सिकुड़ता गणतंत्र एवं बढ़ती संविधानिक साक्षरता की मांग

Update: 2021-01-26 03:18 GMT

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी कविता " देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता " में लिखते हैं -

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो

तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो ?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रहीं हों

तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

भारतीय गणतंत्र की 71 वीं वर्षी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की गूंज में मनाई जा रही है। संविधान बनने और एक गणतंत्र के रूप में अपने 71 वें बसंत में भारत अपने संविधानिक अस्तित्व को बनाये रखने की लड़ाई लड़ रहा है। यह कविता नागरिकों को उनकी नागरिकता बोध के लिए प्रश्न करने को प्रेरित करती है । नागरिक आज़ादी पर राज्य की पाबन्दी , संसदीय लोकतंत्र में विमर्श का घटता स्पेस , एवं बहुसंख्यक राज्य की तरह व्यवहार करती सत्ता , लोगों को सक्सेना की कविता की कल्पना को वास्तविकता से रूबरू कराती है । कोविड -19 ने दुनिया भर की व्यवस्थाओं की खामियों को उजागर किया है संसदीय लोकतंत्र में संसद की भूमिका पर उठते सवाल, सिमटता सुचना तंत्र, मूल सुविधाओं को तरसती जनाबादी, एवं चुने हुए प्रतिनिधियों की बेरुखी ने दुनिया भर के लोकतंत्र और नागरिकों के रिश्तों को पुनर्भाषित किया है। आशा और प्रत्याशा के बीच, दुनिया भर के सफल लोकतंत्रों की एक समानता पारदर्शिता एवं सुचना तक, नागरिको की पहुँच रही है। संविधानिक विद्वान माधव खोसला और मिलन वैष्णव हाल ही में आये अपने एक शोध पत्र में यह लिखते हैं- " हाल के संस्थागत परिवर्तन और नौकरशाही प्रथाओं, ने, प्रचलित संवैधानिक व्यवस्था के केंद्रीय सिद्धांतों को कम कर दिया है। भारत की नई संवैधानिकता के तीन प्रमुख विशेषताएं हैं: जातीय राज्य, निरकुंश राज्य और एकअपारदर्शी राज्य। बिना विधायी जांच के, संसद द्वारा बिल का पास होना- उदाहरण के तौर पर हाल ही में आये कृषि कानून, अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार , विद्वानों का जेल में बंद होना, सिकुड़ते गणतंत्र की निशानी है , जो संवैधानिक साक्षरता के लिए मार्ग प्रशश्त करती है ।

संवैधानिक साक्षरता और उसके आयाम

संविधान सभा में 25 नवंबर 1949 को दिए अपने आखिरी भाषण में बाबा साहेब डॉक्टर अम्बेडकर कहते हैं "संविधान चाहे जितना ही अच्छा क्यों ना हो इसकी कार्य कुशलता इस बात पर निर्भर करती है कि इसे लागू करने वाले लोग कैसे हैं।" अम्बेडकर आगे कहते हैं- "हालांकि, एक संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो उसका , बुरा होना निश्चित है क्योंकि जिन लोगों को इस पर काम करने के लिए कहा जाता है, वे बहुत बुरे होते हैं। हालांकि एक संविधान चाहे जितना भी खराब हो सकता है, यह अच्छा भी हो सकता है अगर इसे अमल करने वाले लोग बहुत अच्छे हों तो। भारतीय गणतंत्र के शुरुआती जीवन से लेकर अब तक यह सवाल बना रहा है कि क्या संविधान जन-संविधान बन पाया है? मौजूदा दौर में यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है जब "संविधान की समझ और पुनर्व्याख्या एक राजनीतिक दल द्वारा अपने हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान जैसे गैर संवैधानिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा हो। भारतीय संविधान की बनने की प्रक्रिया से लेकर इसे अपनाने के बाद से ही इसकी लोक - पहुंच को लेकर ही यह सवाल उठते रहे की ये एक "अभिजात दस्तावेज" है। डॉक्टर अम्बेडकर इस सम्बन्ध में कहते हैं "संविधान सिर्फ वकीलों का दस्तावेज नहीं है यह जीवन का पहिया है एवं इसके भाव हमेशा उम्र का भाव है।नीलांजन सरकार अपने एक शोधपत्र में मौजदा राजनीतिक समय को " विश्वास की राजनीति" से प्रेरित बताते हैं। वर्तमान असाधारण संविधानिक समय में संविधानिक साक्षरता की व्यापक मुहीम ना सिर्फ समय की मांग है, बल्कि संविधान बचाने की एक कोशिश भी।भारतीय संविधान का उद्देश्य सिर्फ देश के लिए विधि व्यवस्था के अनुपालन के लिए ढांचे बनाना ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तन भी सुनिश्चित करना है। मौजूदा दौर में हम परिवर्तन संवैधानिक कानूनों के बजाय हम "लव जिहाद", सीएए, धारा 370 सहित कश्मीर में नागरिक अधिकारों का हनन, नागरिक एवं प्रेस आजादी का सिकुड़ना, राज्य द्वारा असहमति के जगह को कम करना, सर्वोच्च न्यायालय की चुप्पी जैसे स्थिति में भारतीय गणतंत्र खुद को सिकुड़ता हुआ पा रहा है। ऐसी स्थिति में यह हर नागरिक का कर्तव्य हो जाता है कि वह संविधानिक तौर पर साक्षर होकर संविधानिक मूल्यों को आत्मसात कर सकें. नागरिकता के सार्थक एहसास के लिए यह जरूरी है कि हम संवैधानिक मूल्यों को गाँव-कस्बे और शहर के नुक्कड़ों तक ले जाएँ, और सत्ता को संवैधानिक जिम्मेदारियों के अनुकूल बनाएं । संवैधानिक समझ के लोकतंत्रीकरण के इस प्रक्रिया में नागरिक समाज, संवैधानिक विद्वानों, स्वयंसेवी समूहों एवं कानूनी साक्षरता पर काम करने वाले संस्थानों (लाइव लॉ, आर्टिकल 14, लॉ एवं अन्य बार एंड बेंच , डिटेंशन सॉलिडेरिटी नेटवर्क ) ने आगे आकर इस प्रक्रिया को अलग आयाम दिया है । भाषा के स्तर पर चुनौती को दूर करते हुए हमें संविधान के तथ्यों को लोकभाषा में ले जाना होगा। एक ऐसी भाषा जिससे लोग खुद को जोड़ कर अपने भीतर संविधान को पा सकें, यही एकमात्र जरिया है संविधान की भाषा को आम जन की भाषा बनाने का।

राजेश रंजन विधि छात्र हैं तथा संविधान को अलग अलग भाषाओं में पहुंचाने को लेकर काम कर रहे हैं।

Tags:    

Similar News