'मजिस्ट्रेट के संज्ञान लेने के बाद CrPC की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता', J&K हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेटों के प्रशिक्षण का आदेश दिया
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने सोमवार (31 अगस्त) को एक फैसला सुनाया है जिसमे यह साफ़ किया कि एक बार मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान ले लिया जाए, उसके बाद दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
न्यायमूर्ति अली मुहम्मद माग्रे की पीठ ने कहा कि एक बार जब कोई मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेता है, तो उसके बाद उसे धारा 156 (3) के तहत अन्वेषणका आदेश देने से रोक दिया जाता है।
यही नहीं, पीठ ने निदेशक, न्यायिक अकादमी को साथ ही यह निर्देश भी दिया कि वे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सभी मजिस्ट्रेटों के लिए प्रशिक्षण सत्र की व्यवस्था करें।
दरअसल, अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत याचिका दाखिल करते हुए दिनांक 25.06.2020 एवं 11.05.2020 के उन आदेशों को रद्द करने की मांग की गयी थी जो आदेश, न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (3rd अतिरिक्त मुंसिफ/जेएमआईसी, श्रीनगर) द्वारा पारित किये गए थे।
मामले की पृष्ठभूमि
दरअसल 11 मई 2020 को, न्यायिक मजिस्ट्रेट ने एसएसपी श्रीनगर को एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट और अन्य के खिलाफ एक शिकायत की जांच करने का निर्देश दिया था। कार्यकारी मजिस्ट्रेट और अन्य के खिलाफ धारा 166, 166-ए, और 167, 354, 201, 209 और 120-बी आईपीसी के तहत अपराधों के सम्बन्ध में शिकायत दर्ज की गई थी।
एसएसपी ने जांच रिपोर्ट दायर की और यह पाया कि कि मौजूदा याचिकाकर्ता (कार्यकारी मजिस्ट्रेट) और अन्य आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ लगाए गए मामले और आरोपों की पुष्टि नहीं हो पाई।
इसके बाद 25 जून को न्यायिक मजिस्ट्रेट ने यह देखते हुए कि एसएसपी श्रीनगर ने मामले में कोई कार्रवाई नहीं की है, एसएसपी, श्रीनगर, को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के प्रावधानों के तहत कार्रवाई करने के लिए और मामले का अन्वेषण एसपी के माध्यम से कराने संबंधित आदेश निर्देश दे दिया।
पक्षकारों की दलीलें
मजिस्ट्रेट के आदेश का समर्थन करते हुए और मौजूदा याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए शिकायतकर्ता की ओर से पेश वकील ने यह पेश किया कि अदालत के पास निष्पक्ष और ईमानदार जांच/अन्वेषण सुनिश्चित करने की शक्ति है, क्योंकि पुलिस की भूमिका शिकायत की जांच में उचित नहीं है।
वहीँ मौजूदा याचिकाकर्ता के लिए पेश वकील ने अपनी दलीलें देते हुए कहा कि मजिस्ट्रेट का धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का निर्देश देने का आदेश, पूर्व-संज्ञान चरण (PRE-COGNIZANCE STAGE) के तहत अनुमन्य है, जबकि धारा 202 के तहत जांच का आदेश पोस्ट- संज्ञान स्टेज (POST-COGNIZANCE STAGE) पर होता है, इसलिए, इस प्रक्रिया के खिलाफ होने वाले आदेशों को रद्द कर दिया जाना चाहिए।
अदालत के समक्ष विचार हेतु सवाल?
अदालत के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह था कि क्या मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 156 (3) के संदर्भ में, मामले का अन्वेषण करने का निर्देश जारी करने में सही/उचित/न्यायोचित था, जबकि सीआरपीसी की धारा 202 के संदर्भ में जांच पूरी होने तक प्रक्रिया स्थगित कर दी गई थी?
दूसरे शब्दों में, मजिस्ट्रेट के आदेश को देखने से यह पता चलता है कि मजिस्ट्रेट ने शिकायत पर विचार करने पर, प्रक्रिया जारी करने को स्थगित कर दिया था और आरोपों की शुद्धता के बारे में संतुष्ट होने के लिए जांच का निर्देश दिया था।
रिपोर्ट प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट ने कानून के आदेश के अनुरूप आगे बढ़ने के बजाय, सीआरपीसी की धारा 156 (3) के संदर्भ में अन्वेषण का आदेश दिया, अब सवाल यह था कि क्या मजिस्ट्रेट ने न्यायालय की शक्तियों का दुरुपयोग किया है या नहीं?
