प्रवासी मजदूरों के मामलेः सुप्रीम कोर्ट ने नए मापदंड गढ़ने का मौका गंवाया
मनु सेबेस्टियन
ऐसा कहा जाता है कि आंकड़ों की खूबसूरती प्रायः सच को ढंक देती है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में लॉकडाउन में किए गए कामकाज के आंकड़ें जारी किए थे, जिसके मुताबिक, कोर्ट ने लॉकडाउन के एक महीने के दरमियान, 24 अप्रैल तक, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए 593 मामलों की सुनवाई की और 215 मामलों में फैसला सुनाया।
सुप्रीम कोर्ट की एक प्रेस विज्ञप्ति में इन आकंड़ों को विदेशी अदालतों में हुए कामकाज के आंकड़ों से तुलना करते हुए, कहा गया-
"विभिन्न न्यायपालिकाओं के उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग से वह पंगु हुईं, मगर कुछ ही न्यायपालिकाएं उतना कामकाज कर पाई, जितना भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने किया। जबकि हालात एक जैसे थे और सुप्रीम कोर्ट ने कम संसाधनों में किया।"
यह काबिल-ए-तारीफ है कि कोर्ट ने COVID 19 जैसी महामारी के कठिन दौर में मुकदमों के निस्तारण के लिए खुद को प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के लिए तेजी से ढाल लिया।
यह न्यायपालिका के अपरिहार्यता की दृढ़ अभिव्यक्ति थी, जिसने यह स्पष्ट किया कि लॉकडाउन के बावजूद न्याय प्रशासन को निलंबित नहीं किया जा सकता है। हालांकि, इन संख्याओं और कोर्टों की तकनीक-प्रियता के बावजूद, हमें एक प्रासंगिक सवाल को पूछना नहीं भूलना नहीं चाहिए कि
क्या अदालत ने कार्यकारिणी की जवाबदेही सुनिश्चित करने के अपने संवैधानिक दायित्व का पूर्ण निर्वहन किया?
जब यह आलेख लिखा जा रहा था, उसी समय औरंगाबाद ट्रेन दुर्घटना के दृश्य सोशल मीडिया में साझा किया जा रहे थे, जिनमें 16 प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई थी। खबरें थीं कि वे रेल लाइनों से होकर अपने घर वापस जा रहे थे और थककर पटरियों पर सो गए।
The fear of dying from #COVID19 in Jalna had compelled #MigrantWorkers to walk towards their home state of Madhya Pradesh, said one of the survivors of the train accident near #Aurangabad.@ss_suryawanshi https://t.co/0rjwD8UXL9
— The New Indian Express (@NewIndianXpress) May 9, 2020
इस दुर्घटना से तीन दिन पहले, सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका को रद्द कर दिया था, जिसमें प्रवासी मजदूरों को बिना शर्त और शुल्क के ट्रेनों से उनके घरों को लौटने की अनुमति देने के निर्देश देने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता, जगदीप चोक्कर ने कहा, कि सब्सिडी के बाद ट्रेन के किराए अधिकांश मजूदरों की कुव्वत के बाहर हैं। याचिकाकर्ता के वकील, एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा था कि यात्रा के लिए मेडिकल फिटनेस प्रमाणपत्र प्राप्त करने की पूर्व शर्त व्यावहारिक कठिनाइयों को पैदा कर रही हैं (यह चिंता औरंगाबाद त्रासदी के बाद वैध प्रतीत होती है। हादसे के बाद राज्य सरकार ने उक्त शर्त वापस ले ली है।)
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बिना किसी प्रभावी निर्देश के याचिका का निस्तारण कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, हुए कहा:
"केंद्र और राज्यों सरकारें सभी आवश्यक कदम उठा रही हैं, इसलिए हमें इस याचिका को लंबित रखने का कोई कारण नहीं दिखता है।"
