सीआरपीसी की धारा 436 A : संवैधानिक उपचारों के प्रति समाज को जागरूक कैसे बनाएं

Update: 2022-04-20 10:08 GMT

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National crime records bureau) द्वारा वर्ष2020 में जारी किए डाटा के अनुसार, देश की जेलों में हर 10 में से 7 कैदी ऐसे हैं जो विचाराधीन है। विचाराधीन कैदी वे लोग है, जिन पर लगे आरोप अभी सिद्ध नहीं हुए हैं तथा जिनका विचारण न्यायलयों में लंबित है या प्रारंभ ही नहीं हुआ हैं।

जेल सांख्यिकी भारत रिपोर्ट 2020 (prison statistics India report 2020) के अनुसार भी वर्ष दर वर्ष यह संख्या बढ़ती ही जा रही है, जो कि पूर्व के कुछ वर्षों में 3% थे और हाल ही में जारी किए आंकड़ों के अनुसार इसमें प्रति वर्ष 12% की बढ़ोतरी हुई है, जिसमें आधे से ज्यादा कैदी जिला जेलों [district jails] में कैद है, जो कि अपनी क्षमता से अधिक भरी पड़ी हैं, परंतु विवाद तो यह है कि इसमें उन लोगों की संख्या अधिक है जिन पर आरोप अभी तक सिद्ध भी नहीं हो पाया है या वे कैदी है जिनका विचारण लंबित [under trials] है।

यही कारण है कि कैदियों के लिए पर्याप्त जगह और व्यवस्था नहीं होने के कारण उन्हें वे बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं जो वे वास्तव में पाने के हकदार हैं। जैसे– स्वच्छता, मेडिकल सुविधा, भोजन और उचित रहने का स्थान इत्यादि। हालांकि समय समय पर गृह मंत्रालय द्वारा इस विषय पर जवाब पेश किया जाता रहा है, लेकिन फिर भी 31 दिसंबर 2020 को आई NCRB की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो गया की संपूर्ण भारत में यह संख्या कुल 371848 है, यानि 67% लोग बिना दोष सिद्धि के जेलों में कैद है। इसमें उत्तर प्रदेश प्रथम स्थान पर है वही बिहार और मध्य प्रदेश दूसरे व तीसरे स्थान पर जिनकी जेलों में कई ऐसे व्यक्ति कैद है।

• मुख्य कारण-

2017 में आई विधि आयोग की 268वीं रिपोर्ट इन कारणों को हाईलाइट करते हुए बताया कि आजकल यह साधारण हो गया है कि अमीर/शक्तिशाली व्यक्तियों को जमानत मिल जाती है, वही दूसरी और गरीब तबके के लिए यह अभी भी नामुमकिन सा प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति का मुख्य कारण विचाराधीन कैदियों में विधिक और सामान्य जानकारी/जागरूकता की कमी होना, अशिक्षा ,जमानत प्रतिभूति रकम का ज्यादा होना, गरीबी या मजिस्ट्रेट द्वारा मेकिनकल मैनर में दिए रिमांड ऑर्डर्स भी शामिल हैं।

जेलों में हर 4 में से 2 कैदी ऐसे है जो ST,SC व OBC जैसे समुदायों से ताल्लुक रखते हैं। इनमें जागरूकता की कमी है और न ही इनके पास ऐसे संसाधन हैं जो उन्हें सशक्तिकरण प्रदान करते हों। ये लोग स्वयं अवैध निरुद्धिकरण [illegal detaintion], झूठे इकबालिया बयान [false confessional statements], गैर कानूनी रूप से गिरफ्तारी और उच्च प्राधिकारियों द्वारा सहयोग में उदासीनता इत्यादि के कारण बिना आधार के जेलों में कैद हैं।

