''पढ़ाई कर रही गर्भवती महिलाओं को मातृत्व लाभ दिया जाए, इसका इनकार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है'': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 'एके तकनीकी विश्वविद्यालय' को निर्देश दिया

Update: 2021-12-20 05:29 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय (उत्तर प्रदेश के लखनऊ में स्थित) को निर्देश दिया है कि विश्वविद्यालय में विभिन्न पाठ्यक्रमों में पढ़ाई कर रही गर्भवती माताओं और नई माताओं के लिए नियम बनाएं और उनको विभिन्न मातृत्व लाभ प्रदान करें।

न्यायमूर्ति अजय भनोट की खंडपीठ ने सौम्या तिवारी नामक महिला की याचिका पर सुनवाई करने के बाद यह आदेश दिया है। कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता सौम्या तिवारी गर्भवती थी और वह विश्वविद्यालय में स्नातक (अंडरग्रेजुएट)और स्नातकोत्तर(पोस्टग्रेजुएट) छात्राओं के लिए मातृत्व अवकाश व उनसे जुड़े अन्य लाभ से संबंधित नियमों, कानून या किसी भी प्रणाली की कमी के कारण परीक्षा नहीं दे पाई।

अदालत ने इसे छात्राओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना और डॉ एपीजे अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय लखनऊ को निर्देश दिया है कि उन छात्राओं को परीक्षा देने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाए, जो जल्द मां बनने वाली हों या गर्भवती हों।

संक्षेप में मामला

यह मामला यूनिवर्सिटी के 2013-14 बैच की बी.टेक की छात्रा तिवारी से संबंधित है,जो विश्वविद्यालय के विनियमों में निर्धारित अवधि में अपना पाठ्यक्रम सफलतापूर्वक पूरा नहीं कर पाई, क्योंकि उसे एक गर्भवती माँ और एक नई माँ के रूप में मातृत्व अवकाश नहीं दिया गया था और न ही मातृत्व सहायता लाभ प्रदान किया गया था।

उसने बताया कि वह अपने नियमित शैक्षणिक कैलेंडर में (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन) दो पेपर को पास नहीं कर पाई। इसलिए वह बी.टेक के इन दो पेपरों में उपस्थित होने के लिए विस्तारित समय अवधि में एक अतिरिक्त अवसर पाने की हकदार है।

उसने नियमित शैक्षणिक कैलेंडर में तीसरे सेमेस्टर व दूसरे सेमेस्टर के एक-एक विषय की परीक्षा को छोड़कर बाकी सभी सेमेस्टर परीक्षाओं को सफलतापूर्वक पास कर लिया है और इस प्रकार, इन दो विषयों के कारण वह शैक्षणिक सत्र 2019-2020 तक पाठ्यक्रम को पूरा नहीं कर सकी है।

इस बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि हालांकि उसे सितंबर 2020 और जुलाई 2021 में उक्त बैकलॉग परीक्षा में बैठने के लिए दो अवसर दिए गए थे, परंतु वह परीक्षा नहीं दे सकीं क्योंकि वह उस समय गर्भवती थी।

दलीलें

यह प्रस्तुत किया गया कि तिवारी अपनी गर्भावस्था और प्रसवोत्तर रिकवरी से संबंधित समस्याओं के कारण इन दोनों पेपर (जो वह नियमित शैक्षणिक सेमेस्टर में पास नहीं कर सकी थी) को उत्तीर्ण करने के लिए दिए गए अंतिम अवसर में उपस्थित नहीं हो सकी।

विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उसे गर्भावस्था के दौरान और बच्चे को जन्म देने के तुरंत बाद कोई छूट और सहायता नहीं दी। प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर स्थितियों ने याचिकाकर्ता के लिए कुछ बाधाएं उत्पन्न कर दी,जिस कारण वह अन्य छात्रों के साथ समान रूप से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाई या परीक्षा नहीं दे पाई।

महत्वपूर्ण रूप से, यह भी प्रस्तुत किया गया कि उसे विभिन्न मातृत्व लाभ और राहत  पढ़ाई कर रही गर्भवती महिलाओं को मातृत्व लाभ दिया जाएका मौलिक अधिकार है और इसलिए उसे मातृत्व राहत, लाभ और समर्थन से वंचित करने में विश्वविद्यालय की कार्रवाई ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत गारंटीकृत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है और उसके अकादमिक भविष्य को हमेशा के लिए खराब कर दिया है।

