जज द्वारा संक्षिप्त अवमानना ​​कार्यवाही शुरू न करना न्यायालय को स्वतःसंज्ञान कार्यवाही शुरू करने से नहीं रोकता: केरल हाईकोर्ट

Update: 2024-06-06 06:30 GMT

केरल हाईकोर्ट ने माना कि यदि कोई जज न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम की धारा 14 के तहत निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार अवमानना ​​कार्यवाही शुरू नहीं करता है तो यह हाईकोर्ट को अधिनियम की धारा 15 के तहत स्वप्रेरणा अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करने से नहीं रोकता।

जस्टिस अनिल के. नरेन्द्रन और जस्टिस जी. गिरीश की खंडपीठ ने एडवोकेट यशवंत शेनॉय द्वारा उनके खिलाफ शुरू की गई अवमानना ​​कार्यवाही के खिलाफ दी गई चुनौती पर निर्णय लेते हुए यह टिप्पणी की।

धारा 14 हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की उपस्थिति या सुनवाई में की गई आपराधिक अवमानना ​​से संबंधित है। न्यायालय व्यक्ति को तुरंत हिरासत में ले सकता है। उसके खिलाफ अवमानना ​​मामले को आगे बढ़ा सकता है। धारा 15 धारा 14 में उल्लिखित अवमानना ​​के अलावा अन्य आपराधिक अवमानना ​​से संबंधित है।

इस मामले में शेनॉय जस्टिस मैरी जोसेफ के समक्ष मामले में पेश हुए थे। उन्होंने कथित तौर पर न्यायालय पर चिल्लाया और न्यायालय को परेशान किया। उन्होंने न्यायालय को अपना पक्ष दर्ज करने के लिए बाध्य किया।

इसके बाद उन्होंने जज पर चिल्लाते हुए कहा,

"मैं देखूंगा कि आपकी लेडीशिप को सीट से हटा दिया जाए।"

अवमानना ​​की कार्यवाही संबंधित जज द्वारा चीफ जस्टिस को लिखे गए पत्र द्वारा शुरू की गई। शेनॉय ने तर्क दिया कि उनके खिलाफ अवमानना ​​की कार्यवाही केवल अधिनियम की धारा 14 के तहत शुरू की जा सकती है, न कि अधिनियम की धारा 15 के तहत, क्योंकि अवमानना ​​का आरोप न्यायालय कक्ष के अंदर लगाया गया।

न्यायालय ने कहा कि जब अवमानना ​​न्यायालय के सामने होती है तो धारा 14 के तहत प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है। हालांकि, यदि किसी कारण से उक्त प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है तो हाईकोर्ट के लिए अधिनियम की धारा 15 के तहत स्वप्रेरणा से संज्ञान लेना और अवमाननाकर्ता के खिलाफ कार्यवाही करना हमेशा खुला रहता है।

प्रतिवादी ने आगे तर्क दिया कि रजिस्ट्रार जनरल ने राज्य बनाम राजेश्वरी प्रसाद (1996) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का संदर्भ देते हुए एक नोट बनाया।

उस निर्णय में न्यायालय ने कहा कि किसी जज पर 'अनुचित उद्देश्य' आरोपित करना निष्पक्ष और सद्भावपूर्ण आलोचना की सीमाओं को पार करता है, जिससे न्यायालय की प्रतिष्ठा प्रभावित होती है और यह न्यायालय की अवमानना ​​के बराबर है। पत्र में जज के पास कोई मामला नहीं था कि शेनॉय ने 'अनुचित उद्देश्य' के आरोप लगाए हैं। शेनॉय ने तर्क दिया कि चीफ जस्टिस ने उनके खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करने के लिए रजिस्ट्रार के इस नोट पर भरोसा किया होगा।

न्यायालय ने कहा कि पत्र की विषय-वस्तु ही प्रथम दृष्टया अवमानना ​​का मामला बनाती है। इसलिए यह माना जा सकता है कि चीफ जस्टिस ने शेनॉय के खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करने के लिए केवल पत्र पर विचार किया।

न्यायालय ने कहा कि 'आपराधिक अवमानना ​​का स्वप्रेरणा से संज्ञान' किसी व्यक्तिगत जज की गरिमा और सम्मान को सही ठहराने के लिए नहीं है, बल्कि कानून और न्याय की महिमा को बनाए रखने के लिए है। यदि न्यायालय संज्ञान नहीं लेता है तो यह ऐसे व्यक्ति को प्राथमिकता देना होगा जो कानून की सर्वोच्चता का सम्मान नहीं करता।

न्यायालय ने आगे कहा,

“न्यायालय में लोगों का जो विश्वास है, उसे किसी भी तरह से किसी भी व्यक्ति के अवज्ञाकारी व्यवहार से धूमिल, कम या खत्म नहीं होने दिया जा सकता। संस्था पर हमले से खुद को बचाने का एकमात्र हथियार न्यायिक भंडार के शस्त्रागार में बचा हुआ न्यायालय की अवमानना ​​का लंबा हाथ है, जो जरूरत पड़ने पर किसी भी गर्दन तक पहुंच सकता है, चाहे वह कितनी भी ऊंची या दूर क्यों न हो।”

न्यायालय ने कहा कि अपनाई गई प्रक्रिया के लिए शेनॉय की अन्य चुनौतियों पर बाद में निर्णय लिया जाएगा। ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिन पर इस स्तर पर पूरी तरह से विचार किया जा सके और निर्णय लिया जा सके।

केस टाइटल: स्वप्रेरणा बनाम यशवंत शेनॉय

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