यदि पूर्वाग्रह से कार्य न किया गया तो कारण बताओ नोटिस 'अनावश्यक औपचारिकता': आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

Update: 2022-07-29 05:18 GMT

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने लीज टर्मिनेशन का विरोध करने वाली रिट याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता को कारण बताओ नोटिस जारी करने के पीछे पूर्वाग्रह नहीं है।

जस्टिस आर. रघुनंदन राव ने यूपी राज्य बनाम सुधीर कुमार सिंह (2020) में निर्धारित निम्नलिखित सिद्धांत पर भरोसा किया:

"न्यायपालिका के हाथों में प्राकृतिक न्याय लचीला है, जो कई मामलों में अन्याय को दूर करने के लिए उपयुक्त है। ऑडी अल्टरम पार्टेम नियम का उल्लंघन अपने आप में इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता कि पूर्वाग्रह का कार्य बनता है।"

तथ्यात्मक विश्लेषण

याचिकाकर्ता कंपनी के पास 6.17 हेक्टेयर भूमि से अधिक काली आकाशगंगा ग्रेनाइट उत्खनन के लिए खनन पट्टा था। पट्टा 20 साल की अवधि के लिए था और 2025 में समाप्त हो जाएगा। संयुक्त निदेशक खान ने याचिकाकर्ता को कारण बताने के लिए नोटिस जारी किया कि पट्टा रद्द क्यों नहीं किया जाना चाहिए। तत्पश्चात, खान एवं भूविज्ञान निदेशक ने विभिन्न उल्लंघनों के आधार पर याचिकाकर्ता का पट्टा रद्द कर दिया गया। उक्त आदेश से व्यथित होकर पुनर्विचार याचिका दायर की गई, जिसे खारिज कर दिया गया।

दोनों पक्षों की दलील

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि आक्षेपित पुनर्विचार आदेश ने याचिकाकर्ता के प्राथमिक तर्क का जवाब नहीं दिया गया है कि याचिकाकर्ता को कोई कारण बताओ नोटिस नहीं मिला। साथ ही खान निदेशक का आदेश बिना पट्टे को रद्द किए पारित किया गया। याचिकाकर्ता को सुनवाई का अवसर न देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करना है।

बताया गया कि विभाग के रिकॉर्ड में नया पता उपलब्ध होने पर भी नोटिस पुराने पते पर भेजा गया।

प्रतिवादी के वकील ने प्रस्तुत किया कि स्वीकार किए गए तथ्यों पर याचिकाकर्ता ने वर्ष 2005 से 2018 में पट्टा समाप्त होने तक कोई खनन कार्य नहीं किया। परिस्थितियों में कारण बताओ नोटिस जारी करना "अनावश्यक औपचारिकता" है। याचिकाकर्ता के पास इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि 13 वर्षों से कोई उत्खनन कार्य क्यों नहीं किया गया और पट्टा क्षेत्र में उपलब्ध गौण खनिज के दोहन को अवरुद्ध करने वाले याचिकाकर्ता के कारण राज्य को राजस्व की हानि हो रही है।

कोर्ट का फैसला

जस्टिस आर रघुनंदन राव ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाम मंसूर अली खान (2007) पर ध्यान दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन ही पर्याप्त नहीं है जब तक कि इस तरह के उल्लंघन के कारण होने वाले पूर्वाग्रह को भी न्यायालय के समक्ष प्रदर्शित नहीं किया जाता।

सुधीर कुमार सिंह (सुप्रा) में, सुप्रीम कोर्ट ने निम्नानुसार देखा:

प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन की शिकायत करने वाला व्यक्ति के लिए पूर्वाग्रह से कार्य नहीं किया, जहां ऐसा व्यक्ति उसके खिलाफ बनाए मामले का विरोध नहीं करता।

यह देखा गया कि याचिकाकर्ता ने पुनर्विचार याचिका के माध्यम से टर्मिनेशन ऑर्डर का विरोध करते हुए निदेशक के निष्कर्ष से इनकार नहीं किया। इसके अलावा, याचिकाकर्ता का तर्क है कि याचिकाकर्ता निर्धारण के क्रम में बताई गई सभी कमियों को दूर करने के लिए तैयार है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ता के पास समाप्ति आदेश के लिए कोई आधार/आपत्ति नहीं है। इस आधार पर कारण बताओ नोटिस जारी करना केवल "अनावश्यक औपचारिकता" है।

इसके साथ ही रिट याचिका खारिज कर दी गई।

केस टाइटल: मेसर्स शिव शंकर मिनरल्स प्रा. लिमिटेड बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य।

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