केरल हाईकोर्ट ने सरकारी कर्मचारियों का नहीं दी राहत, वेतन भुगतान स्‍थगित करने के केरल सरकार के अध्यादेश पर रोक से किया इनकार

Update: 2020-05-05 12:53 GMT

Kerala High Court

केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को केरल आपदा और सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल (विशेष प्रावधान) अध्यादेश, 2020 पर स्टे लगाने से इनकार कर दिया।

उल्‍लेखनीय है कि केरल सरकार यह अध्यादेश पिछले हफ्ते लागू किया था, जिसके जरिए आपदाओं और सार्वजनिक आपात स्थितियों में केरल सरकार को अपने कर्मचारियों के मासिक वेतन का 25% तक भुगतान स्थगित करने का अधिकार दिया गया है।

अध्यादेश के विरोध में कई याचिकाएं डाली गई थीं, जिनमें अध्यादेश को भारतीय संव‌िधान का उल्लंघनकारी बताया गया था, और स्टे लगाने की मांग की गई थी। हालांकि जस्टिस बेचू कुरियन थॉमस की एकल पीठ ने स्टे लगाने से इनकार कर दिया।

याचिकाकर्ताओं के तर्क

याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश अधिवक्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 309 पर व्यापक रूप से भरोसा करते हुए कहा कि सरकारी कर्मचारियों की सेवा शर्तों में बदलाव नहीं किया जा सकता है, "जब तक कि इस संबंध में विधानमंडल के जर‌िए पारित कानून के तहत प्रावधान नहीं किया जाता है।" चूंकि राज्य विधानमंडल ने मूल कानून और केरल सेवा नियमों में संशोधन नहीं किया है, इसलिए यह अध्यादेश असंवैधानिक है।

उन्होंने दलील दी कि सरकार ने अध्यादेश के जर‌िए प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, क्योंकि अध्यादेश की घोषणा से पहले कर्मचारियों की सहमति नहीं ली गई, जिससे सरकार और कर्मचारियों के बीच क्र‌ियान्वित रोजगार अनुबंध का उल्लंघन भी होता है।

उल्लेखनीय है कि केरल सरकार ने 23 अप्रैल को एक सरकारी आदेश जारी किया था, जिसमें अगले पांच महीनों के लिए सरकारी कर्मचारियों के मासिक वेतन के 6 दिनों का भुगतान स्थगित करने का निर्देश दिया गया था।

हाईकोर्ट ने, 28 अप्रैल को वेतन स्थगन के आदेश के संचालन पर दो महीने के लिए रोक लगा दी थी। हाईकोर्ट ने कहा था कि आदेश के संचालन का कोई वैधानिक आधार नहीं है।

याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि अध्यादेश अदालत के स्थगन आदेश की अवहेलना और कर्मचारियों का वेतन "हड़पने" के उद्देश्य से पारित अध्यादेश किया गया है, जब सरकार खुद आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 23 के तहत आपदा से निपटने के लिए "अग्रिम योजना" तैयार करने में विफल रही है।

कर्मचारियों के वेतन के वर्तमान मामले में, संविधान के अनुच्छेद 300 के तहत संपत्ति के वैधानिक अधिकार पर भी निर्भरता रखी गई, जिसे "सेवाओं के लिए मुआवजा" करार दिया गया, "इनाम", जिसे वापस ले ‌लिया जाए।

केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय द्वारा जारी एडवाइजरी पर भी भरोसा कायम किया गया, जिसमें कहा गया ‌था कि नियोक्ता अपने कर्मचारियों को हटाएं न/ वेतन न कम करें। यह तर्क दिया गया था कि अध्यादेश केरल में कर्मचारियों के प्रति भेदभावपूर्ण है।

संविधान के अनुच्छेद 360 (4) (a) (i) पर निर्भरता रखी गई थी, जो यह बताती है कि वित्तीय आपातकाल की स्थिति में वेतन कम करने का निर्देश दिया जा सकता है। दलील दी गई कि चूंकि फिलहाल 'वित्तीय आपातकाल' की स्थिति नहीं है, इसलि अध्यादेश अनावश्यक है।

एक तर्क यह भी दिया गया था कि महामारी के कारण स्वास्थ्य कर्मचारियों दिन-रात काम कर रहे हैं, फिर भी उन्हें अध्यादेश के तहत छूट नहीं दी गई है।

अध्यादेश में उस "निश्चित समय अवधि" का भी उल्लेख नहीं किया गया है, जब तक वेतन में कटौती की जाएगी और उस "उद्देश्य" को भी निर्दिष्ट नहीं किया गया है, जिसके लिए धन का उपयोग किया जाएगा।

याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी गई कि अध्यादेश कर्मचारियों के जीवन और आजीविका के अधिकारों का उल्लंघन करता है, जैसा कि अनुच्छेद 21 के तहत सुनिश्चित किया गया है और ओल्गा टेलिस व अन्य बनाम बीएमसी, 1985 SCC (3) 545 के मामले में में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की है।

राज्य के तर्क


दूसरी ओर, राज्य सरकार ने इस तथ्य पर जोर दिया कि अध्यादेश केवल वेतन के भुगतान को "स्थगित" करता है, न कि वेतन में कटौती करता है।

महाधिवक्ता सीपी सुधाकर प्रसाद ने तर्क दिया कि संविधान की धारा 309 और अनुच्छेद 360 (4) (a) (i) के तहत सेवा में कोई "परिवर्तन" नहीं किया है, क्योंकि भुगतान केवल स्‍थगित गया है, कम नहीं किया गया है।

अध्यादेश के पीछे की विधायी शक्तियों के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने बताया कि अध्यादेश भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II और III की विभिन्न प्रविष्टियों के संदर्भ में दी गई शक्तियों के तहत प‌ारित किया गया है।

सरकारी वकील एन मनोज कुमार ने बताया-

लिस्ट II एंट्री 6: सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता

-लिस्ट II एंट्री 41: राज्य की सार्वजनिक सेवाएं

-लिस्ट III एंट्री 20: आर्थिक और सामाजिक नियोजन

-लिस्ट III एंट्री 23: सामाजिक सुरक्षा, रोजगार

-लिस्टस III एंट्री 29: संक्रामक रोगों की रोकथाम

- लाइव लॉ (@LiveLawIndia) 5 मई, 2020

इसके अलावा, अधिवक्ता कालेश्वरराम राज ने कहा कि अध्यादेश को अदालत के आदेश की अवहेलना नहीं कहा जा सकता क्योंकि कोर्ट का आदेश केवल "स्टे" था, "मैंडमस नहीं" था।

उन्होंने कहा कि जब कानून या अध्यादेश के माध्यम से किसी नियम को लागू किया जाता है तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की गुंजाइश नहीं होती है और इस प्रकार, विधायी कार्यों के मामलों में कर्मचारियों की सहमति की आवश्यकता नहीं होती है।

राज्य सरकार की ओर तर्क दिया गया कि "सुविधा का संतुलन" राज्य के पक्ष में है, क्योंकि लॉकडाउन के कारण राज्य की आय में काफी गिरावट आई है।

यह दलील भी दी गई कि अध्यादेश के पैराग्राफ 7 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वेतन का भुगतान केवल स्थगित किया गया है और पुनर्भुगतान की योजना छह महीने के भीतर अधिसूचित की जाएगी।

परिणाम

पीठ ने कहा कि संविधान की अनुसूची 7 में दी गई सूचियों के तहत प्रविष्टियों की "शाब्दिक और व्यापक रूप से व्याख्या की जानी हैं"। ज‌स्टिस थॉमस ने कहा, जब सरकार कहती है कि उपर्युक्त प्रविष्टियों के तहत उनके पास विधायी क्षमता है, तो अदालत ऐसे नवजात चरण में अध्यादेश में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।

उन्होंने कहा कि अध्यादेश का उद्देश्य केवल कुछ निर्दिष्ट संस्‍थानों से संबंध‌ित कुछ निर्दिष्ट श्रेणियों के कर्मचारियों को देय वेतन को स्थगित करना है। अध्यादेश में कहा गया है कि सरकार स्थगित राशि का भुगतान करने के लिए एक मैकेनिज्म अधिसूच‌ित करेगी। अध्यादेश कर्मचारियों के अधिकारों को छीनता नहीं है।

कोर्ट ने शिक्षकों के वेतन स्‍थगित करने के लिए जारी की गई अधिसूचनाओं पर रोक लगाने से भी इनकार कर दिया। अध्यादेश से स्वास्थ्य कर्मचारियों को छूट देने के अनुरोध को भी अस्वीकार कर दिया गया, कहा गया कि अध्यादेश सभी सरकारी कर्मचारियों पर समान रूप से लागू होता है, इसमें कोई वर्गीकरण / भेदभाव नहीं है और इसलिए, किसी भी हस्तक्षेप के लिए रोक नहीं है।

इस मामले को अब जून के दूसरे सप्ताह तक टाल दिया गया है।

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