सबूत का बोझ कभी नहीं बदलता, जबकि सबूत के मूल्यांकन में 'सबूत का दायित्व' लगातार बदलता रहता है: त्रिपुरा हाईकोर्ट

Update: 2022-08-16 06:26 GMT

त्रिपुरा हाईकोर्ट ने हाल ही में 'सबूत के बोझ' (Proof of burden) और 'सबूत के दायित्व' (Onus of proof) के बीच अंतर समझाया। जस्टिस टी अमरनाथ गौड़ ने कहा कि सबूत का बोझ एक ऐसे व्यक्ति पर होता है, जिसे किसी विशेष तथ्य को साबित करना होता है और यह कभी नहीं बदलता है।

पीठ ने कहा कि सबूतों के मूल्यांकन में 'सबूत का दायित्व' बदल जाता है और इस तरह के दाय‌ित्व का स्थानांतरण एक सतत प्रक्रिया है।

कोर्ट ने यह टिप्पणी संपत्ति विवाद के संबंध में दायर दूसरी अपील में की है। मूल वादी, यहां प्रतिवादी ने, क्रमशः आवंटन आदेश और खातियानों को प्रस्तुत करके वाद भूमि पर अपना हक और कब्जा साबित करने की मांग की थी।

इस प्रकार, न्यायालय का विचार था कि प्रतिवादी ने वाद भूमि पर अपने स्वामित्व और पिछले कब्जे को साबित करने के अपने बोझ का निर्वहन किया था। हालांकि, यह जोड़ा गया कि अपीलकर्ता-प्रतिवादी सूट भूमि पर वादी के स्वामित्व और पिछले कब्जे के सबूत का खंडन करने में विफल रहा।

कोर्ट ने कहा,

"इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि विद्वान ट्रायल कोर्ट ने वाद पर वादी के अधिकारों, हक और हित की घोषणा करने वाले आक्षेपित निर्णय और डिक्री को पारित करने में बहुत न्यायसंगत रहा और प्रतिवादी से उसी के कब्जे की रिकवरी की, जैसा कि मामले में प्रतिवादी ने प्रतिकूल कब्जे का दावा नहीं किया था ...

स्वामित्व के आधार पर कब्जे के लिए एक मुकदमे में एक बार वादी उच्च स्तर की संभावना पैदा करने में सक्षम हो जाता है ताकि प्रतिवादी पर दायित्व को स्थानांतरित किया जा सके तो यह प्रतिवादी पर है कि वह अपने दायित्व का निर्वहन करे और उसकी अनुपस्थिति में वादी पर मौजूद सबूत के बोझ को डिस्चार्ज्ड माना जाएगा....

कोर्ट के समक्ष एक अन्य मुद्दा यह था कि क्या त्रिपुरा भू-राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 की धारा 188 के जर‌िए मुकदमा प्रतिबंधित किया गया था। प्रावधान इस अधिनियम के तहत उत्पन्न होने वाले किसी भी मामले के संबंध में दीवानी अदालतों के अधिकार क्षेत्र को बाहर करता है।

अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में, वादी ने अपने मालिकाना हक की घोषणा और वाद की जमीन पर कब्जा वापस लेने के लिए अपना मुकदमा पेश किया था। मांगी गई राहत टीएलआर और एलआर अधिनियम के तहत अंततः प्रकाशित अधिकारों के रिकॉर्ड में किसी भी प्रविष्टि के परिवर्तन से संबंधित नहीं थी और इसका भू-राजस्व के निपटान या अधिकारों के रिकॉर्ड की तैयारी या उसकी किसी प्रविष्टि से कोई लेना-देना नहीं था।

इस प्रकार, कोर्ट ने कहा कि मुकदमा टीएलआर और एलआर अधिनियम की धारा 188 या सीपीसी की धारा-9 द्वारा प्रतिबंधित नहीं था।

मामले के गुण-दोष पर आते हुए, न्यायालय ने कहा कि वादी/प्रतिवादी सरकार द्वारा उन्हें दिए गए एक वैध अधिकार के रूप में भूमि के कब्जे में थे और कानून के अनुसार संबंधित प्राधिकारी द्वारा इसे रद्द किए बिना, उक्त तीसरे पक्ष को भूमि आवंटित नहीं की जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामले में अपीलकर्ता एक तीसरा पक्ष है।

उपरोक्‍त विवेचनाओं को ध्‍यान में रखते हुए अपील निरस्‍त की गई।

केस टाइटल: मोहम्मद अकबर उल्लाह बनाम मोहम्मद रहमत उल्लाह और अन्य।


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