'बाहुबली' का नकली को-प्रोड्यूसर बन फ्रॉड करने वाले आरोपी को हाईकोर्ट से मिली जमानत

Update: 2025-11-28 06:45 GMT

फिल्म बाहुबली का 'को-प्रोड्यूसर' होने का दावा करने वाले आदमी को ज़मानत देते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाई कोर्ट ने कहा कि सिर्फ़ दूसरी जगहों पर क्रिमिनल केस का पेंडिंग होना, जिसमें सज़ा न हुई हो, किसी आरोपी को जांच पूरी होने और चार्जशीट फाइल होने के बाद अनिश्चित समय के लिए जेल में रखने का आधार नहीं हो सकता।

कोर्ट भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 483 के तहत दायर एक ज़मानत अर्जी पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें याचिकाकर्ता की रिहाई की मांग की गई, जिस पर पैसे लेने के लिए कथित धोखाधड़ी के लालच के लिए मुकदमा चल रहा है।

जस्टिस संजय धर की सिंगल बेंच ने मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा कि जमानत पर विचार करते समय, यह पक्का करना ज़रूरी है कि यह प्रोसेस प्री-ट्रायल सज़ा में न बदल जाए।

उन्होंने कहा,

“किसी आरोपी के खिलाफ़ सिर्फ़ कई FIR का पेंडिंग होना ही ऐसे मामले में जमानत देने से मना करने का आधार नहीं हो सकता, जहां उस जुर्म के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सज़ा सात या दस साल तक हो, जिसके लिए आरोपी पर आरोप है, खासकर तब जब उसके खिलाफ़ चार्जशीट पेश हो चुकी हो और वह अंडरट्रायल के तौर पर डेढ़ साल से ज़्यादा जेल में रह चुका हो।”

इस तरह कोर्ट ने कहा,

“मौजूदा तरह के मामले में याचिकाकर्ता को जमानत देने से मना करना BNSS की धारा 483 के तहत इस कोर्ट को मिले अपने अधिकार का सही इस्तेमाल नहीं हो सकता, क्योंकि यह इस प्रिंसिपल के खिलाफ़ होगा कि बेल नियम है और जेल अपवाद है।”

यह मामला पुलिस स्टेशन अनंतनाग में दर्ज FIR से सामने आया, जिसमें आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता ने शिकायत करने वाले, जो एक आर्मी ऑफिसर है, उसको धोखे से ₹1.06 करोड़ ट्रांसफर करने के लिए उकसाया। उसने खुद को एक अमीर बिजनेसमैन और मशहूर फिल्म फ्रेंचाइजी 'बाहुबली' का को-प्रोड्यूसर होने का झूठा दावा किया।

सीनियर AAG मोहसिन कादिरी की तरफ से पेश हुए प्रॉसिक्यूशन ने दावा किया कि याचिकाकर्ता ने खुद को पैसे के मामले में प्रभावशाली बताया, मशहूर हस्तियों के साथ अपनी तस्वीरें दिखाईं, दिल्ली में प्रॉपर्टी का मालिकाना हक होने का दावा किया और कश्मीर में बड़े पैमाने पर इन्वेस्टमेंट का वादा किया। आरोप है कि उसने प्रॉपर्टी ट्रांजैक्शन अरेंज करने और बिजनेस वेंचर को फाइनेंस करने के बहाने बेईमानी से पैसे लिए।

जांच में पता चला कि याचिकाकर्ता और उसके साथियों से जुड़े अकाउंट में ट्रांसफर किए गए। तलाशी और जब्ती में कई पहचान के डॉक्यूमेंट, चेक, इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस और प्रॉपर्टी के पेपर शामिल थे। पुलिस ने यह भी बताया कि जिस व्यक्ति को उसका सेक्रेटरी बताया गया, वह असल में एक किराए का ड्राइवर था। याचिकाकर्ता, जिसका प्रतिनिधित्व एडवोकेट अरीब कवूसा और आतिर कवूसा कर रहे थे, उन्होंने पहले ज़मानत याचिकाएं दायर की थीं, जिन्हें ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था, जबकि मद्रास हाई कोर्ट ने एक मामले में उनकी ज़मानत रद्द कर दी थी।

