टेलीफोन टैपिंग संविधान के अनुच्छेद 21 को तब तक बाधित करेगा, जब तक कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत अनुमति ना होः छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट
एक कांस्टेबल और एक हेड कांस्टेबल के बर्खास्तगी के आदेश को रद्द करते हुए, जो कथित रूप से अपराधी का पक्ष लेना चाहते थे और इस आशय की फोन पर बातचीत रिकॉर्ड की गई थी, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह कहा कि टेलीफोन टैपिंग संविधान के अनुच्छेद 21 को तब तक बाधित करेगा, जब तक कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत इसकी अनुमति नहीं है।
जस्टिस गौतम भादुड़ी की खंडपीठ उन याचिकाकर्ताओं की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्हें बिना किसी विभागीय जांच के सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था, वह भी बातचीत की सीडी ट्रांसक्रिप्शन (एक अपराधी के साथ) के आधार पर।
गौरतलब है कि याचिकाकर्ताओं के एक हार्डकोर अपराधी के साथ मिले होने की पृष्ठभूमि में बर्खास्तगी के आदेश पारित किए गए थे और याचिकाकर्ता ने अपराधी को सहयोग करने के लिए उसके साथ टेलीफोन पर बातचीत कर रहे थे और उक्त बातचीत को सीडी में बदल दिया गया।
मामला
यह कहा गया था कि चूंकि अनुच्छेद 311 (2) क्लॉज (बी) के तहत प्राप्त शक्ति का उपयोग करके टेलीफोन/मोबाइल वार्तालाप के आधार पर सेवाओं को समाप्त किया गया था, इसलिए, कोई विभागीय जांच नहीं की गई थी।
इसके अलावा, जब उक्त बर्खास्तगी आदेश विभागीय अपील के अधीन था, तो अपील में भी इसकी पुष्टि की गई थी। न्यायालय के समक्ष याचिकाओं में प्रतिवादी राज्य द्वारा पारित बर्खास्तगी आदेशों को चुनौती दी गई थी।
याचिकाकर्ताओं द्वारा यह आरोप लगाया गया कि सीडी के स्रोत का खुलासा नहीं किया गया था और कथित टेलीफोनिक बातचीत, जिसे सीडी में परिवर्तित कर दिया गया था, की याचिकाकर्ताओं को आपूर्ति नहीं की गई थी।
न्यायालय के समक्ष प्रश्न
क्या बर्खास्तगी का आधार बनाने के लिए दो व्यक्तियों के बीच टेलीफोनिक बातचीत को रिकॉर्ड किया जा सकता है?
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि पीयूसीएल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया AIR 1997 SC 568 में सुप्रीम कोर्ट ने टेलीफोन टैपिंग के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे, अन्यथा, यह माना जाता था कि यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 21 को रद्द करेगा।
न्यायालय की टिप्पणियां
शुरुआत में, अदालत ने कहा कि आदेशों ने इस तथ्य का खुलासा नहीं किया कि याचिकाकर्ताओं की आवाज की पहचान कैसे की गई और यह स्पष्ट किया गया कि क्या याचिकाकर्ताओं की आवाज की पहचान करने के लिए किसी अधिकारी की उचित सहायता ली गई थी या नहीं।
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि सीडी को किसी विशेषज्ञ या किसी फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी में जांच के लिए नहीं भेजा गया और यह कि टेलीफोन या मोबाइल फोन, जिसमें बातचीत की आवाज रिकॉर्ड की गई थी, मूल रूप से निर्मित नहीं थी।
इस बात पर ध्यान देते हुए कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 65-बी में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता के बारे में कुछ प्रक्रिया तय की गई है, न्यायालय ने टिप्पणी की, "मौजूदा मामले में, ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी सीडी की स्वीकार्यता के लिए प्रक्रिया का पालन, जैसा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 65-बी में परिकल्पित है, नहीं किया गया है।"
कोर्ट ने यह भी कहा, "जब सवाल सामने आता है कि क्या किसी वैध प्रक्रिया या वैधानिक जनादेश का पालन किया गया था.... तो जवाब नकारात्मक होगा।"
अंतिम रूप से, पीयूसीएल मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के आलोक में बर्खास्तगी के आदेशों की जांच और साक्ष्य अधिनियम की धारा 65-बी में निर्धारित प्रक्रिया की जांच करते हुए, न्यायालय ने माना कि जांच नहीं करने के कारण को उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की, "बर्खास्तगी का आदेश मुख्य रूप से टेलीफोनिक बातचीत पर आधारित है, जो कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आदेश के खिलाफ है, इसलिए, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 को बाधित करने के बराबर होगा।"
इसलिए, अदालत ने उल्लेख किया कि टेलफोनिक रिकॉर्ड की गई बातचीत के आधार पर जांच नहीं करने का औचित्य न्यायिक फैसले से अछूता नहीं रह सकता है और इसके परिणामस्वरूप, 28 जुलाई 2011 को बर्खास्तगी के आदेशों को रद्द किया गया है।
हालांकि, उत्तरदाताओं को याचिकाकर्ताओं के खिलाफ विभागीय जांच के लिए सुनवाई का उचित अवसर देकर और प्राकृतिक न्याय के नियमों की प्रक्रिया का पालन करने और उसके बाद उचित आदेश पारित करने की स्वतंत्रता दी गई थी। इसके साथ ही याचिकाओं का निस्तारण कर दिया गया।
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