मां से बच्चे की कस्टडी मांगने के लिए पिता बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर नहीं कर सकताः कर्नाटक हाईकोर्ट ने 50 हजार जुर्माना लगाया

Update: 2022-01-25 06:45 GMT

Karnataka High Court

यह कहते हुए कि ''वादी और बार के सदस्य बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस) जैसी असाधारण रिट के महत्व और गंभीरता को नहीं समझ पाए हैं,'' कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में एक पिता द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया है,जिसमें उसने अपनी 2 साल की बच्ची को अदालत के समक्ष पेश करने का निर्देश देने की मांग की थी। जबकि बच्ची इस समय अपनी मां की सुरक्षित कस्टडी में है।

जस्टिस बी वीरप्पा और जस्टिस एमजी उमा की खंडपीठ ने गौरव राज जैन द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए उन पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया है। खंडपीठ ने कहा कि रिट याचिका की अनुमति देने का कोई आधार नहीं बनता है और (याचिकाकर्ता) ने न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किया है। यह राशि एक माह के भीतर पुलिस कल्याण कोष में जमा करानी होगी।

बेंच ने कहा कि,

''यह सुनिश्चित करना अदालत का कर्तव्य है कि बेईमानी और कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन करने के किसी भी प्रयास को प्रभावी ढंग से रोका जाए और अदालत को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कोर्ट की प्रक्रिया के दुरुपयोग के परिणामस्वरूप किसी को भी गलत, अनधिकृत या अन्यायपूर्ण लाभ न हो। इस प्रवृत्ति को रोकने का एक तरीका यथार्थवादी या दंडात्मक जुर्माना लगाना है।''

केस की पृष्ठभूमिः

दंपति ने 2009 में शादी की थी। बच्ची प्री-मैच्योर पैदा हुई थी और इसलिए उसका विभिन्न अस्पतालों में इलाज कराना पड़ा था। यह आरोप लगाया गया है कि प्रतिवादी नंबर 3 (पत्नी) ने 05.10.2021 को याचिकाकर्ता की कस्टडी से बच्ची को ले लिया था और तब से याचिकाकर्ता को बच्ची को देखने की अनुमति नहीं दी गई है। वहीं याचिकाकर्ता के बार-बार अनुरोध करने के बावजूद भी प्रतिवादी नंबर 3 ने उसे बच्ची से मिलने नहीं दिया।

याचिकाकर्ता का तर्कः

याचिकाकर्ता के वकील अनीश जोस एंटनी ने दलील दी कि तेजस्विनी गौड़ व अन्य बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी व अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनजर बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में रिट याचिका विचारणीय है।

इसके अलावा, किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के प्रावधानों के मद्देनजर, बच्चे का सर्वाेत्तम हित सर्वाेपरि है और इसमें बच्चे के समग्र विकास के लिए उसके बुनियादी अधिकार और जरूरतें (सामाजिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से) शामिल होनी चाहिए।

तीसरी प्रतिवादी-पत्नी के उस बयान पर विश्वास नहीं किया जा सकता है,जिसमें उसने ओथ पर अपना बयान देते हुए कहा है कि चौथी प्रतिवादी-बच्ची उसकी सुरक्षित कस्टडी में है चूंकि वह उसकी प्राकृतिक मां है, क्योंकि याचिकाकर्ता को यह भी नहीं पता है कि बच्ची जीवित है या नहीं या वह मर गई है।

पत्नी ने याचिका का विरोध कियाः

प्रतिवादी नंबर 3 के लिए अधिवक्ता फैयाज सब ने तर्क दिया कि नाबालिग बच्ची अपनी मां-प्रतिवादी नंबर 3 के साथ रह रही है और बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में वर्तमान रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। यह भी कहा गया कि याचिकाकर्ता वर्तमान रिट याचिका को बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में दायर करके भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के प्रावधानों का दुरुपयोग कर रहा है।

न्यायालय का निष्कर्षः

याचिकाकर्ता द्वारा जिन मामलों का हवाला दिया गया था,उन पर विचार करने के बाद अदालत ने कहा,

