'आपराधिक अपील पर फैसले करने में अधिवक्ता सहयोग नहीं करते': बॉम्बे हाईकोर्ट ने बार काउंसिल से ध्यान देने को कहा
बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में आपराधिक अपीलों में वकीलों के असहयोग पर कड़ी आपत्ति जताई, और बार काउंसिल को इस पर ध्यान देने का निर्देश दिया।
जस्टिस साधना जाधव और जस्टिस पृथ्वीराज चव्हाण की खंडपीठ ने एक 23 साल पुरानी अपील को देख रहे वकील की ओर से बार-बार स्थगन की मांग के बाद उक्त टिप्पणी की। मामला 1998 में दायर किया गया था।
पीठ ने कहा,
"हमने देखा है कि ज्यादातर ऐसे मामलों में 'जहां आरोपी जमानत पर हैं' एडवोकेट्स की आदत किसी ना किसी आधार पर स्थगन की मांग करने की होती है।"
अदालत ने कहा कि उसे कई मामलों में आरोपियों को जमानती वारंट, फिर गैर-जमानती वारंट जारी करने के लिए बाध्य किया गया है।
अदालत ने आगे कहा,
वकील अंतिम सुनवाई के चरण में आपराधिक अपील की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं। अदालत ने एक मामले का हवाला दिया, जिसमें पीठ ने जमानती वारंट जारी करने पर आरोपी के साथ बातचीत की थी। उस व्यक्ति ने अपनी ओर से पेश वकील से पहचान होने से इनकार कर दिया था।
कोर्ट आगे कहा कि यह रवैया आपराधिक अपीलों के लंबित रहने में योगदान देता है, जिसे अदालत ने कानूनी सहायता पैनल से वकीलों की नियुक्ति करके दूर करने का प्रयास किया है। उनमें से कई ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया है और अदालत की सहायता की है।
मामला
दो दिसंबर को जारी एक गैर-जमानती वारंट के अनुसार सोलापुर निवासी बालासाहेब सरवप्पा वरहाड़े पिछले सप्ताह अदालत में पेश हुए। उनके वकील रुशिकेश काले ने पीठ को सूचित किया कि 2005, 2018 और उसके बाद कई मौकों पर मामले की सुनवाई के बावजूद वह 1998 से उस व्यक्ति के संपर्क में नहीं थे।
काले ने मौखिक रूप से जमानती वारंट को रद्द करने की मांग करते हुए कहा कि वरहाडे 2002 में एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हुए थे और तब से विकलांग हैं। उन्होंने विकलांगता प्रमाण पत्र की एक प्रति प्रस्तुत की। काले ने अदालत को सूचित किया कि वरहाडे ने पिछले दिन ही उनसे संपर्क किया था।
अदालत ने अपने 16 दिसंबर के आदेश में कहा,
"यह केवल न्याय के हित में है कि यह अदालत गैर-जमानती वारंट को वापस लेने के लिए मौखिक प्रार्थना पर विचार कर रही है।"
हालांकि, पीठ ने मामले की अंतिम सुनवाई के लिए 12 जनवरी, 2022 की तारीख तय की और आरोपी को उस तारीख पर मौजूद रहने का निर्देश दिया।