वास्तव में, लॉकडाउन की अवधि में कोर्ट में प्रवासी मजदूरों के मुद्दों को उठाने के लिए दायर याचिकओं पर ऐसी प्रतिक्रिया सामान्य हैं, और एक पैटर्न का रूप ले चुकी हैं, पैटर्न यह कि ऐसी यचिकाओं को कार्यपालिका के असत्यापित दावों के आधार पर नियमित रूप से निस्तारित कर देना।
लॉकडाउन की सबसे ज्यादा मार प्रवासी मजदूरों पर पड़ी है। चार घंटे की नोटिस पर लॉकडाउन की अचानक घोषणा के बाद बड़ी संख्या में प्रवासी मजूदरों का शहरों से अपने घरों ओर पलायन शुरु हो गया। परिवहन के नियमित साधनों के अभाव में, उन्होंने सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए पैदल ही पहुंचने की कोशिश की।
रिपोर्ट हैं कि अपने घर को पैदल ही निकले कम 22 प्रवासी मजदूर चिलचिलाती धूप में मर गए। कोर्ट को सुओ-मोटो हस्तक्षेप के लिए ये हालात पर्याप्त थे, विशेष रूप ये देखते हुए कि न्यायिक उपचार इन असहाय पीड़ितों की पहुंच से बाहर है।
Migrant workers walk along a road to return to their villages in Jhansi from Rohtak (almost 500 kms) during a nationwide lockdown to limit the spreading of coronavirus. @Reuters / Danish Siddiqui #21daylockdown #coronavirus #india pic.twitter.com/ron4THd6AN
— Danish Siddiqui (@dansiddiqui) March 26, 2020
इस गंभीर मानवीय संकट में दरकार थी कि कोर्ट मामले में त्वरित हस्तक्षेप करे। हालांकि, जब प्रवासी मजदूरों के पक्ष में एक पीआईएल दाखिल की गई तो उसने ढीलाढाला रवैया अपनाया। कोर्ट ने यहां तक कहा कि प्रवासियों का पलायन "फेक न्यूज़" के कारण हुआ।
31 मार्च को दिए आदेश में कोर्ट ने कहा, "शहरों में काम करने वाले मजदूरों का प्रवासन फर्जी खबरों, कि लॉकडाउन तीन महीने तक रहेगा, से पैदा हुई घबराहट के कारण शुरू हुआ।",
कोर्ट का यह नतीजा केवल हलफनामे में किए गए केंद्र के दावे पर आधारित था, जिसमें उसने कहा था कि मजदूरों के पलायन के लिए फर्जी खबरें दोषी हैं।
यह आश्चर्य की बात है कि कोर्ट ने यह जांच करना भी जरूरी नहीं समझा की अन्य कारक- जैसे कि बेरोजगारी, गरीबी, भोजन की कमी और आश्रय का अभाव- जिन्होंने प्रवासियों को हताशा की ओर धकेल दिया भी, प्रवासन के लिए जिम्मेदार रहे होंगे।
कोर्ट ने यह नतीजा बिना किसी सबूत और चर्चा के निकाला था, जिसके दो समस्यात्मक प्रभाव थे:
-अप्रत्यक्ष रूप से यह कहकर कि प्रवासियों अपनी दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं, कार्यकारिणी को उसके दायित्वों से मुक्त करना।
-प्रवासियों के कष्टों को, तथाकथित फेक न्यूज का की प्रतिक्रिया बताकर, तुच्छ बताना
फर्जी खबरों पर चिंता व्यक्त करने के बाद, कोर्ट ने "मानसिक स्वास्थ्य के महत्व और उन लोगों को शांत करने की आवश्यकता पर जोर दिया था, जो घबराहट की स्थिति में हैं"।
कोर्ट ने कहा कि प्रशिक्षित काउंसलरों और सभी धर्मों के नेताओं की आश्रय शिविरों में व्यवस्था की जानी चाहिए और अधिकारियों को मजदूरों के साथ "दयालुता" का व्यवहार करना चाहिए।
कोर्ट यह समझने में विफल रहा कि प्रवासियों की "चिंता और भय" केवल धारणा का विषय नहीं है, जिसे परामर्श और आध्यात्मिकता के जरिए ठीक किया जा सकता है, बल्कि बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं की कमी का नतीजा है।
कोर्ट ने 7 अप्रैल को एक बार फिर असंवेदनशीलता का प्रदर्शन किया। हर्ष मंदर और अंजलि भारद्वाज की जनहित याचिका, जिनमें उन्होंने मांग की थी कि केंद्र ने आश्रय गृहों में रह रहे प्रवासी मजदूरों के खातों में मजदूरी हस्तांतरित करे, की सुनवाई करते हुए
सीजेआई बोबडे ने पूछा था कि' उन्हें भोजन दिया जा रहा है, तो फिर उन्हें भोजन के लिए धन की आवश्यकता क्यों है?
