''सीआरपीसी की धारा 167 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए डिटेंशन अधिकृत करने से पहले पूरी तरह संतुष्ट हों'': आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने सभी न्यायिक मजिस्ट्रेट को निर्देश दिया
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य के सभी न्यायिक मजिस्ट्रेट को निर्देश दिया है कि सीआरपीसी की धारा 167 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए डिटेंशन को अधिकृत करने से पहले वह अपनी संतुष्टि दर्ज करें और उन्हें मामले के तथ्यों को प्राप्त करने में निष्पक्ष रूप से अपने दिमाग को लगाना चाहिए और एक तर्कयुक्त आदेश पारित करना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस ए.वी शेषा साई की खंडपीठ ने भी यह भी स्पष्ट किया है कि इस संबंध में किसी भी लापरवाही को गंभीरता से लिया जाएगा और संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट हाईकोर्ट की तरफ से की जाने वाली विभागीय कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होगा।
बेंच ने यह आदेश बोलिनेनी राजगोपाल नायडू की तरफ से दायर एक जनहित याचिका पर दिया है, जो टीवी 5 तेलुगु न्यूज से जुड़ा है और उस पर कई आपराधिक आरोप लगाए गए हैं।
कोर्ट के समक्ष मामला
याचिकाकर्ता ने अपनी जनहित याचिका में मांग की है कि एपी राज्य सहित सभी प्रतिवादियों को निर्देश दिया जाए कि वह मीडिया कर्मियों या सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं पर लापरवाह तरीके से या अपराध में कथित अपराधियों की प्रथम दृष्टया संलिप्तता की पुष्टि करने वाले ठोस सबूत के बिना केस न थोपें।
इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने यह भी निर्देश देने की मांग की है कि रिपोर्ट दर्ज होने के 24 घंटे के भीतर प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति अपलोड की जाए।
अंत में, यह प्रार्थना की गई कि राज्य पुलिस को निर्देश दिया जाए कि अब से उनके द्वारा दर्ज किए गए सभी मामलों में बिना किसी असफलता के अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) 8 एससीसी 273 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन सख्ती से किया जाए।
याचिकाकर्ता ने टीवी चैनल के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने के बाद कोर्ट में यह याचिका दायर की और तर्क दिया कि प्रेस की स्वतंत्रता आम जनता के लाभ के लिए है। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि झूठे मामले दर्ज करना या मीडिया कर्मियों को परेशान करना, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के संवैधानिक सिद्धांत के खिलाफ है।
हालांकि, याचिकाकर्ता ने टीवी चैनल के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को रद्द करने के लिए प्रार्थना नहीं की है,लेकिन जनहित याचिका में यह प्रार्थना की गई है कि प्रतिवादियों को निर्देश दिया जाए कि वे ठोस सबूत के बिना लापरवाह तरीके से केस न थोपें और पुलिस को अर्नेश कुमार मामले में जारी किए गए दिशा-निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया जाए।
न्यायालय की टिप्पणियां
शुरुआत में, न्यायालय ने जोर देकर कहा कि प्रतिवादियों को झूठे मामले न थोपने का कोई सामान्य निर्देश नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि, न्यायालय ने तर्क दिया कि आमतौर पर जांच एजेंसी को कानून के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए जाना जाता है और प्रत्येक मामले पर उसके तथ्यों के आधार पर विचार किया जाता है।
हालांकि, साथ ही, अदालत ने कहा कि यह देखना कोर्ट का कर्तव्य है कि 7 साल से कम सजा वाले छोटे-मोटे अपराधों में नागरिकों को गिरफ्तार करके उन्हें परेशान न किया जाए।
इस संबंध में, कोर्ट ने अर्नेश कुमार मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 41 (1) (बी) में निहित प्रावधानों का उल्लेख किया था और यह माना था कि एक पुलिस अधिकारी उन तथ्यों को बताने और कारणों को लिखित रूप में दर्ज के लिए बाध्य है जिनके कारण वह इस तरह की गिरफ्तारी करते समय पूर्वाेक्त प्रावधानों में से किसी एक द्वारा कवर किए गए निष्कर्ष पर पहुंचा है और वहीं कानून में पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करने की आवश्यकता होती है।
इसके अलावा, अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित (धारा 167 के तहत आगे की डिटेंशन को अधिकृत करते हुए) मजिस्ट्रेट के कर्तव्य पर प्रकाश डालते हुए, हाईकोर्ट ने अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले से ही निर्धारित कानून को दोहराया और सभी न्यायिक मजिस्ट्रेट को निर्देश दिया है कि वह सीआरपीसी की धारा 167 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए डिटेंशन को अधिकृत करने से पहले अपनी संतुष्टि दर्ज करें।
यह ध्यान दिया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने अर्नेश कुमार मामले में कहा था कि एक मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी की धारा 167 के तहत डिटेंशन को अधिकृत करने से पहले, स्वयं को इस बात के लिए संतुष्ट करना होगा कि गिरफ्तारी वैध है और कानून के अनुसार की गई है और गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के सभी संवैधानिक अधिकार संतुष्ट हो रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि,
''यदि पुलिस अधिकारी द्वारा की गई गिरफ्तारी संहिता की धारा 41 की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती है, तो मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य बनता है कि वह उसे आगे डिटेंशन/हिरासत में रखने को अधिकृत न करे और आरोपी को रिहा कर दे। दूसरे शब्दों में, जब एक आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, तो गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष गिरफ्तारी के तथ्यों, कारणों और उसके निष्कर्षों को प्रस्तुत करना आवश्यक है और इसके बाद मजिस्ट्रेट को इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि सीआरपीसी की धारा 41 के तहत गिरफ्तारी के लिए पूर्ववर्ती शर्त पूरी हो गई है और उसके बाद ही वह एक आरोपी की डिटेंशन को अधिकृत करेगा...डिटेंशन को अधिकृत करने से पहले मजिस्ट्रेट अपनी संतुष्टि दर्ज करेगा, भले ही यह संक्षेप में की जाए, लेकिन उक्त संतुष्टि उसके आदेश से प्रतिबिंबित होनी चाहिए।''
हाल ही में, तेलंगाना हाईकोर्ट ने एक आरोपी को इस बात की स्वतंत्रता दी थी कि अगर सीआरपीसी की धारा 41 ए के तहत गिरफ्तारी की प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ है तो वह पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर सकता है। कोर्ट ने याद दिलाया कि गिरफ्तारी के लिए 'अर्नेश कुमार' मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन करना पुलिस का कर्तव्य है।
जस्टिस ललिता कन्नेगंती की पीठ सिकंदराबाद में स्थित एक शिक्षा/नौकरी परामर्श फर्म के हेड द्वारा दायर अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिस पर मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया था।
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए एक व्यक्ति को गिरफ्तार करने के मामले में एक पुलिस अधिकारी को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया था। हाईकोर्ट ने अदालत की अवमानना के मामले में पुलिस अधिकारी को एक दिन के कारावास की सजा सुनाई।
जस्टिस नजमी वज़ीरी ने पुलिस अधिकारी पर 2000 रुपये का जुर्माना भी लगाया और उसे निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता को भी 15,000 रुपये की लागत का भुगतान करें क्योंकि याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा होने से पहले 11 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था।
केस का शीर्षक -बोलिनेनी राजगोपाल नायडू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य व अन्य
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