मीडिया में मामले का चुनिंदा खुलासा अभियुक्तों और पीड़ितों के अधिकारों को प्रभावित करता हैः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अपराध की जांच के दरमियान मीडिया में मामले का चुनिंदा खुलासा अभियुक्तों और पीड़ितों के अधिकारों को प्रभावित करता है।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने दहेज हत्या मामले में एक मृत महिला के ससुराल वालों को दी गई अग्रिम जमानत को रद्द करते हुए उक्त टिप्पणी की। कोर्ट ने मामले की आगे की जांच के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो को भी निर्देश दिया है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मृतक महिला के ससुर, देवर और भाभी को अग्रिम जमानत दे दी थी। ये सभी दहेज हत्या के मामले में आरोपी थे। उन्हें अग्रिम जमानत देने के लिए, उच्च न्यायालय ने कहा कि (a) "प्राथमिकी प्रथम दृष्टया आवेदक को फंसाने के लिए बनाई गई प्रतीत होती है"; (b) "एफआईआर में लगाए गए विभिन्न आरोपों के बीच कोई संबंध नहीं है", और (c) आरोप "प्रकृति में सामान्य हैं" और आरोपी कोई विशिष्ट भूमिका नहीं सौंपी गई है।
मामले के रिकॉर्ड का हवाला देते हुए, पीठ, जिसमें जस्टिस इंदु मल्होत्रा और इंदिरा बनर्जी भी शामिल थीं, ने कहा वर्तमान मामले में यूपी पुलिस की जांच ने 'बहुत कुछ छोड़ दिया है, जो वांछित है'। अदालत ने कहा कि मृतक महिला की मौत के कुछ दिनों के भीतर, आगरा में अखबारों में कथित सुसाइड नोट की खबर छपी थी। इस संदर्भ में पीठ ने कहा:
"इस मामले के अनुक्रम में एक परिचित प्रारूप का पालन किया गया है। कथित सुसाइड नोट को तत्काल प्रचारित किया गया। ये उदाहरण अब आम हो गए हैं। मीडिया में चुनिंदा खुलासे कुछ मामलों में अभियुक्तों के अधिकारों और कुछ अन्य मामलों में पीड़ितों के अधिकारों को प्रभावित करते हैं।
मीडिया की निष्पक्ष रिपोर्टिंग में एक उचित हिस्सेदारी है। लेकिन इस मामले में हुई घटनाओं से पता चलता है कि किस तरह से चुनिंदा जानकारी का खुलासा किया गया, जिसमें सामग्री का प्रकटीकरण भी शामिल था, जो अंततः क्रिमिनल ट्रायल के प्रमाणिक रिकॉर्ड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकता था, जिसे आपराधिक न्याय प्रशासन को पटरी से उतारने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।
जांच अधिकारी के ध्यान में जब संज्ञेय अपराध के बारे की जानकारी लाई जाती है तो जांच करना उनका कर्तव्य होता है, लेकिन दुर्भाग्य से सार्वजनिक रूप से चयनात्मक खुलासे करके, इस भूमिका से समझौता किया जा रहा है। यह अभियुक्त के लिए उचित नहीं है क्योंकि यह निर्दोषता के अनुमान को कमजोर करता है। अपराध के पीड़ितों के लिए उचित नहीं है, अगर वे अपराध से बच गए हैं, और जहां वे नहीं बचे हैं, उनके परिवारों के लिए उचित नहीं है। न तो पीड़ितों और उनके परिवारों के पास अपने जीवन और परिस्थितियों के बारे में झूठे विवरण के प्रकाशन का जवाब देने के लिए एक मंच है।"
पीठ ने आरोपियों को अग्रिम जमानत देने के उच्च न्यायालय के कारणों से भी असहमति जताई: "एफआईआर में मृतक के ससुराल वालों से चेक द्वारा धन भुगतान, मारपीट की घटनाओं, दहेज की मांग आदि में अभियुक्तों की भूमिका के बारे में बताया गया है। प्राथमिकी में टेलीफोन कॉल का उल्लेख किया गया है जो तीन अगस्त 2020 की सुबह मृतक के ससुर और एक ही दिन में दो बार मृतक द्वारा रिसीव की गई थी, जिसके कुछ घंटे बाद मृतक का शव मिला था।
इस तरह के गंभीर अपराध में अग्रिम जमानत देने से जांच बाधित होगी। इन परिस्थितियों में अपनी बेटी की मौत का शिकार हुए एक पिता द्वारा एफआईआर को मृतक और उसके परिवार के पति को गलत तरीके से फंसाने के लिए "बनाया" हुआ नहीं माना जा सकता है। "
सीबीआई को जांच स्थानांतरित करने के लिए, अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का आह्वान किया और कहा: जब अदालत को लगता है कि पुलिस द्वारा जांच उचित परिप्रेक्ष्य में नहीं हुई है और वह पूरी तरह से न्याय के लिए, जहां मामले के तथ्य यह मांग करते हैं कि जांच एक विशेष एजेंसी को सौंपी जाए, तो एक बेहतर अदालत ऐसा करने के लिए अधिकृत है।
यह वास्तव में न्यायालय का मजाक होगा कि इस मामले में अब तक की गई जांच की कमियों को नजरअंदाज करे, चाहे कार्यवाही की अवस्था चाहे जो भी हो..। अभियुक्त आगरा के धनी व्यक्ति हैं और जांच के संचालन में...न्यायालय के विश्वास को कम करता है।"
केस: डॉ नरेश कुमार मंगला बनाम अनीता अग्रवाल [Criminal Appeal Nos.872-873 of 2020]
कोरम: जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, इंदु मल्होत्रा और इंदिरा बनर्जी
वकील: अपीलार्थी के लिए सीनियर एडवोकेट शेखर नफाड़े, प्रतिवादी के लिए सीनियर एडवोकेट आर बसंत और सीनियर एडवोकेट सिद्धार्थ लूथरा, राज्य के लिए सीनियर एडवोकेट विमलेश कुमार शुक्ला