Advocate Prashant Bhushan submits that more than 4 lakh migrant workers living in shelter homes.
— Live Law (@LiveLawIndia) April 7, 2020
"A mockery of social distancing" adds Bhushan.#Covid_19 #lockdown
केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों के मुद्दों को उठाने के लिए दायरजनहित याचिकाओं का तीखा विरोध किया। हालांकि पीआईएल को "प्रतिकूल" नहीं माना जाता है, फिर भी सुनवाइयां शत्रुतापूर्ण रहीं।
ध्यान देने योग्य है कि बाल्को कर्मचारी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "जनहित याचिका का मतलब प्रकृति में प्रतिकूल होना नहीं है और यह सभी पक्षों और कोर्ट का सहकारी और सहयोगी प्रयास है ताकि गरीबों और ऐसे कमजोर वर्ग, जो अपने हितों की रक्षा करने की स्थिति में नहीं हैं, के लिए न्याय सुरक्षित हो सके।"
इस प्रकार की न्यायिक घोषणाओं ने अपना अर्थ खो दिया, जब केंद्र व्यक्तिगत हमलों के जरिए याचिकाओं को कुचलने की आक्रामक रणनीति अपनाई।
सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने कहा कि "पीआईएल दुकानें तब तक बंद होनी चाहिए जब तक कि देश इस संकट से बाहर नहीं निकलता"।
उन्होंने कहा, "वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर बिना किसी जमीनी स्तर की जानकारी या ज्ञान के पीआईएल तैयार करना 'सार्वजनिक सेवा' नहीं है।"
उन्होंने याचिकाओं को "रोजगार पैदा करने वाली याचिकाएं" कहा।
बहस तब व्यक्तिगत हमलों तक बढ़ गई जब
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि "कुछ लोगों के सामाजिक कार्य केवल पीआईएल दायर करने तक ही सीमित है।"
जब एक्टिविस्टों कर ओर से पेश, एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि, ऐसे अध्ययन मौजूद हैं, जिनमें बताया गया है कि सुझाव दिया गया था कि 11,000 से अधिक मजदूरों को लॉकडाउन के बाद से न्यूनतम मजदूरी नहीं दी गई है, तब एसजी ने प्रतिवाद किया था-
"किसने कहा कि किसी को पैसे नहीं दिए गए हैं? क्या आपका संगठन पीआईएल दाखिल करने के बजाय किसी अन्य तरीके से मजदूरों की मदद नहीं कर सकता है?"
Justice Sanjay Kishan Kaul to Advocate Prashant Bhushan: "You don't have faith on us. How can we hear you. An order can always be criticised."
— Live Law (@LiveLawIndia) April 27, 2020
Justice Gavai: "UP CM is saying, he will bring back 15 lakh labourers"#covidindia #MigrantWorkers
31 मार्च को, सॉलीसिटर जनरल ने कहा कि कोई भी प्रवासी मजदूर सड़क पर नहीं है, सभी को आश्रय घरों में रख लिया गया है (यह एक ऐसा दावा है, जो कई जमीनी रिपोर्टों में गलत साबित हो चुका है, जिसमें औरंगाबाद की नवीनतम त्रासदी भी शामिल है)।
इस पूरी बहस में कोर्ट निष्क्रिय बनी रही और केंद्र की ओर से दायर स्थिति रिपोर्ट को पूर्ण सत्य मानती रही।
इस बीच, कई मीडिया रिपोर्टें सामने आनी शुरु हो चुकी हैं, जिनसे संकेत मिलता है कि केंद्र का दावा सच्चाई से बहुत दूर था। ऐसी रिपोर्ट रही हैं कि प्रवासी मजदूरों ने सड़क के किनारे पुलों के नीचे शरण ला और उन्हें भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ा। एक रिपोर्ट थी, जिसमें ये बताया गया था कि भूख से मजबूर प्रवासी मजदूरों को दिल्ली के एक श्मशान में केले बीनने पड़े थे।
Hundreds of migrant workers and daily wage earners have taken shelter under a bridge on the banks of the Yamuna. For over a week they are living on one meal a day provided by a Gurudwara nearby.
