नाराजी याचिका को खारिज करने पर पुनरीक्षण याचिका में आरोपी सुनवाई का हकदार : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-06-20 05:45 GMT

Supreme Court of India

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को दोहराया कि अपने खिलाफ दायर शिकायत को खारिज करने के आदेश के खिलाफ एक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई करने वाली अदालत के समक्ष एक आरोपी व्यक्ति को सुनवाई का अधिकार है।

न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित 8 अक्टूबर, 2007 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें याचिकाकर्ता-अभियुक्तों के खिलाफ शिकायत को खारिज करने के मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया गया था वो भी उसे सुनवाई का अवसर दिए बिना।

पीठ ने 6 मार्च 2009 के उच्च न्यायालय के आदेश को भी रद्द कर दिया जिसमें ASJ के आदेश को बरकरार रखा गया था।

मणिरभाई मुल्जीभाई काकड़िया और अन्य बनाम शैलेशभाई मोहनभाई पटेल व अन्य , 2012 (10) एससीसी 517में सुप्रीम कोर्ट की तीन-जजों की बेंच के फैसले को याद करते हुए डिवीजन बेंच ने दोहराया,

"हम मानते हैं, जैसा कि होना चाहिए, कि शिकायतकर्ता द्वारा धारा 203 के तहत धारा 200 के स्तर पर या इस प्रक्रिया पर संहिता की धारा 202 के तहत विचार के दौरान मजिस्ट्रेट के खारिज करने के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश में दाखिल की गई संशोधन याचिका पर अभियुक्त या जिस व्यक्ति पर अपराध करने का संदेह है, रिविजनल कोर्ट द्वारा सुनवाई का हकदार है। "

पृष्ठभूमि

वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ता पर शिकायतकर्ता के हस्ताक्षर करने का आरोप लगाया गया था और तदनुसार सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट के सामने शिकायत दर्ज की गई थी।

जांच के बाद, पुलिस ने आरोपों को झूठा बताते हुए क्लोजर रिपोर्ट पेश की। इसलिए प्रतिवादी-शिकायतकर्ता को नोटिस जारी किया गया, जिसने एक नाराजी याचिका दायर की।

जवाब सुनकर और संतुष्ट नहीं होने पर मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज कर दिया। शिकायत को खारिज करने का यह आदेश ASJ द्वारा रद्द कर दिया गया था और मामले को मजिस्ट्रेट को वापस भेज दिया गया था। इसके बाद, उच्च न्यायालय ने ASJ के आदेश के साथ हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

जांच- परिणाम

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता-अभियुक्तों को, ASJ के समक्ष पुनरीक्षण कार्यवाही में कोई नोटिस जारी नहीं किया गया था। इसलिए यह माना गया कि ASJ द्वारा पारित आदेश, और उच्च न्यायालय द्वारा पारित गैर-हस्तक्षेप का आदेश, "अपरिहार्य" है।

सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया,

"6.03.2009 और 08.10.2007 को दिए गए आदेशों को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाए नहीं रखा जा सकती है। इसलिए उन्हें रद्द किया जाता है। मामले को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, ग्रेटर मुंबई को भेजा जाता है कि ताकि वो अपीलकर्ता को नोटिस के बाद संशोधन आवेदन को सुने और उसकी दलीलों को सुनने के बाद अपनी संतुष्टि के लिए एक आदेश पारित करें।"

अदालत ने पूर्व-संज्ञान के चरण में सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत आवेदन को खारिज करने के उत्तरदाता के प्रतिवाद कि संशोधन में रिमांड के चरण में सुनवाई के लिए आरोपी को कोई अधिकार न हो, उसे भी खारिज कर दिया।

शीर्ष अदालत ने कहा कि विरोध याचिका उत्तरदाता द्वारा "शिकायत मामले" के रूप में दायर की गई थी। इसलिए, शिकायत को खारिज करने का आदेश सीआरपीसी धारा 203 के तहत पारित किया गया था न कि सीआरपीसी धारा 156 (3) के तहत।

अदालत ने कहा,

"जांच के बाद पुलिस ने धारा 173 (2) के तहत 05.04.2006 की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की कि आरोप झूठे थे। मजिस्ट्रेट ने धारा 173 (8) के तहत आगे बढ़ना जरूरी नहीं समझा और शिकायतकर्ता को नोटिस जारी नहीं किया कि क्यों ना पुलिस द्वारा दाखिल अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया जाए। प्रतिवादी ने एक विरोध याचिका दायर की जो शिकायत के मामले के रूप में दर्ज की गई थी। मजिस्ट्रेट ने प्रतिवादी की सुनवाई के बाद और संतुष्ट नहीं होने पर सीआरपीसी की धारा 203 के तहत शिकायत को 13.07.26 को खारिज कर दिया। इसलिए यह सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत एक आवेदन की अस्वीकृति नहीं थी, जैसा कि प्रतिवादी की ओर से आग्रह किया गया था।" 


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