मामले, जहां आरोप पत्र दायर होने के बाद भी अग्रिम जमानत दी जा सकती हैः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिशा निर्देश जारी किए

Update: 2021-04-06 15:21 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को को कहा कि एक अभियुक्त को केवल इस आधार पर अग्रिम जमानत न देना कि जांच अधिकारी ने आरोप-पत्र दायर कर दिया है या न्यायालय ने उसके खिलाफ, धारा 204 सीआरपीसी के तहत संज्ञान लिया है, बिना उसकी प्रथम दृष्टया प्राम‌णिकता पर विचार किए, "न्याय के बड़े हित में नहीं होगा।"

जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने उक्त अवलोकन करते हुए विभिन्न "उपयुक्त मामलों" को प्रतिपादित किया, जहां चार्जशीट और न्यायालय के संज्ञान के बाद भी, गिरफ्तारी की आशंका के मद्देनजर अभियुक्त को अग्रिम जमानत दी जा सकती है या नहीं दी जा सकती है।

पीठ ने उक्त अवलोकन एक अभ‌ियुक्त शिवम की अग्र‌िम याचिका पर सुनवाई करते हुए किया। शिवम के खिलाफ धारा 323, 504, 506 आईपीसी, साथ में पढ़ें, धारा 3 (1)(r)(s), अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज किया गया था।

उक्त प्राथमिकी एक पत्रकार ने दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि आरोपी ने अन्य सह-आरोपियों के साथ मिलकर उसे गाली दी और उसे "डेढ़ चमार" कहा। उसने उसे मां और बहन के नाम पर गाली भी दी। यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने उसे धमकी भी दी कि अगर वह पत्रकारिता में लिप्त रहेगा, तो उसे मार दिया जाएगा।

आवेदक का कहना था कि उसके खिलाफ सबूत जुटाए बिना आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया था। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि न्यायालय ने 20 नवंबर 2020 को भी संज्ञान लिया था।

यह भी प्रस्तुत किया गया था कि सार्वजनिक रूप से सूचनादाता को डराने या अपमान करने बारे में उसकी कोई भूमिका नहीं तय की गई थी और इसलिए, आवेदक पर एससी/एसटी एक्‍ट की धारा 3 (1) (r)(s) के तहत दर्ज अपराध बिना किसी आधार के है।

कोर्ट ने चार्जशीट की जांच और कानूनी प्रावधानों पर विचार करते हुए कहा कि "उपयुक्त मामले", जिसमें अग्रिम जमानत दी जा सकती है, वे मामले हैं, "जहां जांच अधिकारी की ओर से प्रस्तुत चार्जशीट और कोर्ट द्वारा धारा 204 सीआरपीसी के तहत संज्ञान लेने के बाद जारी की गई प्रक्रिया, धारा 482 सीआरपीसी के तहत हाईकोर्ट द्वारा अधिकार क्षेत्र के अभ्यास के जर‌िए खारिज की जा सकती है।"

वो उपयुक्त मामले, जहां अदालत द्वारा लेने और चार्जशीट दायर होने के बाद अग्र‌िम जमानत दी जा सकती है-

1. जहां जांच अधिकारी ने आरोप पत्र प्रस्तुत किया है, लेकिन यह तर्क दिया जाता है कि दर्ज गवाहों के बयान सत्य नहीं हैं। शिकायत के मामले के समर्थन में जांच अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए गवाहों के बयानों की सत्यता या अन्यथा, ट्रायल के दौरान परीक्षण किया जाना है और अग्रिम जमानत आवेदन के विचार के स्तर पर नहीं।

2. जहां एफआईआर/ शिकायत में कथित अपराधों का खुलासा होता है और जांच अधिकारी ने ऐसी सामग्री जुटाई है, जो बिना किसी विरोधाभास के, आरोपी पक्ष द्वारा दिए गए बयानों/ सामग्री पर विचार करने के बाद भी समर्थन करती है।

3. जहां दोनों पक्षों द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ क्रॉस केस दर्ज किए गए हों और आरोपित अपराध पूरी तरह से साबित हो और चार्जशीट पेश की गई हो। चूंकि घटना, जैसाकि आरोप है, पाया गया है कि हुई है और दोनों पक्ष इस तरह की घटना को स्वीकार करते हैं, इसलिए, इस घटना के बारे में कोई संदेह नहीं है।

