"देर से दिखाया गया पछतावा किसी काम का नहीं": बॉम्बे हाईकोर्ट ने मां को मुलाकात के अधिकारों से वंचित करने के कारण पिता के बचाव को रद्द करने के आदेश को बरकरार रखा
बॉम्बे हाईकोर्ट ने अदालत के आदेशों के बावजूद अपनी पत्नी को अपने बच्चे तक पहुंच से वंचित करने के पिता के आचरण के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए हाल ही में एक वैवाहिक विवाद में उसके बचाव को रद्द करने के जिला अदालत के आदेश को बरकरार रखा।
पिता यह कहकर मुलाकात के आदेश का उल्लंघन कर रहा था कि बच्चा अपनी मां से नहीं मिलना चाहता। उन्होंने हाईकोर्ट के समक्ष अपने बचाव को खारिज करने के आदेश को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की।
औरंगाबाद पीठ के जस्टिस संदीप वी. मार्ने द्वारा खुली अदालत में यह फैसला सुनाए जाने के बाद याचिकाकर्ता के वकील ने एक अंडरटेकिंग दी कि याचिकाकर्ता मां को मिलने का अधिकार देने वाले आदेश का पालन करेगा। हालांकि, अदालत ने कहा कि इस तरह का अंडरटेकिंग अप्रासंगिक था।
अदालत ने कहा,
"याचिकाकर्ता को अपने आचरण के संबंध में जिला न्यायालय के समक्ष पछतावा दिखाना चाहिए था और कम से कम उसके बचाव के बाद अपने व्यवहार में सुधार करना चाहिए था ... इस तरह के अंडरटेकिंग देर से देना अप्रासंगिक है।"
जिला अदालत ने अपने आदेश में प्रत्येक रविवार को दो घंटे के लिए मां को मिलने का अधिकार दिया। आदेश में निर्देश दिया गया कि मां से मुलाकात के दरमियान पिता अपने बेटे के पास न हो या उसे दिखाई न दे ताकि बेटा भयभीत न हो। इस आदेश का बार-बार उल्लंघन करने पर मां ने पिता का बचाव रद्द करने के लिए याचिका दायर की।
जिला अदालत ने सीपीसी के आदेश 39 नियम 11 के तहत याचिकाकर्ता के बचाव पर रोक लगा दी। कोर्ट ने रिकॉर्ड किया हर मुलाकात के दरमियान पिता अपने बेटे के करीब रहा है। वह मां को अपने बेटे को अपने पास नहीं ले जाने देता। इसलिए, उन्होंने जानबूझकर जिला अदालत के आदेश की अवहेलना की है। यह भी दर्ज किया गया कि उसने जिला अदालत में दुर्व्यवहार किया था।
पिता ने उस आदेश को वापस लेने और अपने बचाव की बहाली के लिए आवेदन किया था जिसे जिला अदालत ने खारिज कर दिया था। इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
अदालत ने कहा कि जब जिला न्यायालय ने पिता के बचाव को खारिज कर दिया तो पिता की ओर से मां के मुलकात के अधिकारों का 11 बार उल्लंघन हुआ। अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि पिता ने मुलाकात के दरमियान अपने बच्चे को रोका था।
पिता ने इस मामले को काउंसलर के पास भेजने का अनुरोध किया था और जिला अदालत ने उस अनुरोध को खारिज कर दिया था। अदालत ने कहा कि पिता ने मुलाकात के अधिकार देने के आदेश को चुनौती नहीं दी, इसलिए मामले को काउंसलर के पास भेजकर उस आदेश पर दोबारा गौर करने का सवाल ही नहीं उठता।
कोर्ट ने कहा कि मुलाकात के अधिकार देने वाले आदेश को अंतिम रूप दिया जा चुका है। इसलिए, याचिकाकर्ता बच्चे को अपनी मां से मिलने के लिए अनिच्छुक होने के बहाने मां को मिलने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता था।
जबकि बचाव को रद्द करने का आदेश अदालतों द्वारा टाला जाने वाला एक कठोर उपाय है, हाईकोर्ट ने कहा, वर्तमान मामले में जिला अदालत ने दर्ज किया है कि याचिकाकर्ता ने जिला अदालत के आदेश की जानबूझकर अवज्ञा की है।
यह नोट किया गया कि याचिकाकर्ता के बचाव को खारिज करने के आदेश के बाद भी उसने मां को मुलाक़ात का अधिकार देने में चूक की।
अदालत ने आगे कहा कि जिला अदालत के समक्ष याचिकाकर्ता का आचरण उसकी सत्यता की कमी को दर्शाता है और देखा कि याचिकाकर्ता अप्रत्यक्ष तरीके से मुलाकात के अधिकार देने के आदेश को विफल करने की कोशिश कर रहा है।
इसलिए, अदालत ने याचिकाकर्ता के बचाव को खारिज करने वाले जिला अदालत के आदेश में कोई त्रुटि नहीं पाई।
केस नंबर: Writ Petition No. 10758 of 2022
केस टाइटलः शार्दुल शंप्रसाद देव बनाम मंजिरी शार्दुल देव