'यौन उत्पीड़न मामले में पीड़िता की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए': कलकत्ता उच्च न्यायालय ने प्रोफेसर के खिलाफ कार्यवाही रोकी
कलकत्ता हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि एक महिला ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाने से मना कर दिया है और उसने आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) के सदस्यों को यह लिखित रूप में दिया है तो उसके निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए। मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता बर्दवान विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है। उस पर विश्वविद्यालय की एक छात्रा के कथित यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था, जिसके बाद उस पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने हाईकोर्ट में उक्त आदेश को चुनौती दी थी।
जस्टिस अमृता सिन्हा ने कहा कि कथित पीड़िता द्वारा संबंधित अधिकारियों को यौन उत्पीड़न की कोई औपचारिक शिकायत नहीं की गई थी। उन्होंने कहा, "छात्रा की ओर से इस बात का कोई सबूत नहीं है कि वह मामले को आगे बढ़ाना चाहती है। इसके विपरीत, वह पूरी घटना को दफनाना पसंद करती है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि मामले को निपटाने के दौरान महिला की इच्छा और इरादे को ध्यान में नहीं रखा जाएगा।"
छात्रा ने आईसीसी के सदस्यों को एक पत्र लिखकर स्पष्ट किया था कि वह यौन उत्पीड़न की कथित घटना के बारे में कोई औपचारिक या लिखित शिकायत नहीं करना चाहती है। उसने अपने ईमेल में यह भी संकेत दिया था कि उसके माता-पिता भी कथित रूप से हुई घटना के संबंध में औपचारिक शिकायत दर्ज करने के इच्छुक नहीं थे।
आरोप लगाने से मना करने के उसके इनकार का संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने कहा, "अगर छात्रा वास्तव में याचिकाकर्ता की कार्रवाई से आहत थी तो उसे इसका विरोध करने के लिए उचित समय पर कदम उठाना चाहिए था। इसके विपरीत, ऐसा प्रतीत होता है कि महिला का कभी भी अपने अधिकारों के लिए लड़ने का कोई इरादा नहीं था। कानून एक पीड़ित महिला को व्यक्तिगत रूप से या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्तियों के माध्यम से शिकायत दर्ज करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और सुविधा प्रदान करता है। वह लगभग दो वर्षों तक इस मामले पर शांत रही और उसके बाद कथित घटना को तीसरे पक्ष द्वारा सामने लाया गया, जिन्होंने न तो घटना के बारे में व्यक्तिगत जानकारी है और न ही घटना के गवाह हैं। ऑडियो क्लिपिंग पर भरोसा रखा गया था, जिसकी सत्यता का परीक्षण नहीं किया गया है। हो सकता है कि महिला को धमकी दी गई हो या मामले में आगे नहीं बढ़ने के लिए धमकाया गया हो। संभव है कि छात्र को सलाह नहीं दी गई और ठीक से मार्गदर्शन नहीं किया गया।लेकिन जहां महिला खुद लिखित में यह कहती है कि न तो वह और न ही उसके माता-पिता इस मामले को आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो महिला की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए।"
वर्तमान मामले में 9 सितंबर, 2020 के एक आदेश द्वारा विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने याचिकाकर्ता को सूचित किया था कि उसे 8 सितंबर, 2020 को कार्यकारी परिषद के प्रस्ताव के अनुसार सभी परीक्षाओं और शैक्षणिक गतिविधियों से वंचित कर दिया गया है। इसके बाद, याचिकाकर्ता ने डिबारमेंट के आदेश को वापस लेने के लिए विश्वविद्यालय के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया।
रजिस्ट्रार ने 26 सितंबर, 2020 के एक पत्र के माध्यम से याचिकाकर्ता को सूचित किया था कि कार्यकारी परिषद ने डिबारमेंट के आदेश को वापस लेने से इनकार कर दिया था। इससे व्यथित होकर, याचिकाकर्ता ने मौजूदा याचिका दायर कर डिबारमेंट के आदेश को वापस लेने की मांग की थी और संबंधित प्राधिकारी को जांच के साथ आगे बढ़ने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा के आदेश की प्रार्थना की थी।
याचिकाकर्ता ने अदालत के समक्ष तर्क दिया था कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के संदर्भ में उसके खिलाफ छात्रा द्वारा कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं की गई थी और इस प्रकार उसके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही शुरुआत से गलत है। उसने आगे तर्क दिया कि कथित पीड़िता ने वर्ष 2018 में विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी और यौन उत्पीड़न के आरोप वर्ष 2020 में सामने आए थे- अधिनियम के तहत निर्धारित सीमा अवधि के बाद।
