उत्तर प्रदेश बैनर मामला : सुप्रीम कोर्ट के मामले को बड़ी बेंच को भेजने के आदेश के निहितार्थ

Update: 2020-03-15 04:45 GMT

मनु सेबेस्टियन

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश बैनर के मामले को बड़ी पीठ से सुनवाई का जो आदेश दिया है उसमें वह गंभीरता नहीं दिखाई देती है जो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में दिखाई है। इलाहाबाद हाईकोर्ट का मानना है कि इससे नागरिकों का मौलिक अधिकार प्रभावित होता है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन बैनरों को तत्काल प्रभाव से हटा लेने को कहा जिन्हें उत्तर प्रदेश प्रशासन ने लगाया है, जिनमें उन लोगों के नाम, पाते और फ़ोटो दिए गए हैं जिन पर सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दौरान हिंसा में शामिल होने का आरोप है।

हाईकोर्ट ने इसमें स्वतः संज्ञान लिया जब उसे पता चला कि इस तरह के बैनर लगाए गए हैं जिनमें लोगों के फ़ोटो, नाम और पता दिए गए हैं और ऐसा बिना किसी क़ानूनी आधार के किया गया है।

हाईकोर्ट के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट की अवकाशकालीन पीठ के समक्ष सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से चुनौती दी और कहा कि जिन लोगों ने सार्वजनिक रूप से हिंसा की है उनका निजता का अधिकार समाप्त हो जाता है।

इस मामले की सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने एसजी से बार बार यह पूछा कि ऐसा किस क़ानून के तहत किया गया है पर वे इसका जवाब नहीं दे पाए, जिसके तहत राज्य सरकार ने यह कार्रवाई की है।

इसके बदले एसजी ने पुत्तस्वामी मामले में नौ जजों की पीठ के फ़ैसले के कुछ पैराग्राफ़ का हवाला दिया जो निजता के अधिकार पर प्रतिबंध से संबंधित है। आर राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य (1994) 6 SCC 632, में आए फ़ैसले में कहा गया है कि अगर किसी अपराधी को दोषी ठहराया जा चुका है तो वह अपने आपराधिक गतिविधि पर प्रकाशित होने वाली पुस्तक के प्रकाशन पर रोक के अधिकार का दावा नहीं कर सकता। एसजी ने यूके के एक निर्णय का भी ज़िक्र किया जिसने एक बाल दंगाई के फ़ोटो को प्रकाशित करने को सही ठहराया था।

केएस पुत्तस्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार, राज्य या इसकी एजेंसियों की किसी भी तरह की कार्रवाई जिससे निजता का अधिकार सीमित या प्रतिबंधित होता है उसे तीन तरह की जांच से गुज़रना होगा –

वैधानिकता की जांच : इस तरह की कार्रवाई विधायी और वैधानिक आधार पर हो

ज़रूरत और आवश्यकता की जांच : इस तरह की कार्रवाई सार्वजनिक हित के उद्देश्यों की पूर्ति करती हो और

आनुपातिकता की जांच : उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस तरह की कार्रवाई न्यूनतम स्तर पर हो।

यूपी सरकार का मामला पहले ही स्तर पर अपना मुंह तुड़वा बैठता है क्योंकि यह किसी क़ानून पर आधारित नहीं है। सिर्फ़ प्रशासनिक आदेश से इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती है। हाईकोर्ट ने राज्य की कार्रवाई को ग़ैरक़ानूनी माना। इसे हाईकोर्ट के फ़ैसले में भी स्पष्ट देखा जा सकता है और एजी ने अदालत के समक्ष इस बात को माना कि ये बैनर बिना किसी क़ानूनी आधार के लगाए गए, इसलिए, सुप्रीम कोर्ट में यूपी सरकार की दलील में कोई दम नहीं था।

ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के जज इस पहलू को समझ नहीं पाए। न्यायमूर्ति यूयू ललित ने सुनवाई के दौरान कहा कि राज्य के इस तरह के 'कठोर कदम' को कानून का आधार होना चाहिए। न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस ने भी टिप्पणी की और कहा कि राज्य की कार्रवाई कानून पर आधारित होनी चाहिए।

फिर भी, पीठ ने आखिरकार मामले को एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया और इसमें उत्तर प्रदेश सरकार की दलीलों पर किसी भी तरह का संतोष व्यक्त नहीं किया गया है।

पीठ ने संक्षिप्त रूप में कहा,

"मामले की प्रकृति और उसके महत्व पर ग़ौर करने के बाद, हमारे विचार में, मामले को कम से कम तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष, अगर संभव हो तो 16 मार्च 2020 से शुरू होने वाले सप्ताह में रखा जाना चाहिए।"

