- डा. शालिनी साबू
22 अप्रैल को झारखंड हाईकोर्ट ने उरावं जनजाति के महिलाओं के अधिकार से सम्बंधित एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। वो यह है कि इस जनजाति कि महिलाओं को भी पैतृक संपत्ति में पुरुषों कि भांति पूर्ण अधिकार है।
जस्टिस गौतम कुमार चौधरी की अदालत ने प्रभा मिंज बनाम मार्था एक्का और अन्य के मामले में सेकेण्ड अपील याचिका पर सुनवाई के पशचात अपने फैसले में स्वीकार किया कि उरावं जनजाति में पुत्रियों को भी पुत्र के सामान पैतृक संपत्ति पर हक़ है।
असल में अपील याचिका कि सुनवाई के दौरान प्रतिवादी उरावं जनजाति का ऐसा कोई कस्टम अथवा प्रथा साबित करने में विफल रहे जिसके तहत पैतृक संपत्ति के हक़ से पुत्रियों को वंचित किया जा सकें। इस फैसले के साथ ही अदालत ने अपील याचिका को स्वीकार कर लिया और निचली अदालत और प्रथम अपीलीय अदालत के फैसले को निरस्त कर दिया जो उक्त फैसले के बिल्कुल विपरीत था।
उरावं महिलाओं से सम्बंधित इस अहम् न्यायिक निर्णय ने न सिर्फ झारखंड के आदिवासी समाज में खलबली मचा दी है अपितु इस फैसले ने आदिवासी अधिकारों को विधि सम्मत ढंग से समझने का एक अवसर भी प्रदान किया है। कारण यह कि इस निर्णय का भावी असर प्रदेश कि अन्य जनजातीय महिलाओं के अधिकारों पर भी होगा जो आगे चलकर राजनैतिक दलों के एजेंडा का हिस्सा भी बन सकते है।
यह पूरा मामला कस्टमरी क़ानून जिसे हम प्रथागत क़ानून भी कहते है, से जुड़ा हुआ है। क़ानून विशेषज्ञ इस बात से सहमत होंगे कि 'कस्टम' क़ानून के प्राचीनतम स्त्रोतों में से एक है। संविधान के अनुछेद 13 के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में आने वाले प्रदेशों में प्रथागत क़ानून को सिविल क़ानून के समकक्ष माना गया है और प्रथाओं को यदि साबित कर दिया गया तो वे इस प्रावधान के तहत क़ानून का रूप ले लेंगे। प्रथागत अधिकार क़ानून सम्मत होते है जिनका भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत न्यायिक संज्ञान लिया जा सकता है।
जनजातीय जनसंख्या में अक्सर ऐसे मसले उतराधिकार, विवाह, अभिग्रहण और संरक्षण से सम्बंधित होते है। यहां यह समझ लेना अति आवश्यक होगा कि कस्टम कानून में कब परिणत होता है। कस्टम वह है जिसे सदियों से समाज व्यवहार में लाता रहा है और जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति अपने को पूर्ण रूप से अलग नहीं कर सकता।
एक प्रथा को वैध होने के लिए उसकी पुरातनता, निश्चयता, निरंतरता, तर्कसंगतता, नैतिकता, न्यायसंगत और लोक नीति के विरुद्ध न होने के समस्त मापदंड अनिवार्य है। इन सबसे परिपूर्ण प्रथा ही क़ानून के रूप में मान्य है। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, प्रथाओं के प्रयोग में अहम् भूमिका निभाते है. अदालत अपनी सम्मति से किसी भी प्रथा कि विधि सम्बन्धी गुणवत्ता का सत्यापन कर सकता है।
उपरोक्त मामले के मध्य में भी कस्टम कि प्रासंगिकता अहम् है। कारण यह कि फैसले में कस्टम को ही आधार बनाया गया है। पीठ के न्यायिक आदेश के गहन अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ऐसे दर्जनों मामलों में, पूर्व में सुनाये गए फैसले भिन्न है। पीठ ने यह फैसला ऐसे आदेशों के आलोक में दिया है जहां वह सिविल कोर्ट, राजस्व न्यायालय और उच्च न्यायलय के उन मुकदमों को रेखांकित करता है जहां उरावं व अन्य आदिवासी महिलाओं के उतराधिकार के मसलों पर कस्टमरी क़ानून में अननुरूपता है।
कहीं पर इन्हें प्रथागत क़ानून के तहत वन्शानूक्रम के अधिकार से वंचित रखा गया है तो कहीं पर इन्हें वंशगत अधिकार दिए गए है. निः संदेह यह तथ्य भी सर्वविदित है कि एस. सी. राय द्वारा लिखित पुस्तक 'उरावंस आफ छोटानागपुर' और संथाल परगना कि गेज़ेन्टर रिपोर्ट जो कि एक सौ वर्ष पुरानी है, में भी यह पाया गया था कि तत्कालीन समय में भी इस प्रथागत क़ानून के अनुसरण में विसंवाद था।
मामले कि बढ़ती चर्चाओं ने आदिवासी संगठनों, राजनेताओं और कार्यकर्ताओं को दो भागों में विभाजित कर दिया है। फैसले का विरोध करनेवाले ये कहते है कि उरावं समाज में यदि महिलाओं को सम्पति, खासकर भूमि का उत्तराधिकार दिया गया तो वे गैर आदिवासी पुरुषों का शिकार हो जायेंगी जो विवाह के बहाने उनकी ज़मीन हड़प लेंगे। इसके ठीक विपरीत फैसले को सही कहने वाले कहते है बदलते समय के साथ प्रथाओं में भी परिवर्तन होना आवश्यक है।
इस फैसले से उरावं महिलाओं कि न सिर्फ आर्थिक उन्नति होगी बल्कि उनको आत्मनिर्भरता का अनुभव होगा। अदालत के इस निर्णय से प्रदेश कि विधवा और अकेली महिलाओं को डायन करार कर हत्या किए जाने के बढ़ते मामले में कमी आएगी और अन्य जनजातियों कि महिलाओं के अधिकाओं के लिए भी रास्ते खुलेंगे।
यहां यह बता देना उचित होगा कि इस पूरे फैसले का मुख्य कारण यह था कि प्रतिवादी इस बात को साबित करने में असफल रहा कि कोई ऐसी 'प्रथा' (कस्टम) है जो उरावं महिलाओं को एकरूपता से वन्शानूगत अधिकारों से बेदखल करती है। ऐसा होने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण आदिवासी प्रथाओं का लिपीबद्ध न होना है।
जब तक कस्टम्स को कोडिफाई नहीं किया जाता, आदिवासी अधिकारों के मामले में पशोपेश बनी रहेगी और कस्टमरी क़ानून के क्रियान्वयन में असमानता व्याप्त रहेगी. कस्टमरी कानूनों को वैधानिक आकार देने के लिए कोडीफिकेशन एक बेहतर विकल्प है।
(लेखिका इंस्टिट्यूट आफ़ लीगल स्टडीस, रांची विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका है. झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रथागत कानून विभाग से इन्होने डॉक्टरेट किया है।)