मीडिया ट्रायल न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप ; यह कोर्ट की अवमानना है: बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2021-01-18 12:42 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने आज (सोमवार) को कहा कि मीडिया ट्रायल न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करता है और इसीलिए इसे न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत 'कोर्ट की अवमानना' माना जाता है।

हाईकोर्ट ने आगे कहा कि,

"न्यायिक कार्यवाही शुरू होने के बाद ही मीडिया ट्रायल को 'कोर्ट की अवमानना' माना जाएगा।"

कोर्ट ने जारी आपराधिक जांच के बीच मीडिया रिपोर्टिंग को विनियमित करने के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं। यह आदेश सुशांत सिंह राजपूत मौत मामले में किए गए 'मीडिया ट्रायल' की पृष्ठभूमि यानी इसे ध्यान में रखकर पारित किया गया है।

मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जीएस कुलकर्णी की एक खंडपीठ ने कहा कि,

"मीडिया ट्रायल न सिर्फ टीवी एक्ट के तहत बनाए गए प्रोग्राम कोड के खिलाफ काम करता है बल्कि पुलिस द्वारा की जा रही आपराधिक मामले की जांच में भी हस्तक्षेप करता है।"

हाईकोर्ट ने कहा कि,

"प्रेस या मीडिया को ऐसे आपराधिक मामलों पर बहस करने से बचना चाहिए, जिस मामले की पुलिस द्वारा जांच की जा रही हो। जनहित को ध्यान में रखते हुए ऐसे मामलों में केवल सूचनात्मक रिपोर्ट तक ही सीमित रहना चाहिए। किसी मामले की जांच चल रही हो तो मीडिया को ऐसे मामलों में चर्चा में संयम का पालन करना चाहिए ताकि आरोपियों और गवाह के अधिकारों का पूर्वाग्रह न हो।"

बेंच ने आगे कहा कि,

"प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दिशानिर्देशों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रिपोर्टिंग प्रक्रिया पर भी लागू किया जाएगा।"

बेंच द्वारा खुले कोर्ट में स्पष्ट रूप से दिशानिर्देश दिए गए, जो कुछ इस तरह हैं;

1. एक अभियुक्त द्वारा स्वीकार किए गए बयान को प्रकाशित करना, जैसे कि यह एक स्वीकार्य प्रमाण है कि जनता को इसकी असावधानी के बारे में जाने बिना इसे टाला जाना चाहिए;

2. आत्महत्या की रिपोर्ट करते समय, यह सुझाव में कहा जाना कि व्यक्ति कमजोर चरित्र का था, ऐसा कहने से बचा जाना चाहिए;

3. अपराध के दृश्यों का पुनर्निर्माण, संभावित गवाहों के साथ साक्षात्कार, संवेदनशील और गोपनीय जानकारी लीक करने से बचा जाना चाहिए;

4. जांच एजेंसियों को चल रही जांच के बारे में गोपनीयता बनाए रखने का अधिकार है और वे जानकारी को साझा करने के लिए बाध्य नहीं हैं।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने आपराधिक जांच के बारे में प्रामाणिक जानकारी देने के लिए पुलिस द्वारा एक सार्वजनिक सूचना अधिकारी की नियुक्ति के संबंध में वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार के सुझाव को भी अपनाया है।

खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि,

"किसी मामले के निर्णय में, उस मामले के निष्कर्ष और अवलोकन लंबित जांच का प्रतिबिंब नहीं हैं और संबंधित आपराधिक अदालत को टिप्पणियों के बिना निर्जन मुद्दों पर निर्णय लेना चाहिए।"

पिछले छह महीनों से चल रही मामले की सुनवाई के दौरान, हाईकोर्ट ने "मीडिया ट्रायल" के अभ्यास पर चिंता व्यक्त की है और कोर्ट ने कहा है कि मीडिया को अपनी सीमा को पार नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही सभी दिशानिर्देशों का पालन किया जाना चाहिए।

चल रही आपराधिक जांच के मामले में मीडिया ट्रायल के हस्तक्षेप से उत्पन्न परेशानी को देखते हुए, मीडिया ट्रायल की आलोचना करते हुए बेंच ने कहा था कि,

"एक पुलिस अधिकारी के बारे में सोचो। क्या किसी को गारंटी दी जा सकती है कि वह प्रभावित नहीं होगा? वे एक विशेष मार्ग का अनुसरण करते हैं, जो कि सही हो सकता है। वहीं मीडिया का कहना है कि नहीं, यह मार्ग सही नहीं है। इसके चलते वह रास्ता खो देता है और वह निर्दोष हो जाता है।"

एक जनहित याचिका मुंबई पुलिस के आठ पूर्व अधिकारियों के द्वारा दायर की गई थी। इस याचिका के मुताबिक मुंबई पुलिस के खिलाफ टीवी चैनलों द्वारा 'निंदनीय' रिपोर्टिंग की गई थी, जिससे वे नाराज थे।

हाईकोर्ट ने कहा था कि,

"जिस तरह से टीवी मीडिया द्वारा शहर की पुलिस की आलोचना की गई थी, वह अनुचित थी। यह सब रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री के मद्देनजर थी। शहर की पुलिस जांच के बहुत ही बुनियादी स्तर पर थी।"

कोर्ट ने आगे कहा था कि,

"दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में मुंबई पुलिस के खिलाफ रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ द्वारा किया गया मीडिया कवरेज 'प्रथम दृष्टया अवमानना' है।"

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