आधार अधिनियम, 2016 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका में संघ सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि निजता के मौलिक अधिकार तथा भूख, दरिद्रता व बेजारी रहित जीवन यापन के मौलिक अधिकार में यदि द्वंद्व हो तो बाद वाले अधिकार को प्रश्रय देना होगा. वेणुगोपाल का तर्क है कि अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने 1876 में मन बनाम इलिनाइस में प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का निर्वचन करते हुए कहा था कि इसके अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है और जीवन के वे सब आयाम हैं जिनसे मनुष्य का जीवन सार्थक, सम्पूर्ण और जीने योग्य बनता है. महान्यायवादी ने आधार (वित्तीय और अन्य सहायिकियों, सुविधाओं और सेवाओं का लक्षित परिणाम) अधिनियम, 2016 के पक्ष में दलील देते हुए कहा की भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल जीवन का अर्थ केवल पशुवत अस्तित्व या जीवित रहना नहीं है बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है जिसमें रोटी, कपड़ा और मकान के साथ रोज़गार का अधिकार शामिल है.
उनका कहना था कि विशेष पहचान संख्या के ज़रिये लोगों को सब्सिडी, लाभों और सेवाओं का कुशल और पारदर्शी वितरण सुनिश्चित हो सकेगा और इसके लिए यदि नागरिकों को अपने अधिकार पर प्रतिबंध सहना पड़े तो वह वर्तमान स्थिति में अनुमन्य होना चाहिए. वैसे भी कोई अधिकार अंतिम नहीं होता और समय काल के अनुसार उस पर जरूरी प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं. जब दो मौलिक अधिकारों में टकराव या संघर्ष हो तो उस मौलिक अधिकार को तरजीह दी जानी चाहिए जिसमें लोक कल्याण की नीति हो .
अभी हाल में जस्टिस पुत्तुस्वामी के बहुचर्चित वाद में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक माना. आधार पहचान संख्या के लिए उँगलियों तथा आँख की पुतलियों की छाप लिए जाने को निजता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए दायर की गयी याचिका का विरोध करते हुए महान्यायवादी ने अधिनियम द्वारा दी जाने वाली सहायता, सब्सिडी और सेवाओं को अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए अपने तर्क दिए हैं.
मौलिक अधिकारों में टकराव में बृहत्तर लोकनीति को तरजीह देने का यह पहला मामला नहीं है. मुसलमानों में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए पुरुषों के धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार तथा स्त्रियों के गरिमा के साथ जीवन यापन के मौलिक अधिकार के बीच संघर्ष की स्थिति में महिलाओं के हक़ को प्राथमिकता दी गयी है, क्योंकि तीन तलाक़ का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही प्राप्त है जो समानता के अधिकार का स्पष्ट अतिक्रमण है. इसी प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम की वैवाहिक संबन्धों की पुनर्स्थापना वाली धारा 9 को भी पति-पत्नी, दोनों के निजता के अधिकार का उल्लंघन करने वाला बतलाया गया था लेकिन कुटुंब विशेषकर बच्चों के लालन पालन के मौलिक अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है. सड़क पर नरमुंडों के साथ नाचने-गाने के धर्म के मौलिक अधिकार पर आम जनता विशेषकर स्त्रियों में उत्पन्न होने वाले भय से मुक्ति के अधिकार को तरजीह दी गयी. इसी प्रकार रात में दस बजे से सुबह छह बजे तक लाऊडस्पीकर पर धार्मिकता के विभिन्न कार्यक्रमों पर रोक लगाने के नियम को वैध निर्धारित करते हुए छात्रों, बुजुर्गों और बीमार व्यक्तियों के शांतिपूर्ण सोने के अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.
मौलिक अधिकारों के मध्य भिड़न्त का क्लासिक वाद मिस्टर एक्स बनाम जेड हॉस्पिटल (1988) का है जिसमें अनुच्छेद 19(1)(क) द्वारा आच्छादित एकान्तता के अधिकार और जानकारी प्राप्त करने के अधिकार के मध्य टक्कर थी. दरअसल एक युवा डॉक्टर की एचआईवी संक्रमित होने की पैथोलॉजी रिपोर्ट उजागर हो गयी थी तथा इसी कारण उसकी होने वाली वधू ने विवाह करने से इंकार कर दिया था. एड्स से पीड़ित होने के कारण उसे अपनी नौकरी में भी असह्यता झेलनी पड़ी थी. सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा था कि जहाँ तक पुरुष को ऐसी जानकारी गोपनीय रखने का मौलिक अधिकार था वहीं उस स्त्री को यह जानने का भी मौलिक अधिकार था कि उसका होने वाला पति एड्स ऐसे संचारी रोग से पीड़ित तो नहीं है? इन दोनों के मौलिक अधिकारों में संघर्ष की स्थिति में स्त्री का अधिकार प्राथमिकता पायेगा क्योंकि इसमें जनहित शामिल है. यदि बिना जानकारी के ऐसा विवाह हो गया तो इससे आने वाली पीढ़ी के भी इस बीमारी से ग्रस्त होने का खतरा है.
