मानवाधिकार आयोग एक सिफारिशी निकाय, मुआवजे के भुगतान का निर्देश नहीं दे सकताः छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

Update: 2021-08-02 09:18 GMT
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते कहा कि मानवाधिकार आयोग एक सिफारिशी निकाय है और मुआवजे के भुगतान के निर्देश का आदेश पारित करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। जस्टिस संजय के अग्रवाल ने कहा कि 1993 के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 18 आयोग को केवल सिफारिश करने का अधिकार देती है न कि निर्णय लेने का।

कोर्ट ने कहा, "आयोग का कोई न्यायिक क्षेत्राधिकार नहीं है, और सरकार/उसके प्रा‌धिकरणों पर कानून के अनुसार आयोग की सिफारिश पर विचार करने का दायित्व है।"

मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 3 और धारा 21 क्रमशः राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग [NHRC] और राज्य मानवाधिकार आयोग [SHRCs] के गठन का प्रावधान करती है। धारा 18(ए)(i) आयोग को शिकायतकर्ता/पीड़ित/उसके परिवार के सदस्यों को मुआवजे/क्षति के भुगतान के लिए प्राधिकरण या सरकार को सिफारिश करने की शक्ति देती है जैसा कि आवश्यक समझा जाता है।

अदालत छत्तीसगढ़ राज्य मानवाधिकार आयोग के एक आदेश के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उसने याचिकाकर्ता को कथित पेशेवर लापरवाही के कारण मुआवजे के रूप में 10,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था। यह तर्क दिया गया कि उक्त आदेश गैर कानूनी और अवैध है।

छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत बोर्ड, रायपुर बनाम छत्तीसगढ़ मानवाधिकार आयोग एवं अन्य (2018) पर भरोसा करते हुए याचिकाकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट जेए लोहानी ने तर्क दिया कि मुआवजे के भुगतान का निर्देशन आदेश अरक्षणीय और कानून में बुरा है क्योंकि मानवाधिकार आयोग सक्षम प्राधिकारी को केवल सिफारिश कर सकता है।

उच्च न्यायालय ने एनसी ढौंडियाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (2004) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था, "आयोग जो एक 'अद्वितीय विशेषज्ञ निकाय' है, निस्संदेह, उसे मानवाधिकारों की रक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया है, लेकिन यह बताने कि आवश्यकता नहीं है कि आयोग के पास कोई असीमित अधिकार क्षेत्र नहीं है और न ही यह वैधानिक सीमाओं की अवमानना कर पूर्ण शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।"

निर्देश/जनादेश की तुलना में सिफारिश के दायरे की जांच करते हुए, कोर्ट ने मनोहर पुत्र माणिकराव अंचुले बनाम महाराष्ट्र राज्य और एक अन्य (2012) पर भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि, "अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश करने की शक्ति एक ऐसी शक्ति का प्रयोग है, जिसमें दंडात्मक परिणाम दिए जा सकते हैं। जब ऐसी सिफारिश प्राप्त होती है, तो अनुशासनात्मक प्राधिकारी कानून के अनुसार अनुशासनात्मक कार्यवाही करेगा और कानून की आवश्यकताओं की संतुष्टि के अधीन होगा। यह एक है "सिफारिश" है और जांच करने के लिए "जनादेश" नहीं। "सिफारिश" को "निर्देश" या "जनादेश" के विपरीत देखा जाना चाहिए।"

न्यायालय ने राजेश दास, आईपीएस, बनाम तमिलनाडु राज्य मानवाधिकार आयोग (2010) पर भी भरोसा किया , जहां मद्रास उच्च न्यायालय ने राज्य मानवाधिकार आयोग की शक्ति और अधिकार क्षेत्र पर विचार किया था और कहा था कि 1993 के अधिनियम की धारा 18 के तहत, राज्य मानवाधिकार आयोग द्वारा आदेश केवल एक सिफारिश है; न कोई आदेश न कोई निर्णय। इसलिए, ऐसी सिफारिशें पार्टियों के लिए बाध्यकारी नहीं होंगी। हालांकि, सरकार आयोग की सिफारिश पर विचार करने और उस पर कार्रवाई करने के लिए बाध्य है ताकि उचित समय के भीतर भारतीय संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों की पृष्ठभूमि में मानवाधिकार अधिनियम, अंतर्राष्ट्रीय अनुबंधों और सम्मेलनों के उद्देश्यों को आगे बढ़ाया जा सके।

कोर्ट ने आगे कहा कि, "(vii) मानवाधिकार आयोग की सिफारिश पर, यदि सरकार मानवाधिकार उल्लंघन के पीड़ितों को मुआवजा देने का फैसला करती है, तो सरकार ऐसा कर सकती है। लेकिन, अगर सरकार संबंधित लोक सेवक से उक्त राशि वसूल करने का प्रस्ताव करती है तो वह ऐसा तभी कर सकता है जब उसके खिलाफ संबंधित सेवा नियमों के तहत उचित अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जाए, अगर यह सरकार को ऐसा अधिकार देता है।"

इसलिए, कई न्यायिक मिसालों पर भरोसा करते हुए, उच्च न्यायालय ने मौजूदा मामले में कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य मानवाधिकार आयोग के पास मुआवजे के भुगतान का आदेश पारित करने का अधिकार नहीं है। मुआवजे के भुगतान की सीमा तक आदेश को रद्द करते हुए कहा कि आदेश को केवल छत्तीसगढ़ मानवाधिकार आयोग की सिफारिश के रूप में माना जाएगा।

केस टाइटिलः डॉ गिरधारी लाल चंद्राकर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

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