4. जहां अभियोजन स्वीकृति के लिए कानूनी औपचारिकताओं के अनुपालन के बाद चार्जशीट प्रस्तुत की गई है और सक्षम अधिकारी द्वारा एफआईआर / शिकायत दर्ज की गई है और समर्थ में साक्ष्य है।

5. जहां प्रतिवाद का आरोप लगाया गया है कि पहले की घटना विवाद में घटी घटना से बहुत पहले हुई थी और दूसरी घटना के साथ समय के संदर्भ में दूसरी घटना की निकटता नहीं है।

6. जहां एक नागरिक उपाय मौजूद है, लेकिन आरोपों के एक ही सेट पर, सिविल गलती और आपराधिक गलती दोनों किए गए हैं और केवल आपराधिक गलती के संबंध में चार्जशीट प्रस्तुत की गई है।

7. जहां जांच अधिकारी ने जांच के दौरान अपने बयान को दर्ज करने के लिए आरोपी से संपर्क किया है और उसने अपने बचाव में जांच अधिकारी को बयान देने से इनकार कर दिया है और उसके खिलाफ आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया है।

8. जहां अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष आरोप-पत्र को असफल रूप से चुनौती दी है या अभियुक्त के विरुद्ध प्रस्तुत आरोप-पत्र के संबंध में इस न्यायालय के समक्ष कोई कार्यवाही लंबित है।

9. जहां कथित रूप से अपराध गंभीर है, अभियुक्त आपराधिक प्रवृत्ति का है, फरार होने की प्रवृत्ति है, उसे पहले दी गई जमानत की शर्तों का उल्लंघन किया है, आदि।

10. जहां पुलिस रिपोर्ट पर या किसी शिकायत में न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के बाद अभियुक्त अदालत के सामने पेश होने से बच रहा है और उसके खिलाफ बार-बार प्रक्रियाएं जारी की गई हैं और अभियुक्तों द्वारा कोर्ट के सामने उसकी गैर मौजूदगी का कोई वैध स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।

जांच और चार्जशीट क्रिमिनल ट्रायल की उत्पत्ति का निर्माण करती हे

न्यायालय यह देखने के लिए भी आगे बढ़ा कि जांच और चार्जशीट एक आपराधिक मुकदमे की उत्पत्ति को आधार बनाते हैं। न्यायालय ने ऐसा माना कि:

"जांच में वे सभी प्रक्रियाएं शामिल हैं जो सबूत जुटाने के लिए पुलिस अधिकारी द्वारा कोड के तहत की जाती हैं। एफआईआर दर्ज करने पर पुलिस मामले की तथ्यों के उलट होने पर जांच की लाइन तय करती है कि क्या परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं या चश्मदीद गवाह।

परिस्‍थ‌ितिजन्य साक्ष्य वह चीज है जो परिस्थितियों की एक श्रृंखला है, जो अपराध को जन्म देती है जैसे कि पिछले दुश्मनी, धमकी आदि । यह मूल रूप से अपराध के लिए विभिन्न परिस्थितियों का जुड़ाव है। दूसरी ओर, चश्मदीद गवाह वे हैं जिनके सामने घटना हुई है।"

यह आरोप लगाते हुए कि एक आरोपपत्र किसी अपराध के आरोप को साबित करने के लिए जांच या कानून प्रवर्तन एजेंसी द्वारा तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट है, न्यायालय ने देखा कि ऐसी रिपोर्ट सभी कठोर रिकॉर्ड को दर्ज करती है....। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 173, पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट प्रदान करती है।"

इस विषय पर कई निर्णयों पर भरोसा करते हुए, न्यायालय ने कहा, "माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में माना है कि निष्पक्ष जांच, आरोप-पत्र दाखिल करने से पहले, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है। इसलिए इसे निष्पक्ष, पारदर्शी और विवेकपूर्ण होना चाहिए। एक दागी और पक्षपाती जांच के बाद एक चार्जशीट दायर की जाती है जो बिना किसी जांच के आधार पर दायर की जाती है और इसलिए, इस तरह की जांच के बाद दायर चार्जशीट कानूनी और कानून के अनुसार नहीं हो सकती है। "

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