2017 में योगी आदित्यनाथ और केपी मौर्य को यूपी का सीएम और डिप्टी सीएम बनाए जाने को चुनौती, हाईकोर्ट ने खारिज की याचिका

Update: 2025-12-16 14:54 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2017 में दायर एक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (PIL) याचिका खारिज की, जिसमें 2017 में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री और केशव प्रसाद मौर्य को उत्तर प्रदेश का उपमुख्यमंत्री नियुक्त किए जाने की वैधता को चुनौती दी गई थी।

जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस राजीव भारती की बेंच ने कहा कि संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो पहले से ही संसद सदस्य व्यक्ति को किसी राज्य का मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री नियुक्त करने से रोकता हो।

हाईकोर्ट ने कहा कि संसद सदस्य का पद न तो संवैधानिक पद है (जैसे राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति) और न ही सरकार के अधीन कोई पद है।

इसलिए कोर्ट ने राय दी कि आर्टिकल 164(4) की शर्तों के अधीन रहते हुए एक साथ सीएम या डिप्टी सीएम का पद संभालना शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है।

हाईकोर्ट 2017 में संजय शर्मा द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि प्रतिवादी नंबर 5 और 6 (योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य) की नियुक्तियों को 19 मार्च, 2017 से शून्य और अमान्य घोषित किया जाए।

मुख्य तर्क यह था कि जब दोनों प्रतिवादियों ने राज्य के सीएम और डिप्टी सीएमम के रूप में शपथ ली थी, तब वे संसद सदस्य थे और उन्होंने सितंबर 2017 में ही लोकसभा से इस्तीफा दिया था।

हाईकोर्ट की टिप्पणियां

हाईकोर्ट ने शुरुआत में कहा कि उनकी सीटों को खाली घोषित करने या उनके अधिकार (क्वो वारंटो) पर सवाल उठाने की मांग अब 'बेकार' हो गई, क्योंकि उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया है और 2022 में फिर से चुने गए। हालांकि, कोर्ट ने कानून के सवाल को सुलझाने के लिए 2017 की शुरुआती नियुक्ति की कानूनी वैधता पर फैसला सुनाया।

हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि एक सांसद सरकार के तहत "लाभ का पद" रखता है, जो उन्हें आर्टिकल 191(1)(a) के तहत अयोग्य ठहराएगा। बेंच ने साफ किया कि आर्टिकल 191 के तहत अयोग्यता तभी लागू होती है, जब कोई व्यक्ति भारत सरकार या राज्य सरकार के तहत कोई पद धारण करता है। कोर्ट ने कहा कि एक संसद सदस्य के पास लोगों की आवाज़ उठाने के लिए "चुनाव का पद" होता है और वह सरकार के अधीन कोई पद नहीं रखता है। इसलिए आर्टिकल 191 के अयोग्यता के प्रावधान पहली जगह लागू नहीं होते हैं।

अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2019) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए बेंच ने दोहराया कि विधायकों को फुल-टाइम सैलरी वाले कर्मचारी नहीं कहा जा सकता। उनका दर्जा सुई जेनेरिस (अद्वितीय) है।

इसमें आगे कहा गया कि सिर्फ़ इसलिए कि सांसदों को सैलरी या भत्ते मिलते हैं, सरकार के साथ उनका मालिक-कर्मचारी का रिश्ता नहीं बन जाता।

कोर्ट ने कहा,

"जब तक सदन भंग नहीं होता, वे एक खास पद पर रहते हैं।"

साथ ही इस बात पर ज़ोर दिया कि एक सांसद राष्ट्रपति या राज्यपाल की मर्ज़ी से काम नहीं करता।

याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट चंद्र भूषण पांडे ने किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक सांसद, जो केंद्रीय विधायिका का सदस्य है, उनको मुख्यमंत्री का कार्यकारी पद संभालने की अनुमति देना संविधान की "निहित पाबंदियों" और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का उल्लंघन है।