हालिया ज़मानत पर छोड़ी गई भीमा कोरेगांव मामले की आरोपी अधिवक्ता सुधा भारद्वाज ने भी अनुच्छेद 21 व 39A की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए बताया, कि उन्होंने अपने 3 वर्ष के कारावास काल में दर्जनों से अधिक विचाराधीन कैदियों के लिए जमानत आवेदन लिखे जो जेल में बिना विचारण के सजा भोग रहे हैं और उनका जीवन वहां नरक से कम नही है।

इसके अतिरिक्त, वर्ष 2020 एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 19.8% विचाराधीन कैदियों को जेल से छोड़ा गया इसके मुख्य कारण निम्न हैं-

1. दोषमुक्ति के आदेश द्वारा।

2. ज़मानत पर छोड़ ने आदेश द्वारा।

3. अपील के आधार पर छोड़ा जाना।

4. मामले के अंतरण पर छोड़ा जाना।

5. प्रत्यपर्ण [extradition] मामले के अधीन।

6. धारा 436A सीआरपीसी के अधीन विचाराधीन कैदियों को छोड़ा जाना।

इसी रिपोर्ट में धारा 436A सीआरपीसी जैसे प्रावधान को एक उपचार के रूप में बताते हुए कहा गया कि जब विचाराधीन कैदी अपनी सजा से आधी से ज्यादा अवधि कारावास में काट चुका हो, तब उसे धारा 436A का सहारा लेना चाहिए। यह एक प्रकार का विचाराधीन कैदियों के लिए "अर्ली रिलीज" उपबंध है।

हालांकि वर्ष 2020 में 34% व्यक्ति ही इस प्रकार छोड़े गए। इसके साथ ही 2017 में विधि आयोग ने अपनी 268वीं रिपोर्ट में सुझाव भी दिया था कि यदि अभियुक्त द्वारा अपराध के लिए उपबंधित सजा की पूरी अवधि इसके अंडरट्रायल रहते हुए ही काट ली जाती है तो उसी "remit" मान लिया जाना चाहिए।

• धारा 436A सीआरपीसी का सामान्य परिचय-

यह उपबंध युक्तियुक्त प्रक्रिया का भाग वर्ष 2005 में हुए संशोधन के अंतर्गत बनाया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य विचाराधीन कैदियों को एक ऐसा प्रत्यक्ष उपचार प्रदान करना है, जिससे उनके मूल अधिकारों को संरक्षित किया जा सके तथा उन्हें इसके लिए अनुच्छेद 32 या 226 का सहारा लेने की आवश्यकता न पड़े।

धारा 436A के अनुसार– जहां किसी व्यक्ति ने इस संहिता के तहत किसी भी कानून के तहत अन्वेषण, जांच या विचारण की अवधि के दौरान (ऐसा अपराध नहीं जिसके लिए मृत्यु दण्ड को उस विधि के तहत दंड में से एक के रूप में निर्दिष्ट किया गया है) हिरासत में लिया गया है, उस विधि के तहत उस अपराध के लिए निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक ज्यादा अवधि, उसे न्यायालय द्वारा अपने व्यक्तिगत बॉन्ड पर जमानत के साथ या बिना रिहा किया जाएगा।

परंतु कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के बाद और इसके द्वारा लिखित रूप में कारण दर्ज करने के लिए, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिए निरंतर हिरासत में रखने का आदेश दें या जमानत के साथ या बिना व्यक्तिगत बॉन्ड के बजाय उसे जमानत पर रिहा करें।

परंतु यह और की किसी भी मामले में किसी भी मामले में जांच या परीक्षण की अवधि के दौरान उस कानून के तहत उक्त अपराध के लिए दी गई कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिए हिरासत में नहीं लिया जाएगा।

स्पष्टीकरण-जमानत देने के लिए इस धारा के तहत निरोध की अवधि की गणना में अभियुक्त द्वारा की गई कार्यवाही में विलम्ब के कारण पारित निरोध की अवधि को अपवर्जित किया जाएगा।