न्यायालय की टिप्पणियां

शुरुआत में, न्यायालय ने कहा कि मातृत्व जीवन के लिए प्रकृति की लालसा की सबसे उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है और मातृत्व की गरिमा मानव जाति में परिष्कार की सर्वाेच्च अभिव्यक्ति है।

इसके अलावा, कोर्ट ने इस बात को रेखांकित किया कि आज विश्वविद्यालय ने जिन आदर्शों को अपनाया है या घोषित किया है,वह कल राष्ट्र द्वारा अपनाए जाने वाले मूल्य होंगे और इस प्रकार, कोर्ट ने कहा किः

''गर्भवती महिलाओं के प्रति विश्वविद्यालय की सहानुभूति में कमी छात्रों में मातृत्व अधिकारों के प्रति उदासीनता पैदा करेगी। विश्वविद्यालय को मौलिक अधिकारों का एहसास कराने, मौलिक कर्तव्यों को बढ़ावा देने और संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाकर कानून के शासन के प्रति निष्ठा दिखानी होगी।''

इसे देखते हुए, न्यायालय ने कहा कि विश्वविद्यालय को संवैधानिक अदालतों द्वारा दिए गए कानून के पूर्वाेक्त फैसलों के तहत निहित याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों को लागू करना होगा और वर्तमान मामले में, विश्वविद्यालय ने गर्भवती माताओं व नई माताओं को मातृत्व लाभ प्रदान के लिए विनियम बनाने या उचित कानूनी साधन बनाने की उपेक्षा की है।

न्यायालय ने आगे कहा कि,

''... याचिकाकर्ता के प्रजनन विकल्पों, विवाह, प्रसव और मातृत्व के अधिकारों को संवैधानिक न्यायालयों द्वारा निर्धारित कानून द्वारा मौलिक अधिकारों के रूप में स्थापित किया गया है ... गर्भावस्था और उसके बाद की बाधाओं को दूर करने और गर्भवती माताओं व नई माताओं के लिए संस्थागत सहायता प्रणाली प्रदान करके मातृत्व को सम्मानजनक बनाने की आवश्यकता कानून का एक अनिवार्य आदेश है।''

महत्वपूर्ण रूप से, न्यायालय ने यह भी कहा कि अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) सहित विभिन्न नियामक निकाय ने स्नातक छात्रों की अनदेखी करते हुए केवल स्नातकोत्तर फेलोशिप छात्रों के लिए मातृत्व के लाभ प्रदान किए हैं और ऐसा भेदभावपूर्ण व्यवहार भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 व 15(3) का उल्लंघन करेगा।

न्यायालय के समक्ष, यह भी प्रस्तुत किया गया कि अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) याचिकाकर्ता को मातृत्व लाभ देने का विरोध नहीं करती है और स्नातक के छात्रों को मातृत्व लाभ प्रदान करने के प्रावधान बनाने के लिए विश्वविद्यालय को किसी भी तरह के नियामक मानकों से रोका नहीं गया है।

गौरतलब है कि 14 दिसंबर, 2021 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में नामांकित महिला छात्रों को मातृत्व अवकाश और उपस्थिति संबंधी छूट देने के लिए उचित नियम और मानदंड तैयार करने को कहा है।

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की है कि छात्रों को मातृत्व लाभ( जिसमें गर्भावस्था की अवधि और प्रसवोत्तर के बाद ठीक होने का समय शामिल है) प्रदान करने के लिए आवश्यक विनियम/उपयुक्त कानूनी साधन तैयार करने के लिए विश्वविद्यालय का कानून के तहत दायित्व बनता है।

अंत में, विश्वविद्यालय को निर्देश दिया गया है कि विश्वविद्यालय में विभिन्न पाठ्यक्रमों में पढ़ाई कर रही गर्भवती माताओं और नई माताओं को प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर सहायता और अन्य मातृत्व लाभ प्रदान करने के लिए विनियम/अध्यादेश/उपयुक्त कानूनी साधन बनाए जाएं। मैटरनिटी बेनिफिट्स में विस्तारित समय अवधि में परीक्षा पास करने के अतिरिक्त मौके भी शामिल किए जाएं।

याचिकाकर्ता को उन परीक्षाओं में बैठने की भी अनुमति दी गई है जो वह गर्भावस्था के कारण पास करने में विफल रही है।

केस का शीर्षक - सौम्या तिवारी बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. व तीन अन्य

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