प्रतिद्वंद्वी प्रस्तुतियों के अवलोकन के बाद कोर्ट ने कहा कि आईसीसी की रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिनियम के तहत कार्यवाही विभिन्न संगठनों और छात्र संघ द्वारा प्रस्तुत कुछ ईमेल और ऑडियो क्लिप पर भरोसा करके शुरू की गई थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बीयू और प्रमुख, अंग्रेजी और संस्कृति अध्ययन विभाग द्वारा आईसीसी को ईमेल भेजे गए थे। इसके अलावा, बर्धमान विश्वविद्यालय छात्र संसद द्वारा आईसीसी को एक ऑडिट क्लिप प्रस्तुत की गई थी।
इन दस्तावेजों की सत्यता पर चिंता व्यक्त करते हुए कोर्ट ने कहा, "छात्रा की ओर से कोई शिकायत नहीं की गई है। उपरोक्त दस्तावेजों यानी ईमेल और ऑडियो क्लिप की कभी भी जांच नहीं की गई और न ही इसकी सत्यता की जांच की गई।"
अदालत ने अधिनियम की धारा 9 का भी उल्लेख किया जिसमें कहा गया है कि पीड़ित महिला के लिए कथित घटना की तारीख से 3 महीने की अवधि के भीतर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए लिखित रूप में शिकायत करना अनिवार्य है और उसके बाद ही आईसीसी का गठन किया जा सकता है। हालांकि, न्यायालय के विवेक के अनुसार समय अवधि को 3 महीने की और अवधि के लिए बढ़ाया जा सकता है। कोर्ट ने आगे कहा कि अगर पीड़ित महिला किसी भी प्रकार की दुर्बलता के कारण शिकायत करने में असमर्थ है, तो कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत दर्ज करा सकता है।
अधिनियम के तहत निर्धारित सीमा अवधि के महत्व पर जोर देते हुए, अदालत ने कहा कि ऐसी समय सीमा महत्वपूर्ण है ताकि ' लोगों को परेशान करने की दृष्टि से उनके खिलाफ लगाए जा रहे पुराने आरोपों को रोका जा सके। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करने में भी मदद करता है कि सबूतों से छेड़छाड़ या गवाहों को धमकाना न हो।
कोर्ट ने कहा्, "छात्रा वर्ष 2018 में विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण हुई है, लेकिन अजीब कारणों से, उक्त अधिनियम और संबंधित नियमों में निर्दिष्ट समय के भीतर छात्रा या उसकी ओर से किसी भी सक्षम व्यक्ति द्वारा कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई थी। चूक के लगभग दो वर्षों बाद यह घटना सामने आई, वह भी किसी संगठन/छात्र संघ के इशारे पर। मामले को आगे बढ़ाने से पहले न तो छात्र संघ और न ही उसके किसी सदस्य ने संबंधित छात्रा से सहमति प्राप्त की है। शिकायतकर्ता को कथित घटना के बारे में कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है।ऐसा प्रतीत होता है कि, उन कारणों से जो उन्हें सबसे अच्छी तरह से ज्ञात थे, यूनियन अतिरिक्त सतर्क हो गया और मामले को फिर से खोल दिया, जबकि व्यावहारिक रूप से कथित घटना की प्राकृतिक मौत हो चुकी है। इससे न केवल याचिकाकर्ता बल्कि विश्वविद्यालय और संबंधित छात्र की भी बदनामी हुई है।"
जस्टिस सिन्हा ने आगे कहा कि विश्वविद्यालय ने पूरी तरह से आईसीसी की सिफारिश पर भरोसा करके याचिकाकर्ता के खिलाफ 'बिना दिमाग के' अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की थी। अदालत ने टिप्पणी की, "विश्वविद्यालय को संबंधित कानून की जांच करके एक स्वतंत्र राय बनानी चाहिए थी कि क्या ऐसी स्थिति में कार्यवाही शुरू करने की अनुमति है।"
यह आगे देखा गया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोपों के 'आपराधिक अर्थ' हैं और इस प्रकार दस्तावेजों से आश्वस्त और संतुष्ट हुए बिना, विश्वविद्यालय को याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कार्यवाही शुरू नहीं करनी चाहिए थी। न्यायालय ने कहा कि आज की महिलाओं को कानून का लाभ उठाना चाहिए और तदनुसार यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अपराधियों को विधिवत दंडित किया जाए। विश्वविद्यालय के निष्कासन आदेश को रद्द करते हुए याचिका का निपटारा किया गया, हालांकि विश्वविद्यालय को संबंधित सेवा नियमों के तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्यवाही करने की अनुमति दी गई।
केस शीर्षक: अंगशुमान कार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य