अभियोजन पक्ष को आरोपी से मोबाइल फोन सरेंडर करने के लिए कहने का अधिकार, यह अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं: केरल हाईकोर्ट
केरल हाईकोर्ट ने शनिवार को कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 79ए के तहत आरोपी को फोरेंसिक जांच के लिए मोबाइल फोन सरेंडर करने की मांग करने का अभियोजन पक्ष को पूरा अधिकार है। कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि मोबाइल फोन के सरेंडर से संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत आत्म-अभिशंसन (Self-Incrimination) के खिलाफ मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
कोर्ट ने अभिनेता दिलीप और अन्य आरोपियों को 2017 के सनसनीखेज यौन उत्पीड़न मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों को मारने की कथित आपराधिक साजिश में सोमवार को सुबह 10.15 बजे तक सीलबंद बॉक्स में छह मोबाइल फोन रजिस्ट्रार जनरल को सौंपने का निर्देश दिया ।
मामले में कुछ ऐतिहासिक फैसलों का जिक्र करने के बाद जस्टिस गोपीनाथ पी ने कहा,
"मैं कानून द्वारा बाध्य हूं... मेरा मानना है कि अभियोजन पक्ष को यह मांगने का पूरा अधिकार है कि आरोपी फोरेंसिक जांच के उद्देश्य से विचाराधीन मोबाइल फोन सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79-ए के तहत केंद्र सरकार द्वारा 'इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के परीक्षक' के रूप में पहचान की गई एक एजेंसी को सौंप दे।"
मामले में आरोपी की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता बी रमन पिल्लई ने सुझाव दिया कि मोबाइल फोन पेश करने का कोई भी निर्देश संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत गारंटीशुदा आत्म-अभिशंसन (Self-Incrimination) के खिलाफ अधिकार का उल्लंघन होगा।
हालांकि, अभियोजन के महानिदेशक टीए शाजी ने अभियोजन पक्ष की ओर से जोरदार तर्क दिया कि अनुच्छेद 20 (3) के उल्लंघन का कोई सवाल ही नहीं है क्योंकि दस्तावेज या वस्तु पेश करने का निर्देश आत्म-अभिशंसनके समान नहीं है।
उन्होंने कहा कि जांच एजेंसी के पास विचाराधीन मोबाइल फोन को पेश करने की मांग करने का पूरा अधिकार है क्योंकि जांच के मकसद से उसमें शामिल डेटा को सत्यापित किया जाना है। यह आगे प्रस्तुत किया गया कि कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में वीरेंद्र खन्ना बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य में इस मुद्दे पर विचार किया था।
तर्कों को ध्यान से देखने और इस विषय पर आगे बढ़ने और कानून को ध्यान से देखने के बाद, न्यायालय ने यह विचार किया कि उठाया गया मुद्दा अब एक ऐसा खुला प्रश्न नहीं, जो अभी तक हल नहीं किया गया है (res integra)।
इस स्टैंड की पुष्टि करने के लिए, कोर्ट ने स्टेट ऑफ बॉम्बे बनाम काठी कालू ओघड़ [AIR 1962 SC 1809] में सुप्रीम कोर्ट की 11-जजों की बेंच के फैसले का हवाला दिया, जहां यह माना गया था कि पैर/हथेली/उंगलियों के निशान या निशान देना या नमूना लेखन या पहचान के माध्यम से शरीर के अंगों को दिखाना अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं करता है।
जज ने कहा कि यह निर्णय केएस पुट्टस्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (जो निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता है) और रितेश सिन्हा बनाम यूपी राज्य (जिसमें कहा गया था कि मजिस्ट्रेट आरोपी को उसकी सहमति के बिना आवाज के नमूने देने का निर्देश दे सकता है), जैसे अन्य ऐतिहासिक निर्णयों पर निर्भर था।
न्यायालय ने यह भी देखा कि वीरेंद्र खन्ना (सुप्रा) में, कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा था
"केवल एक स्मार्टफोन या ई-मेल खाते तक पहुंच प्रदान करना गवाह होने के बराबर नहीं होगा, जो जानकारी जांच अधिकारी द्वारा स्मार्टफोन पर एक्सेस की जाती है और या ई-मेल खाते तक केवल पहुंच होती है; डेटा और / या दस्तावेजों के लिए, यह जांच अधिकारी के लिए है कि वह साक्ष्य के लागू नियमों का पालन करके इसे साबित करें और इसे अदालत में स्थापित करें।"
ओघड़ (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट और वीरेंद्र खन्ना (सुप्रा) में कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा निर्धारित कानून में बल पाते हुए, एकल पीठ ने माना कि अभियोजन पक्ष को यह मांगने का अधिकार था कि आरोपी अपने मोबाइल फोन फोरेंसिक जांच के मकसद से सौंप दे।
कोर्ट ने 2017 के सनसनीखेज यौन उत्पीड़न मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों की हत्या की कथित आपराधिक साजिश में दिलीप और अन्य की अग्रिम जमानत याचिका पर आदेश जारी किया।
केस शीर्षक: पी गोपालकृष्णन उर्फ दिलीप और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य।
सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (केरल) 45