अदालत का अवलोकन
अदालत ने सबसे पहले इस सवाल का जवाब दिया कि क्या मजिस्ट्रेट के लिए शिकायत का संज्ञान लेने के बाद और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करने (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) के बाद, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, श्रीनगर से जांच रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद, धारा 156 (3) के तहत जो कार्यवाही की वह उचित थी या उन्हें धारा 202 के तहत आगे बढ़ने की आवश्यकता थी।
इसपर अदालत ने कहा कि,
"निश्चित रूप से मजिस्ट्रेट ने शिकायत का संज्ञान लिया और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करना (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) आवश्यक समझा, इसलिए, पुलिस द्वारा मामले को जांच के लिए निर्देशित किया और एसएसपी, श्रीनगर से रिपोर्ट प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XV में निहित प्रावधानों के संदर्भ में आगे बढ़ना आवश्यक था।"
गौरतलब है कि जब मजिस्ट्रेट द्वारा मामले का संज्ञान नहीं लिया जाता है और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी नहीं किया जाता (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) और एक मामले के साथ आगे बढ़ने के लिए आवश्यक पाया जाता है तो उक्त प्रावधान [156(3)] के तहत निर्देश जारी किया जाता है.
वहीँ दूसरी ओर, जब मजिस्ट्रेट द्वारा मामले का संज्ञान लिया जाता है और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी किया जाता है (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) तो उस स्तर पर मजिस्ट्रेट द्वारा अभी तक "आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार के अस्तित्व" को निर्धारित नहीं गया होता है और ऐसे मामले धारा 202 के तहत आते हैं।
अदालत ने रमेशभाई पांडुरो हेडो बनाम गुजरात राज्य (2010) 4 SCC 185 में यह साफ़ किया था कि धारा 156 (3) के तहत पुलिस अन्वेषण का निर्देश देने की शक्ति पूर्व-संज्ञान चरण (PRE-COGNIZANCE STAGE) में प्रयोग करने योग्य है, वहीँ धारा 202 (1) के तहत जांच या जांच का निर्देश देने की शक्ति का प्रयोग पोस्ट-संज्ञान चरण (POST-COGNIZANCE STAGE) में किया जाता है जब केस मजिस्ट्रेट के अंतर्गत आ जाता है।
मौजूदा मामले में उच्च न्यायालय ने सुरेश चंद जैन (2001) 2 SCC 628 मामले के साथ सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गए अन्य मामलों को संदर्भित करते हुए कहा कि धारा 156 (3) के तहत शक्तियों को एक पूर्व-संज्ञान चरण (PRE-COGNIZANCE STAGE) में मजिस्ट्रेट द्वारा आमंत्रित किया जा सकता है, जबकि एक शिकायत पर संज्ञान लेने के बाद (POST-COGNIZANCE STAGE), संहिता की धारा 202 के तहत शक्तियों को लागू किया जाना चाहिए, हालाँकि प्रक्रिया को जारी करने से पहले।
अदालत ने मुख्य रूप से कहा,
"जहां उपलब्ध जानकारी की विश्वसनीयता के आधार पर, या न्याय के हित को तौलते हुए, मामले को प्रत्यक्ष अन्वेषण के लिए उपयुक्त माना जाता है, तो धारा 156 (3) के तहत दिशा निर्देश जारी किये जाते हैं। वर्तमान मामले में, मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करदिया (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS), क्योंकि मजिस्ट्रेट को अभी "आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार के अस्तित्व" का निर्धारण करना था। इसलिए, मजिस्ट्रेट ने प्रक्रिया का पालन न करके कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग किया है।"
अदालत ने आगे कहा,
"दूसरे शब्दों में, एक बार एक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेता है, उसके बाद, वह संहिता की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दे सकता।"
उपरोक्त चर्चा के मद्देनजर, मौजूदा याचिका को न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (3rd अतिरिक्त मुंसिफ़/जेएमआईसी, श्रीनगर) द्वारा पारित दिनांक 25.06.2020 के आदेश को रद्द करते हुए अनुमति दी गयी, हालांकि, मजिस्ट्रेट को संहिता के अध्याय XV के संदर्भ में रिपोर्ट, अर्थात धारा 202 (1) के बाद के स्टेज से आगे बढ़ने की अनुमति दी जाती है।
अंत में, अदालत ने मुख्य रूप से कहा कि,
"चूंकि अदालत ने यह विचार किया है कि मामले को संचालित करने के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण, कानून के अनुरूप नहीं है, बल्कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है, इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि इस फैसले की प्रतिलिपि को इस न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को भेजा जाए कि वे निदेशक, न्यायिक अकादमी से यह अनुरोध करें कि चरणबद्ध तरीके से जम्मू और कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के सभी मजिस्ट्रेटों के लिए प्रशिक्षण सत्र की व्यवस्था करें। वे निदेशक, न्यायिक अकादमी को प्रशिक्षण सत्र से पहले सभी मजिस्ट्रेटों के बीच इस जजमेंट को प्रसारित करने को कहेंगे।"