आरोप-पत्र जारी न होने तक लंबित अनुशासनात्मक कार्यवाही के आधार पर निलंबन तब तक नहीं बढ़ाया जा सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2025-09-22 05:06 GMT

जस्टिस सी. हरि शंकर और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की दिल्ली हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित होने के आधार पर निलंबन को वैध रूप से तब तक नहीं बढ़ाया जा सकता, जब तक कि आरोप-पत्र जारी न कर दिया गया हो। इस गलत आधार पर किया गया विस्तार अमान्य है, जिससे कर्मचारी को बहाली का अधिकार मिल जाता है।

पृष्ठभूमि तथ्य

याचिकाकर्ता को केंद्रीय सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियम, 1965 के नियम 10(1)(क) के तहत 28 फरवरी, 2025 के आदेश द्वारा निलंबित कर दिया गया था। उन्हें इस आधार पर निलंबित किया गया कि प्रोजेक्ट स्वास्तिक के तहत 80 RCC/755 BRTF में तैनाती के दौरान किए गए कदाचार के लिए उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रस्तावित थी। निलंबन शुरू में 90 दिनों के लिए था।

इसके बाद 27 मई, 2025 के आदेश द्वारा याचिकाकर्ता का निलंबन 90 दिनों की अवधि के लिए, अर्थात् 29 मई, 2025 से 26 अगस्त, 2025 तक बढ़ा दिया गया। विस्तार आदेश में उल्लिखित आधार यह है कि याचिकाकर्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित है। 22 अगस्त, 2025 को पुनः इसी प्रकार का आदेश पारित किया गया, जिसके द्वारा निलंबन को 90 दिनों के लिए और बढ़ा दिया गया। इस आदेश में यह आधार भी दर्ज किया गया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित है। साथ ही आज तक याचिकाकर्ता के विरुद्ध कोई आरोप-पत्र जारी नहीं किया गया।

निलंबन जारी रहने से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने रिट याचिका दायर की।

याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि 28 फरवरी, 2025 का निलंबन आदेश केवल इस आधार पर है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रस्तावित है। हालांकि, 27 मई, 2025 और 22 अगस्त, 2025 के बाद के विस्तार आदेशों में अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित होने का उल्लेख किया गया, जबकि वास्तव में याचिकाकर्ता के विरुद्ध आज तक कोई आरोप-पत्र जारी नहीं किया गया।

दूसरी ओर, प्रतिवादियों द्वारा यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता को 28 फ़रवरी, 2025 के आदेश द्वारा CCS (CCA) नियम, 1965 के नियम 10(1)(ए) के अनुसार निलंबित कर दिया गया, क्योंकि उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रस्तावित है। प्रतिवादियों द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि आरोप-पत्र जारी करना शीघ्र ही आवश्यक है और प्रस्ताव CVC की स्वीकृति की प्रतीक्षा में है। प्रतिवादियों ने आगे तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को इसलिए निलंबित किया गया, क्योंकि उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रस्तावित है। निलंबन का विस्तार प्रस्तावित कार्यवाही पर आधारित नहीं है, बल्कि इस तथ्य पर आधारित था कि वे लंबित हैं।

अदालत के निष्कर्ष

अदालत ने पाया कि CCS (CCA) नियमों के नियम 10(6) के अनुसार, निलंबन के प्रत्येक आदेश की समीक्षा हर 90 दिनों में अधिकतम 270 दिनों तक की जानी चाहिए। यह भी पाया गया कि याचिकाकर्ता को 28 फरवरी, 2025 को इस आधार पर निलंबित कर दिया गया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रस्तावित है। हालांकि, 27 मई, 2025 और 22 अगस्त, 2025 के बाद के विस्तार आदेशों में यह दर्ज किया गया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित है।

अदालत ने पाया कि CCS (CCA) नियमों के नियम 14(3) और 14(4) के अनुसार, अनुशासनात्मक कार्यवाही तभी शुरू होती है, जब आरोप-पत्र जारी किया जाता है। इसके अलावा, भारत संघ बनाम अनिल कुमार सरकार, कोल इंडिया लिमिटेड बनाम सरोज कुमार मिश्रा और कोल इंडिया लिमिटेड बनाम अनंत साहा मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भी भरोसा किया गया, जिनमें यह माना गया कि विभागीय कार्यवाही केवल आरोप-पत्र जारी होने पर ही शुरू की जाती है। इसलिए न्यायालय ने यह माना कि चूंकि कोई आरोप-पत्र जारी नहीं किया गया, इसलिए विस्तार आदेशों में उल्लिखित आधार तथ्यात्मक रूप से गलत है।

अदालत ने यह देखा कि जिस आधार पर 90 दिनों की दूसरी और तीसरी अवधि में निलंबन बढ़ाया गया, वह गलत है, क्योंकि उस समय याचिकाकर्ता के विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित नहीं है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि प्रतिवादी का यह तर्क कि निलंबन का विस्तार अनुशासनात्मक कार्यवाही के लंबित रहने के कारण हुआ, गलत है।

अदालत ने यह भी कहा कि किसी कार्यकारी कार्रवाई की वैधता का परीक्षण आदेश में निहित कारणों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। पुलिस आयुक्त बनाम गोरधनदास भानजी और मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त के निर्णयों पर अदालत ने भरोसा किया, जिसमें यह माना गया कि किसी वैधानिक आदेश का मूल्यांकन केवल उसके जारी होने के समय बताए गए कारणों के आधार पर ही किया जाना चाहिए और बाद में उसे नए या अतिरिक्त कारणों से मान्य नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक आदेशों की व्याख्या उनकी भाषा के आधार पर वस्तुनिष्ठ रूप से की जानी चाहिए, न कि आशय के बाद के स्पष्टीकरणों के आधार पर।

अदालत ने यह माना कि 27 मई, 2025 और 22 अगस्त, 2025 के सेवा विस्तार आदेश स्पष्ट रूप से तथ्यात्मक रूप से गलत है और उन्हें रद्द किया जाना चाहिए। परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ता सेवा में बहाल किए जाने का हकदार है। इसके अतिरिक्त, अदालत ने यह भी माना कि प्रतिवादियों को, यदि उचित समझा जाए तो निलंबन आदेश पारित करने सहित कानून के अनुसार याचिकाकर्ता के विरुद्ध कार्रवाई करने का अधिकार है।

Case Name : Manoj Kumar M. Through A.R Ashish Dubey vs Union Of India And Ors

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