शिकायतकर्ता ने ज़मानत का विरोध करते हुए तमिलनाडु में याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज कई FIR का हवाला दिया। साथ ही कहा कि वह आदतन धोखेबाज़ है और उसके भागने का खतरा है।

जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने ज़मानत को नियंत्रित करने वाले कानूनी सिद्धांतों की जांच की, जिसमें आरोपों की प्रकृति, सज़ा की गंभीरता, फरार होने की संभावना और सबूतों के साथ छेड़छाड़ की संभावना शामिल है। इसने दोहराया कि आर्थिक अपराधों की जांच की जा सकती है लेकिन वे ज़मानत पर कोई कानूनी रोक नहीं लगाते हैं।

संजय चंद्रा बनाम CBI, सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI और अर्नब मनोरंजन गोस्वामी बनाम महाराष्ट्र राज्य सहित सुप्रीम कोर्ट के अधिकारियों का ज़िक्र करते हुए बेंच ने इस बुनियादी नियम पर ज़ोर दिया कि चार्जशीट दायर होने के बाद सिर्फ़ अंदाज़ों के आधार पर आज़ादी से वंचित नहीं रखा जा सकता।

बेंच ने कहा कि हालांकि तमिलनाडु से FIRs मौजूद हैं, लेकिन वे एक जैसे अपराधों से जुड़ी हैं और अभी भी उन पर फैसला पेंडिंग है। बेंच ने कहा कि पेंडिंग केस, “बिना किसी सज़ा के,” किसी व्यक्ति को अनिश्चित काल तक जेल में रखने को सही नहीं ठहरा सकते।

कोर्ट ने आगे यह भी दर्ज किया कि विवादित रकम में से ₹56 लाख से ज़्यादा अलग-अलग कार्रवाई के दौरान वापस कर दिए गए। याचिकाकर्ता की कस्टडी के दौरान नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 138 के तहत और भी चेक-बाउंस केस फाइल किए गए, जिससे अगर कस्टडी जारी रहती है तो उसका अपना बचाव करने की काबिलियत पर असर पड़ेगा।

यह देखते हुए कि पिटीशनर डेढ़ साल से ज़्यादा समय से कस्टडी में है, कोर्ट ने माना कि ट्रायल में उसकी मौजूदगी पक्की करने के लिए कड़ी शर्तें लगाई जा सकती हैं।

कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट के सामने ट्रायल का सामना करने के लिए याचिकाकर्ता की मौजूदगी के बारे में इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी की चिंता, "पिटीशनर पर ज़मानत की कड़ी शर्तें लगाकर दूर की जा सकती है"। हालांकि, याचिकाकर्ता को सिर्फ़ इसलिए ज़मानत देने से मना करना कि उसके खिलाफ़ इसी तरह के कई दूसरे केस बिना किसी सज़ा के पेंडिंग हैं, कोर्ट ने यह नतीजा निकाला, "याचिकाकर्ता को बिना ट्रायल के सज़ा देना होगा, जो कानून में नामंज़ूर है"।

इसलिए एप्लीकेशन मंज़ूर कर ली गई। याचिकाकर्ता को सख्त शर्तों के साथ बेल दी गई, जिसमें सॉल्वेंट श्योरिटी के साथ बॉन्ड भरना या फिक्स्ड-डिपॉज़िट रसीद के ज़रिए जमा करना, गवाहों को कोई लालच नहीं देना, ट्रायल कोर्ट में रेगुलर पेश होना, पासपोर्ट सरेंडर करना, बिना इजाज़त देश छोड़ने पर रोक, घर और मोबाइल नंबर बताना और प्रॉसिक्यूशन को मूवमेंट पर नज़र रखने और शर्तों का उल्लंघन करने पर बेल कैंसल करने की इजाज़त शामिल है।

Case Title: Nagaraj V vs UT of J&K

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