कब जारी होगा गैर-जमानती वारंट और कुर्की का आदेश? झारखंड हाईकोर्ट ने किया साफ
झारखंड हाईकोर्ट ने दोहराया है कि सीआरपीसी के तहत गिरफ्तारी का गैर जमानती वांरट, प्रक्रिया और कुर्की का आदेश यांत्रिक तरीके से जारी नहीं किया जा सकता है। कोर्ट को ऐसे आदेश पारित करने से पहले पूर्व-आवश्यकताओं के संबंध में संतुष्ट होना होगा।
जस्टिस आनंद सेन की पीठ ने कहा, "आदेश में व्यक्तिपरक संतुष्टि की रिकॉर्डिंग न करना आदेश को गलत और नहीं बोलने वाला बना देता है। एक न बोलने वाला आदेश, जिसमें एक प्रक्रिया शामिल है जो एक एक दंडनीय अपराध को आकर्षित करती है, (यदि आदेश का अनुपालन नहीं किया जाता है), कानून की निगाह में जारी नहीं रह सकता है।''
ये टिप्पणियां मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लातेहार के एक फैसले को रद्द करने के लिए दायर याचिका की सुनवाई में कही गईं। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लातेहार ने अपने फैसले में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ गिरफ्तारी का गैर जमानती वारंट, प्रक्रिया और कुर्की के आदेश जारी किए थे।
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि अदालत ने गिरफ्तारी के जमानती वारंट की सर्विस रिपोर्ट प्राप्त किए बिना, उनके नाम पर गिरफ्तारी का गैर-जमानती वारंट जारी किया। उनकी दलील थी कि गिरफ्तारी के गैर-जमानती वारंट की कोई सर्विस रिपोर्ट प्राप्त किए बिना, याचिकाकर्ताओं को प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर (उद्घोषित अपराधी) घोषित करने के लिए सीआरपीसी की धारा 82 के तहत प्रक्रिया जारी की गई । सीआरपीसी की धारा 82 के तहत प्रक्रिया की सर्विस रिपोर्ट के बिना ही धारा 83 के संदर्भ में कुर्की आदेश जारी किया गया।
याचिकाकर्ताओं की दलीलों में मेरिट पाते हुए, हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया।
गिरफ्तारी का गैर जमानती वारंट जारी करना
सीआरपीसी की धारा 73 के संदर्भ में, अदालत ने कहा कि एक मजिस्ट्रेट के पास गिरफ्तारी का वारंट जारी करने का अधिकार क्षेत्र और शक्ति है, जिसे किसी (i) भागे हुए दोषी, (ii) उद्घोषित अपराधी, या (iii) किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ जो एक गैर-जमानती अपराध का आरोपी है और गिरफ्तारी से बच रहा है, के खिलाफ निर्देशित किया जा सकता है। एक व्यक्ति, जिसके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया जा सकता है, उसे उपरोक्त तीन श्रेणियों में से किसी एक से संबंधित होना ही चाहिए।
मामले में, अदालत ने पाया कि जब याचिकाकर्ता के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया गया था, तब वो न भागे हुए दोषी थे और न ही उद्घोषित अपराधी।
अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता अदालत में पेश होने में विफल रहे, इसलिए उन्हें अधिक से अधिक तीसरी श्रेणी में रखा जा सकता है, यानी, "गैर-जमानती अपराध का ऐसा आरोपी जो गिरफ्तारी से बच रहा है।"
इस पहलू पर, अदालत ने स्पष्ट किया कि केवल गैर-जमानती अपराध का आरोपी होना गिरफ्तारी का वारंट जारी करने का आधार नहीं है। "और" पर जोर देते हुए अदालत ने कहा कि अभियुक्त गिरफ्तारी से बचते हुए भी लगना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
