केरल हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में तलाशी के लिए कथित लिखित सहमति प्रस्तुत करने में अभियोजन पक्ष की विफलता का हवाला देते हुए NDPS आरोपी को बरी किया

Update: 2023-11-10 05:12 GMT

केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में एनडीपीएस अधिनियम (NDPS Act) के तहत आरोपी को इस आधार पर बरी कर दिया कि अधिनियम की धारा 50 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष उसकी तलाशी लेने के अधिकार के संबंध में उसे किए गए कथित लिखित संचार और इस तरह के अधिकार को माफ करने के लिए उसकी कथित लिखित सहमति प्रस्तुत करने में अभियोजन पक्ष की विफलता का हवाला दिया गया।

जस्टिस एन. नागरेश ने माना कि अभियोजन पक्ष की ओर से अधिनियम की धारा 50 के अनुपालन में प्राप्त संचार या सहमति पत्र प्रस्तुत करने में विफलता के कारण आरोपी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अदालत ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 के तहत प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों के उल्लंघन में पुलिस द्वारा बरामद की गई अवैध मादक दवाओं/मनोचिकित्सक पदार्थों के साक्ष्य पर आरोपी को दोषी ठहराने के लिए भरोसा नहीं किया जा सकता।

हाईकोर्ट ने कहा,

“…अभियोजन पक्ष ने आगे कहा कि अपीलकर्ता ने तलाशी के दौरान राजपत्रित अधिकारी/मजिस्ट्रेट की उपस्थिति से छूट देने के लिए अपनी सहमति दी, वह भी लिखित रूप में। यदि लिखित रूप में ऐसा संचार मौजूद है तो अभियोजन पक्ष को उसे अदालत के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए था। दस्तावेज़ों का गैर-प्रस्तुतीकरण कानून के अनुपालन के संबंध में गंभीर संदेह को जन्म देता है, इस हद तक कि तलाशी और जब्ती रद्द हो जाती है। अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों के अनुपालन में तलाशी और जब्ती के अभाव में अपीलकर्ता के खिलाफ अभियोजन की पूरी कहानी ध्वस्त हो जाएगी। मामले के उपरोक्त तथ्यों में मुझे लगता है कि अदालत के समक्ष अधिनियम की धारा 50 संचार/सूचना प्रस्तुत करने में अभियोजन पक्ष की विफलता ने अपीलकर्ता पर गंभीर रूप से प्रतिकूल प्रभाव डाला है और इन परिस्थितियों में अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को उचित नहीं ठहराया जा सकता है।''

एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 में कहा गया कि तलाशी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में की जानी चाहिए।

रंजन कुमार चड्ढा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2022) में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा कि जब संदिग्ध मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी लेने का अपना अधिकार छोड़ देता है तो लिखित सहमति पत्र प्राप्त करना होगा और तलाशी नहीं ली जा सकती। इसे मौखिक कथन के आधार पर किया जाए।

अपीलकर्ता-एकमात्र आरोपी को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-आठवीं, एर्नाकुलम द्वारा एनडीपीएस अधिनियम की धारा 22 (सी) के तहत प्रतिबंधित पदार्थ रखने के लिए दोषी ठहराया गया। उसे दस साल के कठोर कारावास और एक लाख रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई गई और जुर्माना न देने पर तीन महीने की सजा दी गई।

अपील में अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि तलाशी एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 का उल्लंघन करके की गई और यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता ने मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की अनुपस्थिति में तलाशी करने की अनुमति देते हुए सहमति पत्र नहीं लिखा।

यह भी तर्क दिया गया कि निचली अदालत ने यह कहकर गलती की कि अधिनियम की धारा 50 का अनुपालन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जब्ती हैंडबैग से की गई, न कि अपीलकर्ता के शरीर से। यह भी कहा गया कि अपीलकर्ता को उसके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया गया कि वह मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति के लिए अनुरोध कर सकता है।

लोक अभियोजक ने अपील का विरोध किया और प्रस्तुत किया कि अपीलकर्ता को तलाशी के लिए मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति के उसके अधिकार से अवगत कराया गया। आगे यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता ने कहा कि उसे उनकी उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है और तलाशी लेने में कोई आपत्ति नहीं है और लिखित सहमति पत्र दिया।

कोर्ट ने पाया कि पुलिस ने तलाशी ली और उसके हैंडबैग में नशीली दवाएं मिलीं। अदालत ने पाया कि पुलिस ने अपीलकर्ता को दिए गए संचार का विवरण और न ही उससे प्राप्त सहमति पत्र का विवरण प्रस्तुत किया।

न्यायालय ने पंजाब राज्य बनाम बलदेव सिंह (1999) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि अधिनियम की धारा 50 के अनुपालन के बिना अवैध वस्तुओं की बरामदगी के आधार पर सजा बरकरार नहीं रखी जा सकती। न्यायालय ने कहा कि रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जो उचित संदेह से परे साबित कर सके कि यह अपीलकर्ता ही था जिसने अधिनियम की धारा 50 के तहत अपने अधिकार का प्रयोग नहीं करने का विकल्प चुना।

न्यायालय ने कहा कि समाज को मादक पदार्थों की तस्करी करने वाले अपराधियों से बचाना होगा। हालांकि, यह भी कहा कि दोषसिद्धि प्राप्त करने के साधन महत्वपूर्ण हैं। इसमें कहा गया कि जांच अधिकारियों को आरोपियों को निष्पक्ष सुनवाई प्रदान करने के लिए जांच करते समय वैधानिक प्रावधानों का पालन करना होगा।

कोर्ट ने आगे कहा,

“उपाय बीमारी से भी बदतर नहीं हो सकता। यदि अदालत को तलाशी अभियान के दौरान जांच एजेंसी द्वारा किए गए अराजकता के कृत्यों को नज़रअंदाज करते देखा गया तो न्यायिक प्रक्रिया की वैधता खतरे में पड़ सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आरोपी निष्पक्ष सुनवाई का हकदार है और अनुचित सुनवाई के परिणामस्वरूप हुई सजा न्याय की हमारी अवधारणा के विपरीत है। ट्रायल में अधिनियम की धारा 50 द्वारा प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों के उल्लंघन में एकत्र किए गए साक्ष्य का उपयोग, मुकदमे को अनुचित बना देगा।

तदनुसार, अदालत ने अपील की अनुमति दी और दोषसिद्धि रद्द कर दी।

याचिकाकर्ता के वकील: एडवोकेट मनु रॉय

केस टाइटल: रवीन्द्रनाथ बनाम केरल राज्य

केस नंबर: CRL.A NO. 1200/2023

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