हैबियस कॉर्पस रिट केवल तभी सुनवाई योग्य होगी, जब नाबालिग को किसी ऐसे व्यक्ति ने कस्टडी में रखा हो,जो उसकी कानूनी कस्टडी का हकदार नहींः इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि बच्चों की कस्टडी के मामलों में हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) रिट को अनुमति देने में हाईकोर्ट की शक्ति का उपयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता हैै,जहां नाबालिग को ऐसे व्यक्ति ने अपनी कस्टडी में रखा हो,जो उसकी कानूनी कस्टडी का हकदार नहीं है।
जस्टिस राज बीर सिंह की खंडपीठ ने यह टिप्पणी करते हुए 5 साल की बच्ची की मां की तरफ से दायर एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज कर दी। बच्ची की मां ने उसके पिता (उसके पति) से नाबालिग की कस्टडी दिलाए जाने की मांग की थी। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में उचित उपाय हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956) या संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890(Guardians and Wards Act, 1890) के तहत उपलब्ध हैं।
संक्षेप में मामला
कथित तौर पर, याचिकाकर्ता नंबर 2 (बच्ची की मां) को उसके पति और अन्य निजी प्रतिवादियों ने काफी परेशान किया और सितंबर 2020 में उसे वैवाहिक घर से निकाल दिया था। साथ ही उसकी नाबालिग लड़की (कार्पस) को छीन कर निजी प्रतिवादियों ने अपने पास रख लिया।
इसके बाद, उसने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कार्पस) के साथ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उसने कहा कि प्रतिवादी नंबर 4 (उसका पति) नाबालिग के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है और वह प्रतिवादियों की अवैध कस्टडी में है, इसलिए उसने अदालत के समक्ष नाबालिग को पेश करने की मांग की।
कोर्ट का आदेश
सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का जिक्र करते हुए कोर्ट ने शुरुआत में कहा कि बच्चों की कस्टडी के उन मामलों में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को बरकरार रखा जा सकता है, जहां यह पाता जाता है कि माता-पिता या अन्य लोगों ने बच्चे को गैरकानूनी तरीके से और कानून के किसी भी अधिकार के बिना अपनी कस्टडी में रखा हुआ है।
हालांकि, मामले के तथ्यों के संबंध में अदालत ने कहा कि निजी प्रतिवादी कोई और नहीं बल्कि नाबालिग बच्ची के दादा-दादी व जैविक पिता हैं और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि निजी प्रतिवादियों के पास बच्ची की कस्टडी गैरकानूनी है।
इसके अलावा इस बात पर जोर देते हुए कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की कार्यवाही का उपयोग किसी बच्चे की कस्टडी के सवाल की जांच के लिए नहीं किया जा सकता है, न्यायालय ने कहा कि,
''नाबालिग बच्चे की कस्टडी के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण के रिट की मांग करने वाले एक आवेदन में, जैसा कि यहां मामला है, अदालत को मुख्य तौर पर यह पता लगाना होगा कि क्या बच्चे की कस्टडी को गैरकानूनी और अवैध कहा जा सकता है और क्या उसका/ उसके कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान कस्टडी में परिवर्तन करते हुए बच्चे को किसी और की देखभाल और कस्टडी में सौंप दिया जाना चाहिए?''
यह देखते हुए कि हिंदू विवाह अधिनियम(एचएमए) की धारा 13-बी के तहत तलाक के लिए अदालत में पहले ही एक याचिका दायर की जा चुकी है, अदालत ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत कार्यवाही की लंबितता के दौरान बच्चों की कस्टडी से संबंधित मामला इसकी धारा 26 के तहत निहित प्रावधानों के अनुसार शासित होता है।
कोर्ट ने कहा कि,
''हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26 बच्चों की कस्टडी का प्रावधान करती है और घोषणा करती है कि उक्त अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में, न्यायालय बच्चों की कस्टडी,नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में समय-समय पर ऐसे अंतरिम आदेश (जहां भी संभव हो,ऐसे आदेश बच्चों की इच्छा के अनुरूप दिए जाएं)दे सकता है, जो कोर्ट को न्यायसंगत व उचित लगते हैं।''
अंत में, याचिका को खारिज करते हुए, न्यायालय ने कहा कि एक रिट अदालत में, जहां हलफनामे के आधार पर अधिकारों का निर्धारण किया जाता है और ऐसे मामले में जहां कोर्ट का यह विचार है कि एक विस्तृत जांच की आवश्यकता होगी, वह अपने असाधारण क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से इनकार करते हुए मामले के पक्षकारों को उपयुक्त मंच से संपर्क करने का निर्देश दे सकता है।
केस का शीर्षक-श्रद्धा कन्नौजिया (नाबालिग) व एक अन्य बनाम यू.पी. व 5 अन्य
केस उद्धरण- 2022 लाइव लॉ (एबी) 28
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