सरकार वैधानिक नियमों को प्रशासनिक आदेशों से अधिक्रमित नहीं कर सकती, लगातार निर्देशों के साथ अंतराल को भर सकती है: जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट
जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि कोई सरकार प्रशासनिक आदेशों द्वारा वैधानिक नियमों में संशोधन या अधिक्रमण नहीं कर सकती है। कोर्ट ने कहा कि जहां नियम किसी विशेष बिंदु पर चुप हैं, सरकार अंतराल को भर सकती है और नियमों को पूरक कर सकती है और निर्देश जारी कर सकती है जो पहले से बनाए गए नियमों से असंगत नहीं हो।
जस्टिस एमए चौधरी ने फैसले में कहा,
"इस अदालत की राय है कि मामले के सरकारी निर्देश/दिशानिर्देश भर्ती नियमों में शामिल प्रावधानों से भिन्न हैं। उपरोक्त नियमों के खंड 5 के अनुसार अनुसूची के रूप में अनुलग्नक-ए में, प्रयोगशाला सहायक की अपेक्षित योग्यता मैट्रिक की योग्यता के साथ सीधी भर्ती द्वारा प्रदान की गई है और एसएमएफ या किसी अन्य मान्यता प्राप्त संस्थान से चिकित्सा सहायक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में डिप्लोमा है। याचिकाकर्ता ने माना कि मैट्रिक की योग्यता थी और उसके पास इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ एंड हाइजीन दिल्ली से डिप्लोमा था।"
मामला
वर्तमान मामले में जिला ग्रामीण स्वास्थ्य समिति, शोपियां की अध्यक्षता में प्रतिवादी नं 2 ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) योजना के तहत अनुबंध के आधार पर चिकित्सा / पैरा-मेडिकल स्टाफ की नियुक्ति के लिए सितंबर, 2013 के महीने में एक विज्ञापन नोटिस जारी किया। अन्य उम्मीदवारों के बीच अधिसूचना के जवाब में याचिकाकर्ता ने लैब सहायक के पद के लिए आवेदन किया था।
उसे अनुबंध के आधार पर 10,800/- रुपये के मासिक समेकित पारिश्रमिक पर रखा गया, जिसमें किसी प्रकार के अन्य भत्ते या मौद्रिक लाभ शामिल नहीं। वह उसे सीएचसी केलर में लैब सहायक के रूप में तैनात थे।
याचिकाकर्ता का आरोप है कि कुछ समय बाद उसे इस आधार पर अपनी उपस्थिति दर्ज करने की अनुमति नहीं दी गई कि किसी ने उसके खिलाफ प्रतिवादी संख्या तीन के समक्ष शिकायत दर्ज की थी। याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी संख्या चार (प्रखंड चिकित्सा अधिकारी केलर शोपियां) की ओर से इस कार्रवाई से व्यथित होकर यह याचिका दायर की।
प्रतिवादी ने तर्क दिया कि लैब असिस्टेंट के पद के लिए, जम्मू-कश्मीर एसएमएफ से मान्यता प्राप्त संस्थान से मेडिकल लेबोरेटरी टेक्नोलॉजी में डिप्लोमा के साथ निर्धारित आवश्यक योग्यता 10 + 2 (विज्ञान) थी; और यह कि उनकी अपात्रता के बावजूद उनके चयन पर विचार किया गया और बाद में उन्हें उक्त पद पर नियुक्त किया गया, हालांकि उनके पास 10+2 (विज्ञान) की आवश्यक योग्यता नहीं थी, बल्कि 10+2 (कला) थी।
यह आगे तर्क दिया गया था कि एनआरएचएम योजना के तहत लैब सहायक के पद का विज्ञापन सीएमओ, शोपियां द्वारा उपर्युक्त योग्यता के आधार पर किया गया था और याचिकाकर्ता सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता संस्थान नई दिल्ली से डिप्लोमा के साथ 10 + 2 (कला) था; और यह कि उनकी अपात्रता के बावजूद उनके चयन पर विचार किया गया और बाद में उन्हें उक्त पद पर नियुक्त किया गया, हालांकि उनके पास 10+2 (विज्ञान) की आवश्यक योग्यता नहीं थी, बल्कि 10+2 (कला) थी।
यह प्रार्थना की गई कि प्रतिवादियों को आदेश दिया जाए कि वे याचिकाकर्ता की स्थिति को डिस्टर्ब न करें और जिस पद के लिए उसे चुना गया और नियुक्त किया गया, उसके विरुद्ध उसे अनुमति दी जाए।
परिणाम
कोर्ट ने कहा कि स्वास्थ्य और चिकित्सा (अधीनस्थ) सेवा भर्ती नियम 1992 की अनुसूची के अनुसार लैब सहायक के रूप में नियुक्ति के लिए योग्यता डिप्लोमा के साथ मैट्रिक के रूप में प्रदान की गई है। चूंकि 1992 के नियमों ने एक योग्यता निर्धारित की है जिसे नियमों में संशोधन के माध्यम से बदला जा सकता है, न कि सरकारी आदेश जारी करके जैसा कि मामले में दावा किया गया है।
कोर्ट ने तब देखा कि ऊपर उल्लिखित वैधानिक नियमों के तहत प्रदान किए गए मानदंड को सरकार द्वारा कोई आदेश जारी करके बदला नहीं जा सकता है और शैक्षणिक योग्यता, जैसा कि नियमों के तहत प्रदान किया गया है, केवल संविदा / पारिश्रमिक आधार पर भी लैब सहायक की नियुक्ति के लिए निर्धारित किया जा सकता है।
कोर्ट ने नोट किया कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले में संत राम शर्मा बनाम राजस्थान राज्य ने माना कि सरकार प्रशासनिक निर्देशों द्वारा वैधानिक नियमों में संशोधन या अधिक्रमण नहीं कर सकती है, लेकिन यदि नियम किसी विशेष बिंदु पर चुप हैं तो सरकार अंतराल को भर सकती है और नियमों को पूरक कर सकती है और निर्देश जारी कर सकती है जो पहले से बनाए गए नियमों से असंगत नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि जब पद का विज्ञापन किया गया तो इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ एंड हाइजीन नई दिल्ली को स्टेट पैरा मेडिकल काउंसिल से मान्यता मिली। अन्यथा भी, कुछ संस्थानों को कुछ अवधि के लिए मान्यता देने की सरकार की नीति को उन छात्रों और उम्मीदवारों के हितों के लिए हानिकारक कहा जा सकता है, जिन्हें उस अवधि के दौरान किसी डिप्लोमा के लिए पाठ्यक्रम से गुजरना पड़ा था।
उपरोक्त विवेचन एवं टिप्पणियों को दृष्टिगत रखते हुए दोनों याचिकाओं को स्वीकार कर लिया गया।
केस टाइटल: अर्शीद अहमद लोन बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य और अन्य।