— NDTV (@ndtv) April 15, 2020
Pictures: @arvindgunasekar pic.twitter.com/mdTnAAInm8
याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट के समक्ष 'द हिंदू' की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि लॉकडाउन की अवधि में 96% प्रवासी मजदूरों को राशन नहीं दिया गया है। 90% को मजदूरी नहीं दी गई है।
प्रतिवाद में सॉलिसिटर जनरल ने एक लाइन जवाब दिया था कि, 'रिपोर्ट सच नहीं हैं' और कोर्ट संतुष्ट हो गई थी। कोर्ट ने केंद्र के दावों पर सवाल उठाने की न इच्छाशक्ति दिखाई थी और न साहस दिखाया था।
21 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने, हर्ष मंदर और अंजलि भारद्वाज की याचिका का निस्तारण कर दिया, और एक मामूली टिप्पणी की कि केंद्र सरकार को याचिकाकर्ता की ओर से पेश "सामग्री" को देखने और "मामले को हल करने लिए ऐसे कदम उठाने को, जो उपयुक्त लगे" कह दिया गया है।
कोर्ट को यह मुद्दा इतना भी गंभीर नहीं लगा कि वह प्रवासियों को तत्काल, ठोस राहत सुनिश्चित करने के लिए एक सकारात्मक और ठोस दिशा निर्देश पारित कर दे। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सामग्रियों, जिनमें दावा किया गया था कि प्रवासी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं प्राप्त हो रही है, पर बात भी नहीं की। चूंकि कोर्ट के निर्देश ढीले और अस्पष्ट हैं, इसलिए उनके प्रभावी अनुपालन की संभावना भी कम ही है।
एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश की एक अन्य याचिका, जिसमें मांग की गई थी कि लॉकडाउन में बेसहारा लोगों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, का भी खंडपीठ ने उस दिन निपटारा कर दिया था। कोर्ट के निपटारे का आधार सॉलिसिटर जनरल का वह बयान था कि "याचिका में उठाए गए पहलुओं पर गौर किया जाएगा और यदि आवश्यक हो तो पूरक निर्देश भी जारी किया जाएगा"।
स्वामी अग्निवेश द्वारा दायर एक अन्य जनहित याचिका पर भी अदालत की प्रतिक्रिया ऐसी ही थी, जिसमें लॉकडाउन के बीच कृषि कार्यों को करने में किसानों को होने वाली कठिनाइयों को उठाया गया था। पीठ ने मात्र एसजी तुषार मेहता का बयान दर्ज करने के बाद कि कृषि मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों की पूरी निगरानी और कार्यान्वयन की जा रहा है, याचिका का निपटारा कर दिया था।
स्वच्छता कर्मियों को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण प्रदान करने के लिए दायर एक याचिका पर, कोर्ट एसजी द्वारा मौखिक रूप से प्रस्तुत जवाब कि केंद्र डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों का पालन कर रहा है, पर मान गई थी और मामले के निपटारा कर दिया था।
लॉकडाउन के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत मजदूरों को मजदूरी का भुगतान करने और अपने गांवों में वापस आने वाले सभी प्रवासियों को अस्थायी जॉब कार्ड जारी करने की मांग करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय और निखिल डे ने एक जनहित याचिका थी। 8 अप्रैल को, अदालत ने सॉलिसिटर जनरल के दावे के आधार पर कि वेतन के बकाया के लिए 5 अप्रैल को 6,800 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था, मामले को लंबे समय कि लिए स्थगित कर दिया कि दी। मामले को लॉकडाउन के दो सप्ताह बाद सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया गया था!
3 अप्रैल को, अदालत ने प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा पर लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा लिखे गए एक पत्र पर स्वतः संज्ञान लिया और पत्र को रिट याचिका में बदल दिया गया और केंद्र सरकार से एक रिपोर्ट मांगी गई। हालांकि, 13 अप्रैल को, अदालत ने बिना किसी कारण के एक पंक्ति के आदेश के जरिए रिट याचिका को खारिज कर दिया।
औरंगाबाद त्रासदी के बाद द हिंदू की एक ग्राउंड-रिपोर्ट से पता चला कि लॉकडाउन के बाद से ही मजदूरों को मजदूरी नहीं मिल रही थी और वे भूख से जूझ रहे थे; रिपोर्ट में कहा गया है कि मनरेगा योजना के जरिए भी मजदूरों का काम और मजदूरी सुनिश्चित नहीं हो पा रही है।
कोर्ट क्या कर सकती है?