हालांकि, कोर्ट ने इस दलील को 'बेतुका' और "संवैधानिक रूप से गलत" बताया। बेंच ने बताया कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के तहत हर मंत्री को आखिरकार विधायिका का सदस्य बनना होता है।

कोर्ट ने तर्क दिया,

"अगर यह दलील मान ली जाए कि विधायिका के किसी भी सदस्य को मंत्री नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि विधायिका के सदस्य के तौर पर वह विधायी विंग का हिस्सा है। मुख्यमंत्री/उपमुख्यमंत्री के तौर पर वह कार्यपालिका का हिस्सा बन जाता है तो किसी भी मंत्री को नियुक्त नहीं किया जा सकता।"

बेंच ने आगे एक "संवैधानिक निकाय" (जैसे संसद) और एक "संवैधानिक पद" के बीच एक बड़ा अंतर बताया। इसने साफ किया कि संवैधानिक पद खास ऊंचे पद होते हैं, जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, स्पीकर या मुख्य चुनाव आयुक्त।

इसमें आगे कहा गया कि संसद में सीट होना संवैधानिक पद रखने के बराबर नहीं है। इसलिए उपराष्ट्रपति के राष्ट्रपति बनने पर राज्यों की परिषद के अध्यक्ष न रहने के बारे में याचिकाकर्ता की तुलना को 'गलत' और बिना संवैधानिक आधार के माना गया।

खास बात यह है कि याचिकाकर्ता ने संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 की धारा 3(a) की वैधता को भी चुनौती दी, जो यह घोषित करती है कि मंत्री का पद धारक को संसद सदस्य होने से अयोग्य नहीं ठहराएगा।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह प्रावधान अनुच्छेद 102(1)(a) की भावना के खिलाफ है।

हालांकि, बेंच ने इस दलील को खारिज कर दिया, क्योंकि उसने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 102 की व्याख्या (1985 में संशोधित) साफ तौर पर यह स्पष्ट करती है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए लाभ का पद धारण करने वाला नहीं माना जाएगा क्योंकि वह मंत्री है।

बेंच ने टिप्पणी की,

"जब संविधान ने खुद ही राज्य के मंत्री के पद को, जिसमें मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री शामिल हैं, अनुच्छेद 102 के दायरे से बाहर रखा है... तो हम यह समझने में नाकाम हैं कि 1959 के अधिनियम की धारा 3(a) को इस तरह से चुनौती कैसे दी जा सकती है और इसे कैसे सही ठहराया जा सकता है।"

कोर्ट ने यह भी कहा कि आदित्यनाथ और मौर्य ने 19 मार्च, 2017 को शपथ ली थी। वह 8 सितंबर, 2017 को विधान परिषद के लिए चुने गए और उन्होंने 21 सितंबर, 2017 को संसद से इस्तीफा दे दिया।

बेंच ने कहा कि एक साथ सदस्यता पर रोक के नियम, 1950, लागू नहीं होते, क्योंकि प्रतिवादियों ने दोनों सीटों पर अनिश्चित काल तक बने रहने के बजाय अनुच्छेद 101(3)(b) के तहत स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया था।

कोर्ट ने कहा,

"ये नियम ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं, जहां कोई व्यक्ति एक साथ संसद और भारत के संविधान की पहली अनुसूची में निर्दिष्ट राज्य के विधानमंडल के सदन में सीट रखता है। यदि वह राज्य विधानमंडल में अपनी सीट खाली नहीं करता है तो संसद में उसकी सीट खाली हो जाएगी, जबकि, इस मामले में प्रतिवादी नंबर 5 और 6 ने 21.09.2017 को संविधान के अनुच्छेद 101(3)(b) के तहत संसद की अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। इसलिए राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 101(2) और अनुच्छेद 190(2) के तहत बनाए गए 1950 के नियमों के नियम 2 और 3 इस मामले पर लागू नहीं होते हैं।"

इस प्रकार, हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि राज्यपाल के विवेक का इस्तेमाल संवैधानिक सीमाओं के भीतर किया गया और उसने दावों में "कोई दम नहीं" पाते हुए याचिका खारिज कर दी।

Tags:    

Similar News