"केवल एक गैर-जमानती अपराध का आरोपी होना, सीआरपीसी की धारा 73 के प्रावधानों के अनुसार गिरफ्तारी का वारंट जारी करने का आधार नहीं है। गैर-जमानती अपराध में वांछित आरोपी को गिरफ्तारी से बचते हुए भी लगना चाहिए।"
धारा 73 (1) में इस्तेमाल किया गया शब्द 'और' एक संयुग्मक खंड है। इस प्रकार, दोनों स्थितियों एक साथ मौजूद हाने पर अदालत को गिरफ्तारी वारंट जारी करना चाहिए। गिरफ्तारी का वारंट जारी करते समय न्यायालय को कानून की इस स्थिति विचार करना चाहिए। इसका मतलब है कि एक व्यक्ति को न केवल एक गैर-जमानती अपराध, का अभियुक्त होना चाहिए, बल्कि उसे गिरफ्तारी से बचते हुए भी पाया जाना चाहिए।"
अदालत ने कहा कि गैर-जमानती वारंट का क्रियान्वयन "स्वतंत्रता पर रोक" के बराबर है, और जब भी किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना हो तो उसे कानून के अनुसार कड़ाई से लागू किया जाना चाहिए।
रघुवंश दीवानचंद भसीन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012) 9 एससीसी 791, में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में हाईकोर्ट ने कहा,
"इस मामले में, गिरफ्तारी का गैर-जमानती वारंट जारी करने के कारण स्वतंत्रता पर रोक लग रही है। इसलिए, अदालत को गिरफ्तारी वारंट जारी करने से पहले कानून में निर्धारित शर्तों के संबंध में अपनी संतुष्टि दर्ज करनी होगी कि वो पूरी हो गई हैं, और प्रक्रिया का अनुपालन किया गया है।
कोर्ट की यह संतुष्टि खुद आदेश में परिलक्षित होनी चाहिए, और वह रिकॉर्ड से इकट्ठा किया जाए, तभी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया जा सकता है। न्यायालय को प्रथम दृष्टया संतुष्ट होना चाहिए कि गैर-जमानती अपराध का आरोपी अपनी गिरफ्तारी से भी बच रहा है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए अदालत के समक्ष सामग्री होना आवश्यक है। अदालत के समक्ष रखी गई सामग्री के आधार पर व्यक्तिपरक संतुष्टि को दर्ज किए बिना कि, अभियुक्त अपनी गिरफ्तारी से बच रहा है, गिरफ्तारी का वारंट जारी नहीं किया जा सकता है। यह संतुष्टि पुलिस पेपर/ केस डायरी से प्राप्त की जा सकती है।
अभियुक्त की मात्र अनुपस्थिति इस अनुमान का आधार नहीं हो सकती कि वह गिरफ्तारी से बच रहा है और यह गिरफ्तारी वारंट जारी करने के लिए एकमात्र आधार नहीं हो सकती है।
फरार व्यक्ति की उद्घोषणा जारी करना
सीआरपीसी की धारा 82 एक व्यक्ति को "उद्घोषित अपराधी" घोषित करने की प्रक्रिया निर्धारित करती है और यह तय करती है कि न्यायालय को संतुष्ट होने के बाद ही कि व्यक्ति फरार है या छुप रहा है, और उसे गिरफ्तार करना संभव नहीं है, उद्घोषणा जारी करनी चाहिए, जिसके तहत आरोपी को नियत तारीख को नियत समय पर, जो कि उद्घोषणा जारी करने की तारीख से 30 दिन से ज्यादा की अवधि न हो, पेश होने का आदेश देना चाहिए।
हाईकोर्ट ने माना कि धारा 82 एक दंडात्मक धारा है, जिसके जरिए अभियुक्त को आईपीसी की धारा 174 ए के तहत दंडित किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में, अदालत ने माना है कि धारा 82 के तहत लागू की गई प्रक्रिया का "कड़ाई" से पालन किया जाए।