इस विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भीम सिंह बनाम भारत संघ मामले में सीआरपीसी की धारा 436A के प्रावधानों को प्राथमिकता देते हुए कहा कि – '' त्वरित विचारण (speedy trial) अनुच्छेद 21 अधीन अभियुक्त का मूल अधिकार है।''

इसके चलते ही सभी हाईकोर्ट को दिशानिर्देश जारी किए कि अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया जाए कि वे अपने क्षेत्राधिकार में आने वाली जेलों का पर्व्यक्षण करें और ऐसे कैदियों, जिन्होंने अपनी सजा से आधी से ज्यादा अवधि जेल में काट ली है, उनकी रिपोर्ट बनाएं और सीआरपीसी की धारा 436A को प्रभावी रूप से लागू करते हुए उन्हें जमानत पर छोड़ा जाए।

इसी प्रकार री–ह्यूमन कंडीशंस इन1382 बनाम असम राज्य, 2016 मामले में भी माननीय न्यायालय ने दिशा निर्देश जारी करते हुए कहा की जेल अधीक्षक अंडरट्रायल कैदियों का मुआयना करे, जो आधी से अधिक अवधि सजा की भोग चुके हैं और उसकी रिपोर्ट जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को प्रेषित करें और एक रिव्यू कमेटी का गठन किया जाए। इसके साथ ही सुझाव दिया गया कि जेल प्राधिकारी कैदियों को उनके जमानत संबंधी अधिकार के बारे में बताएं और विधिक सेवा प्राधिकरण उन्हें विधिक सहायता प्रदान करें।

लेकिन कहना तो यह भी उचित होगा की सीआरपीसी की धारा 436A का यह उपचार मात्रा उन ही व्यक्तियों को दिया जाएगा जो कि अंडरट्रायल हैं, न कि वे जो दोष सिद्ध हो चुके हों। हालांकि इसमें जमानत देना कोई आज्ञापक नहीं है, क्योंकि धारा 446A के पहले प्रोविसो में प्रयुक्त "MAY" इसकी पुष्टि करता है की यह न्यायालय के विवेक पर यदि वह चाहता है कि अभियुक्त का निरुद्ध रहना युक्तियुक्त विचारण हेतु आवश्यक है।

वहीं इसका इसका दूसरा प्रोविसो "absolute" उपचार प्रदान करता है, कि अभियुक्त को कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक निरुद्ध नहीं रखा जाएगा और न ही ऐसी दशाओं में ज़मानत देते समय मेरिट पर विचार करना आवश्यक होगा। इसमें जमानत देना आज्ञापक होगा।

परंतु ऐसा आदेश "ब्लैंकेट ऑर्डर" नहीं होगा। यदि अभियुक्त जानबूझकर इस आशय से विचारण में देरी करता है की वह उपचारात्मक प्रावधानों का दुरुपयोग करके स्वयं को कारावास से बचा सकता है, तब ऐसी परिस्थिति में उसे जमानत का लाभ नही दिया जायेगा और न्यायालय के लिए आवश्यक होगा की वह मामले के हर बिंदु पर जांच करे।

• निष्कर्ष-

जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए दिशानिर्देश और लॉ कमीशन द्वारा प्रेषित रिपोर्ट के बावजूद भी ये सुझाव वास्तविकता रूप से अमल में दिखाई नहीं देते हैं। जेलों के ये सुधार कार्यक्रम किसी सपने की तरह लगते है, क्योंकि ये सुधारात्मक प्रावधान जेलों के दरवाजे तक ही रुक जाते हैं। उसके आगे वे मृत से प्रतीत होते हैं।

अभी भी लोग जमानत और पैरोल संबंधी उपचारों के विषय में नही जानते, असलियत में इन्हें लागू करवाना तो दूर की बात है। विधायिका और न्याय पालिका दोनों को साथ मिल कर इसके लिए सार्थक प्रयास करने चाहिए, ताकि संवैधानिक उपचारों का फायदा समाज के निचले तबके तक मिल सके।

नोट : इस लेख में प्रेषित विचार लेखक के निजी विचार हैं।

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