''निश्चित रूप से वर्तमान मामले में, यह विवाद में नहीं है कि प्रतिवादी नंबर 4 इस समय प्रतिवादी नंबर 3 के साथ रह रही है और यह याचिकाकर्ता का आरोप नहीं है कि प्रतिवादी नंबर 3 ने प्रतिवादी नंबर 4 को कानून के किसी भी अधिकार के बिना अवैध रूप से अपनी कस्टडी में रखा हुआ है। तथ्य यह है कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी नंबर 3, दोनों पति और पत्नी हैं और उनकी बच्ची प्रतिवादी नंबर 3 की सुरक्षित कस्टडीमें है। यदि कथित कस्टडी अधिकारों के संबंध में प्रतिवादी नंबर 3 के खिलाफ कोई शिकायत है,जैसा कि वर्तमान रिट में बताया गया है तो याचिकाकर्ता फैमिली कोर्ट के समक्ष बच्ची की कस्टडी के लिए याचिका दायर कर सकता था।''

कोर्ट ने यह भी कहा,''इस प्रकार, वह बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में रिट याचिका दायर करके, भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के प्रावधानों का दुरुपयोग कर रहा है।''

इसके अलावा अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता यह दिखाने के लिए कोई दस्तावेज पेश नहीं कर पाया कि प्रतिवादी नंबर 3 (पत्नी) ने किसी भी अदालत के आदेश का उल्लंघन करते हुए प्रतिवादी नंबर 4 को अवैध रूप से कस्टडी में रखा हुआ है और न ही उसने प्रतिवादी नंबर 4 की हिरासत पाने के लिए कोई याचिका दायर की है।

इसलिए यह माना गया कि किसी भी दस्तावेज के अभाव में, बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में दायर वर्तमान रिट याचिका कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के अलावा और कुछ भी नहीं है। वही यह याचिका प्रतिवादी नंबर 3 और उसकी बेटी-प्रतिवादी नंबर 4 को परेशान करने के दुर्भावनापूर्ण इरादे से दायर की गई है, जो अस्वीकार्य है।

यह भी कहा कि ''किसी भी न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश की अनुपस्थिति में, नाबालिग बेटी की कस्टडी मां के पास होना गैरकानूनी नहीं है। यदि याचिकाकर्ता वास्तव में पीड़ित है, तो उसे उचित राहत पाने के लिए संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम के प्रावधानों को सहारा लेना होगा।''

अदालत ने कहा कि हैबियस कार्पस के लिए याचिका उस व्यक्ति के लिए दायर की जाती है जिसको रिहा करवाना हो और वह व्यक्ति ''कस्टडी में'' होना चाहिए। वह व्यक्ति किसी अधिकारी या किसी निजी व्यक्ति की हिरासत में होना चाहिए। यह ''हिरासत'' ही है ,जो बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट को बनाए रखने के लिए कार्रवाई का कारण देती है,भले ही वह हिरासत वैध हो या अवैध हो।

कोर्ट ने यह भी माना कि रिट याचिका की सारी दलीलों को समग्र रूप से पढ़ने से किसी भी तरह की हिरासत या डिटेंशन का खुलासा नहीं होता है,दूसरे शब्दों में, अवैध हिरासत का कोई आरोप नहीं है, इसलिए रिट याचिका खारिज करने योग्य है।

यह मानते हुए कि वर्तमान याचिका अदालत के साथ चालाकी करने और पुलिस को गुमराह करने का एक प्रयास करने के अलावा कुछ नहीं है, अदालत ने कहा कि,

''यह हमारा अनुभव है कि हाल के दिनों में इस प्रकार की फर्जी रिट याचिकाएं काफी दायर की जा रही हैं। चूंकि यह एक बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट याचिका है और इसमें एक नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता शामिल है, इसलिए इस न्यायालय को संवैधानिक न्यायालय होने के नाते उन निर्दाेष लोगों का बचाव करना होता है। हम ऐसे मामलों को सर्वाेच्च प्राथमिकता दे रहे हैं। हम पुलिस पर जांच करने और इन व्यक्तियों को सुरक्षित करने और रिहा करने का दबाव डाल रहे हैं। लेकिन हम अपने अनुभव से पाते हैं कि ज्यादातर मामलों में, पक्षकारों के पास इस न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का कोई पर्याप्त कारण नहीं होता है।''

केस का शीर्षक- गौरव राज जैन बनाम कर्नाटक राज्य

केस नंबर- रिट याचिका (एचसी) नंबर 109/2021

उद्धरण- 2022 लाइव लॉ (केएआर) 28

आदेश की तिथि-4 जनवरी, 2022

प्रतिनिधित्व- याचिकाकर्ता के लिए अधिवक्ता अनीश जोस एंटनी,आर-3 व आर-4 के लिए एडवोकेट फैयाज़ सब, आर-1 व आर-2 के लिए एडवोकेट थेजेश पी

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