कोर्ट ने कहा, "जब कानून की किसी भी प्रक्रिया का उल्लंघन एक दंडात्मक प्रावधान (एक उद्घोषित अपराधी के रूप में घोषणा) को आकर्षित करता है तो प्रक्रिया, जो उसे अपराधी घोषित करने का प्रयास करती है, का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए और इसमें लापरवाही नहीं बरती जानी चाहिए।"
हाई कोर्ट के समक्ष मौजूद मामले में यह नोट किया गया था कि निचली अदालत के पास कोई भी ऐसी सामग्री मौजूद नहीं थी, जिससे यह स्पष्ट होता कि अदालत के पास यह मानने के कारण थे कि याचिकाकर्ता फरार हो गया है या खुद को छुपा रहा, जिससे वारंट का क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा हो। आदेशपत्र में आरोपी के पेश होने की जगह और तारीख का भी उल्लेख किया गया था, धारा 82 (1) के तहत जिसकी रिकॉर्डिंग अनिवार्य है। मामले में ऑटो कार्स बनाम त्रिमूर्ति प्राइवेट लिमिटेड व अन्य, (2018) 15 SCC 166 के मामले पर भरोसा किया गया।
इस प्रावधान के तहत, अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि किसी व्यक्ति को धारा 82 के तहत घोषित अपराधी/फरार घोषित किया जाता है तो वह अग्रिम जमानत का हकदार नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में मध्य प्रदेश राज्य बनाम प्रदीप शर्मा, (2014) 2 SCC 171, के फैसले के संदर्भ में कोर्ट ने कहा,
"संहिता की धारा 82 के तहत पारित आदेश के कारण जब एक व्यक्ति को फरार घोषित किया जाता है, तब उसकी अग्रिम जमानत की राहत खत्म हो जाती है, इसलिए उक्त आदेश को संतुष्टि और कारणों को दर्ज किए बिना यांत्रिक तरीके से पारित नहीं किया जा सकता है और कोड में निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना भी ऐसा आदेशा पारित नहीं किया जा सकता है।"
कुर्की का आदेश जारी करना
सीआरपीसी की धारा 83 में यह प्रावधान है कि न्यायालय, जो लिखित रिकॉर्ड में दर्ज कारणों के लिए, कोड की धारा 82 के तहत उद्घोषणा जारी कर रही है, चल या अचल संपत्तियों की कुर्की का आदेश दे सकती है। हालांकि, दोनों प्रक्रियाओं, यानी कोड की धारा 82 के तहत एक उद्घोषणा और कोड की धारा 83 संदर्भ में कुर्की आदेश, के एक साथ जारी होने की स्थिति में कारणों के बयान में छूट दी गई है।
मौजूदा मामले में आदेश एक के बाद ऐ जारी किए गए थे, न कि एक साथ में। हाईकोर्ट ने कहा कि "जैसा कि संहिता की धारा 82 (3) के तहत परिकल्पित है, बयान दर्ज किए बिना कुर्की का आदेश जारी नहीं किया जा सकता है।"
इन प्रक्रियात्मक उल्लंघनों को में मद्देनजर अदालत ने कहा,
"धारा 73, 82, और 83 में परिकल्पित प्रावधानों में से किसी भी प्रावधान का निचली अदालत ने अनुपालन नहीं किया है। कानून के अनिवार्य प्रावधानों का पालन न करने के कारण यह आदेशों गलत है और इसे रद्द किया जाता है।"
हाईकोर्ट ने मामले को नया आदेश जारी करने के लिए निचली अदालत के पास वापस भेज दिया।
मामले का विवरण:
केस टाइटल: मोहम्मद रुस्तम आलम @ रुस्तम व अन्य। बनाम झारखंड राज्य
केस नं : Cr MP No 2722/2019
कोरम: जस्टिस आनंद सेन
प्रतिनिधि: एडवोकेट कुमार अमित (याचिकाकर्ता के लिए); एपीपी सरधु महतो (राज्य के लिए)
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