इस आदेश में मुद्दा क्या है इसका ज़िक्र नहीं किया गया है। अब, कोई कह सकता है कि इस तरह के संदर्भ में क्या नुकसान है। यहां, यह याद रखने की आवश्यकता है कि इस मुक़दमे की हाईकोर्ट ने एक आपातकालीन स्थिति के बाद रविवार को सुनवाई की थी और इस मामले की तात्कालिकता पर ध्यान दिया गया था।

गैर-कानूनी बैनरों में दर्शाए गए व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का मिनट-दर-मिनट उल्लंघन हो रहा है। इस बैनर को आधार बनाकर आपराधिक तत्व इसमें शामिल किए गए लोगों की लिंचिंग तक कर सकते हैं और प्रतिवादियों ने इस बात की आशंका सुप्रीम कोर्ट की पीठ के समक्ष ज़ाहिर की थी।

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि इन व्यक्तियों को कानून की अदालत ने दोषी नहीं पाया है, और यह कि प्रशासनिक अधिकारियों ने जो वसूली नोटिस जारी किया है उनको अदालतों में चुनौती दी गई है और ये सुनवाई अदालतों में लंबित हैं। कथित नुकसान के भुगतान के लिए रिकवरी नोटिस में जो समय सीमा दी गई है वह अभी खत्म नहीं हुई है।

इन परिस्थितियों में, यूपी प्रशासन की कार्रवाई सामान्य विवेक की शर्तों के अनुसार अनुपातहीन और उच्च-स्तर की लगती है। यहां तक कि नाबालिग़ बलात्कारी और कठोर अपराधियों की भी इस तरह अनदेखी नहीं की जाती है।

यह इन कारकों पर ध्यान देने के बाद ही हाईकोर्ट ने यह आदेश दिया और राज्य की कार्रवाई को "उसके समक्ष (अदालत में) होने वाला सार्वजनिक अन्याय"क़रार दिया।

"वर्तमान मामले में, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित अधिकारों हमले की एक वैध आशंका मौजूद है, जो न्यायालय से अपने आप में पर्याप्त उपचार की मांग करता है। न्यायालय के सामने मुख्य बात मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित अधिकारों पर हमले को रोकना है।"

हाईकोर्ट ने कहा,

"ऐसे मामलों में न्यायालय से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह अनावश्यक रूप से इस बात की प्रतीक्षा करे कि कोई व्यक्ति उसके पास न्याय मांगने के लिए आएगा। न्यायालयों को काम है न्याय देना और कोई भी अदालत अपनी आंखें बंद नहीं कर सकती, यदि उसकी आंखों के समक्ष कोई सार्वजनिक अन्याय हो रहा है।"

इस पृष्ठभूमि में, यह देखते हुए कि हाईकोर्ट ने मामले को स्थगित करना उचित नहीं समझा, सुप्रीम कोर्ट को हाईकोर्ट के निर्देशों का तत्काल पालन सुनिश्चित करने का निर्देश देना चाहिए था। यह रहस्य की बात है कि सॉलिसिटर जनरल ने अवकाश पीठ के समक्ष यह प्रस्ताव तत्काल पेश तो किया पर इस मामले में स्थगन की मांग नहीं की।

हाईकोर्ट ने पोस्टरों को हटाने का आदेश दिया था, लेकिन, यूपी सरकार इस आदेश को मानने के बजाय इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गई। इसलिए, यूपी सरकार हाईकोर्ट के निर्देशों की अवमानना करते हुए सुप्रीम कोर्ट गई है और वह अपने कार्रवाई के लिए किसी क़ानूनी आधार का सहारा नहीं ले पाई थी, लेकिन इसके बावजूद ने उसकी बात सुनी।

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के पारित होने के बाद से भारत में नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन ने जोड़ पकड़ लिया है और कुछ उच्च न्यायालय राज्य की ज्यादतियों से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का आश्वस्तिकारी संकेत दिया है। हमने देखा है कि उच्च न्यायालयों धारा 144 के आदेशों को अवैध घोषित किया है, इंटरनेट शटडाउन के फ़ैसले को पलटते हुए देखा है, पुलिस की ज्यादतियों की जांच के आदेश दिए हैं और विरोध करने के नागरिकों के अधिकार को बरकरार रखा है।

इसकी तुलना में, कश्मीर लॉकडाउन जैसे मुद्दों से शुरू होने वाली सुप्रीम कोर्ट की इस बारे में प्रतिक्रिया निष्क्रियता और मामले से बचने की रही है।

वर्तमान मामले को एक बड़ी बेंच को सुपुर्द करने का जो आदेश दिया गया है और वह भी विशेष अनुमति याचिका को स्वीकार करने के प्रथम दृष्ट्या मामले का पता लगाने के बिना ही, वह उन लोगों के लिए बहुत ही निराशाजनक है जिन्हें यह उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कड़ी कार्रवाई करेगा। 

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