26 अप्रैल को, सीजेआई एसए बोबडे ने द हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि धन, जन और समान से सुसज्जित कार्यकारिणी COVID-19 के संकट में बेहतर कर सकती है।
इस मसले पर कोई विवाद नहीं है कि संकट के समय में फैसले लेने के लिए कार्यकारी को अधिकतम छूट दी जानी चाहिए। हालांकि, क्या इसका अर्थ यह है कि अदालतों को ऐसी स्थितियों में मूकदर्शक बने रहना चाहिए और कार्यपालिका की कार्रवाइयों का समर्थन करना चाहिए?
कोर्ट की पुरानी नजीरों को देखें तो इसका उत्तर नहीं होगा। कोर्ट से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह जमीनी स्तर पर मामलों के सूक्ष्म प्रबंधन करे, लेकिन यह संकट की स्थिति में भी वह कार्यपालिका की निगरानी का काम छोड़ नहीं सकती है।
उदाहरण के लिए, विचार करें कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में नवंबर 2019 में फैले वायु प्रदूषण पर कैसे प्रतिक्रिया दी थी। कोर्ट ने इस मुद्दे पर संज्ञान लेते हुए त्वरित हस्तक्षेप किया था, प्रदूषण कम करने के लिए मजबूत, और प्रभावी दिशा-निर्देश पारित किए थे। कोर्ट सिर्फ निर्देश ही नहीं दिया था, अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए स्थितियों की निगरानी भी की थी और अधिकारियों से नियमित स्थिति रिपोर्ट भी मांगी थी। कोर्ट ने अधिकारियों से कड़ाई से काम लिया था और एक मजबूत संदेश दिया था कि कोई भी उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
इसके विपरीत, मजदूरों और गरीबों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रियाएं (जैसा कि इस लेख के पहले भाग में बताया गया है), आकस्मिक और यांत्रिक था।
कोर्ट के पास 'सतत परमादेश' जैसे शक्तिशाली उपकरण मौजूद थे, जिनका उपयोग सरकार के कार्यों की निगरानी के लिए किया जा सकता था। जैसा कि रतलाम नगर पालिका मामले में न्यायमूर्ति वीआर कृष्णा अय्यर ने कहा था कि इस तरह के उपाय यह सुनिश्चित करेंगे कि कार्यकारी "अदालत की निगरानी में है।"
इस संबंध में कुछ उच्च न्यायलायों द्वारा किए गए हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हैं। केरल हाई कोर्ट केरल सरकार द्वारा मेहमान मजदूरों को आश्रय देने के लिए उठाए गए कदमों की निगरानी कर रहा है।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने प्रवासियों को गांव वापस लौटने के अधिकारों के मसले पर कठोर टिप्पणियां कीं, और सरकार को विशेष ट्रेनों पर अपनी स्पष्ट नीति बताने का निर्देश दिया। उड़ीसा हाईकोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रवासियों के मुद्दे पर आवश्यक दिशा-निर्देश दिए थे।
यह आत्मनिरीक्षण करने का समय है कि क्या सुप्रीम कोर्ट प्रभावी तरीकों से लॉकडाउन में वंचितों की पीड़ा को कम कर सकता है। कोर्ट, याचिकाओं को निस्तारित करने के बजाय, कार्यकारी के दायित्वों की निगरानी के लिए उपयोग कर सकता है।
कोर्ट ने इन्हीं दिनों में सकारात्मक निर्देश भी दिए हैं, जैसे कि जेलों में भीड़ कम करने, चिल्ड्रेन होम्स, और विदेशियों की रिहाई के संबंध में दिए गए फैसले। स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा और पीपीई की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए दिए गया आदेश भी सराहनीय है।
फिर भी, समग्र रूप से देखें तो लॉकडाउन अवधि में जनहित के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप विरल हो गया है। कोर्ट ने विशिष्ट मामलों में न्याय किया हो सकता है, लेकिन गरीबों के मामलों में आंखें और कान बंद कर लिए।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता, जो हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए, ने अपने विदाई भाषण में कहा था, "हमारे कानून और हमारी कानूनी प्रणाली पूरी तरह से अमीर और शक्तिशाली के पक्ष में हैं।"
प्रवासी मजदूरों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने खुद की छवि धूमिल की है। अभूतपूर्व मानवीय संकट के बीच कार्रवाई का कारण सतत है, इसलिए प्रवासी मजदूर अभी भी न्यायपालिका से प्रभावी कार्यों की उम्मीद कर सकते हैं।