्पेक्टस के अनुसार गठित प्रमाणन प्राधिकरण होगा। न्यायालय ने कहा कि धारा 57, RPwD Act के तहत उचित अधिसूचना की आवश्यकता होगी।
यह टिप्पणी एकल न्यायाधीश पीठ के आदेश के खिलाफ राज्य की अपील में आई, जिसमें धारा 57 RPWD Act के तहत प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा जारी दिव्यांगता प्रमाण पत्र के आधार पर प्रतिवादी छात्रों की मेडिकल पाठ्यक्रमों के लिए पात्रता पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया गया था।
कानून पर एकल न्यायाधीश के दृष्टिकोण से अलग राय न रखते हुए जस्टिस टी आर रवि और जस्टिस एम बी स्नेहलता की खंडपीठ ने कहा,
"हमें इस मुद्दे पर कानून के संबंध में एकल न्यायाधीश के फैसले में जो कहा गया, उससे अलग राय लेने का कोई कारण नहीं दिखता। पहले के अधिनियम के विपरीत, (दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार) 2016 अधिनियम में विशेष रूप से शारीरिक विकलांगता वाले व्यक्तियों को प्रमाणित करने का प्रावधान है और प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा की गई किसी गलती को सुधारने के लिए अपीलीय उपाय भी उपलब्ध है। शारीरिक विकलांगता वाले व्यक्ति को नामित प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा प्रमाणन के संदर्भ में परिभाषित किया गया है। प्रॉस्पेक्टस में लगाई गई कुछ शर्तों से क़ानून के प्रभाव को खत्म नहीं किया जा सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि व्यावसायिक कॉलेजों में प्रवेश के मामले में राज्य समान प्रक्रिया अपनाने में असमर्थ है।"
पीठ ने कहा कि राज्य के लिए यह घोषित करना खुला है कि मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के संबंध में प्रमाणन प्राधिकरण राज्य मेडिकल बोर्ड होगा, जिसका गठन प्रॉस्पेक्टस के अनुसार किया जाना है। इसने देखा कि इसके लिए धारा 57 के तहत उचित अधिसूचना की आवश्यकता है।
संदर्भ के लिए धारा 57 में कहा गया कि उपयुक्त सरकार अपेक्षित योग्यता और अनुभव रखने वाले व्यक्तियों को प्रमाणन प्राधिकरण के रूप में नामित करेगी, जो दिव्यांगता का प्रमाण पत्र जारी करने के लिए सक्षम होंगे। इसमें आगे कहा गया कि उपयुक्त सरकार उस अधिकार क्षेत्र को भी अधिसूचित करेगी, जिसके भीतर और उन नियमों और शर्तों के अधीन, प्रमाणन प्राधिकरण अपने प्रमाणन कार्यों का निष्पादन करेगा।
अपीलों का निपटारा करते हुए न्यायालय ने कहा,
"ऐसी प्रक्रिया एकरूपता भी सुनिश्चित करेगी, क्योंकि एक ही बोर्ड सभी उम्मीदवारों के मामले पर विचार करेगा, जो आरक्षण का लाभ मांग रहे हैं। कई प्रमाणन अधिकारियों द्वारा निर्णयों की व्यक्तिपरकता के कारण होने वाली गड़बड़ी से भी बचा जा सकेगा।”
मामले की पृष्ठभूमि
खंडपीठ के समक्ष प्रतिवादी वे स्टूडेंट हैं, जिनके पक्ष में प्रमाणन अधिकारियों ने मेडिकल एवं संबद्ध पाठ्यक्रमों में एडमिशन के लिए दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत दिव्यांगता प्रमाण पत्र जारी किए।
मेडिकल एवं संबद्ध पाठ्यक्रमों के लिए एडमिशन विवरणिका में कहा गया कि अपलोड किए जाने वाले आवेदनों में दिव्यांगता प्रमाण पत्र संलग्न करने की आवश्यकता नहीं है। केवल आवेदन में यह संकेत देना आवश्यक है कि लाभ का दावा किया जा रहा है। इसमें आगे कहा गया कि फरवरी 2020 के सरकारी आदेश द्वारा गठित राज्य मेडिकल बोर्ड उन उम्मीदवारों की शारीरिक दिव्यांगता की डिग्री की जांच करेगा, जिन्हें इस श्रेणी में अनंतिम रूप से शामिल किया गया।
बोर्ड ने माना कि अभ्यर्थी आरक्षण का दावा करने के हकदार नहीं हैं, क्योंकि उनकी शारीरिक दिव्यांगता चालीस प्रतिशत से कम है। इसके खिलाफ अभ्यर्थियों ने रिट याचिकाओं में एकल न्यायाधीश पीठ का दरवाजा खटखटाया जिसमें दावा किया गया कि जब 2016 अधिनियम में शारीरिक दिव्यांगता वाले व्यक्ति को प्रमाणित करने की विधि निर्धारित की गई तो मूल्यांकन की अतिरिक्त वैधानिक विधि-राज्य बोर्ड, प्रॉस्पेक्टस द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती है।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राज्य चिकित्सा बोर्ड द्वारा लिए गए निर्णय के खिलाफ कोई अपील प्रावधान नहीं है।
अभ्यर्थियों ने तर्क दिया कि बोर्ड ने प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा उन्हें पहले से जारी दिव्यांगता प्रमाण पत्र की समीक्षा की थी। इस अभ्यास को करते समय बोर्ड द्वारा इस बात का कोई कारण नहीं दिया गया कि उसने 2016 अधिनियम के तहत नियुक्त प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा अभ्यर्थियों को दिए गए प्रमाणन से अलग क्यों किया।
एकल न्यायाधीश पीठ ने माना कि स्टूडेंट सफल होने के हकदार थे और अधिनियम की धारा 57 के तहत प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा जारी विकलांगता प्रमाण पत्रों के आधार पर उनकी पात्रता पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया। इसके अनुसरण में राज्य ने खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की।
निष्कर्ष
राज्य ने खंडपीठ के समक्ष तर्क दिया था कि एकल न्यायाधीश की पीठ का निर्णय अश्वथी पी. (नाबालिग) बनाम केरल राज्य और अन्य (2011) में हाईकोर्ट के निर्णय द्वारा निर्धारित कानून के विपरीत है।
राज्य ने आगे प्रस्तुत किया कि निर्णय ने वस्तुतः किसी उम्मीदवार की शारीरिक दिव्यांगता की डिग्री के आकलन के लिए समान प्रक्रिया रखने की कथन सरकार की शक्ति को छीन लिया है और राष्ट्रीय मेडिकल आयोग द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार यदि कोई गलती है तो प्रमाण पत्र को सही करने का कोई तरीका नहीं होगा।
हाईकोर्ट ने कहा कि एकल न्यायाधीश की पीठ ने अश्वथी पी में निर्णय पर विचार किया और माना था कि यह बाध्यकारी नहीं होगा, क्योंकि 2016 अधिनियम द्वारा काफी बदलाव लाया गया है।
इसके बाद इसने अपीलों का निपटारा किया।
केस टाइटल- केरल राज्य बनाम अद्वैत एस और संबंधित मामले