मौलिक अधिकारों में मुठभेड़ का रोचक मुकदमा महाराष्ट्र राज्य बनाम इंडियन होटल एंड रेस्टोरेंट्स संघ (2013) का भी है जिसे बॉम्बे बार डांस केस के नाम से भी जाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने क़ानून बनाकर शराबखानों में डांस करने पर पाबंदी लगा दी थी. इसके औचित्य को सिद्ध करते हुए राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि ये डांस अश्लील होते हैं, वैश्यावृत्ति को बढ़ावा देते हैं और कामुकता फैलाते हैं. इसके विपरीत होटल मालिकों तथा बार बालाओं ने कहा कि उन्हें रोज़गार का मौलिक अधिकार है. विभिन्न पहलुओं पर गौर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सड़कों पर भीख मांगने या अस्वीकार्य माध्यम से रोज़गार पाने की तुलना में डांस करके जीवन यापन कहीं अधिक श्रेयस्कर है. शीर्ष अदालत का कहना था कि बार बालाओं को जीवन यापन तथा/या पुनर्वास का अधिकार है और यदि राज्य इनकी व्यवस्था नहीं कर पाता तो बार में डांस करने से रोकना अनुचित है.
एनडी तिवारी बनाम रोहित शेखर (2012) में एक पिता-पुत्र के बीच प्रतिष्ठा के मौलिक अधिकारों का द्वंद्व था. रोहित शेखर अपने को एनडी तिवारी का पुत्र मानता था तथा पितृत्व की पुष्टि के लिए अपने पिता के रक्त के नमूने की मांग कर रहा था जिससे डीएनए टेस्ट कराया जा सके. उसका कहना था कि पिता का नाम निर्धारण उसके प्रतिष्ठा के अधिकार में शामिल है जबकि तिवारी का तर्क था कि उन्हें रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता क्योंकि यह उनकी निजता तथा नेकनामी के अधिकार का अतिक्रमण होगा अर्थात पिता-पुत्र दोनों ही अपनी प्रतिष्ठा तथा नेकनामी के अधिकारों का दावा कर रहे थे. न्यायालय ने पुत्र के अधिकार को अधिक शक्तिशाली पाया क्योंकि इससे उसकी समाज में स्थिति स्थापित होती है जो लोक नीति के अनुरूप है.
चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थियों के लिए परचा भरते समय अपनी शैक्षिक योग्यता, आस्तियों तथा दायित्वों का विवरण तथा उसके खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों के बारे में शपथपत्र अनिवार्य करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के समय भी अभ्यर्थी की निजता तथा नागरिकों के प्रतिनिधि के बारे में जानकारी प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों में धर्मसंकट के प्रश्न थे लेकिन शीर्ष न्यायालय ने पीयूसीएल बनाम भारत संघ (2003) में जानकारी के अधिकार को लोकहित में वरीयता वाला माना था तथा लोक प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यक संशोधन करने का निर्देश दिया था.
दरअसल, मौलिक अधिकारों में द्वंद्व के प्रश्न संविधानिक दुविधा से उदभूत हैं जब अधिकारों में सामंजस्य/संतुलन करते हुए उनमें स्पर्धा तथा/या असमंजस पैदा होता है. वाक स्वतंत्रता तथा निजता, समता तथा भेदभाव एवं धार्मिक स्वतंत्रता बनाम स्त्रियों के अधिकारों के मध्य ऐसे टकरावों की बात न्यायालय की दहलीज पर गए हैं. विधि के सिद्धांतों तथा संवैधानिक दर्शन के मध्य संतुलन आसान नहीं है और यह तब और भी मुश्किल है जब एक ही पटल पर विपरीत ध्रुव के अधिकारों का दावा किया जाये. लोकनीति एक फिसलन भरी राह है तथा समय, काल तथा परिवेश में बदलती रहती है. किसी स्थिति विशेष में एक को प्राथमिकता देकर दूसरे को अधीनस्थ किया जा सकता है, लेकिन एक सर्वमान्य तथा तार्किक हल असंभव नहीं तो दुरूह अवश्य है.लेकिन इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब हम यह जान जाते हैं कि इन अधिकारों में वास्तविक द्वंद्व क्या है तब हमें एक निश्चित निर्णय पर पहुँचने में देर नहीं लगती. जनतंत्र में मानवाधिकारों तथा मौलिक अधिकारों के बढते कैनवास को संविधान में आत्मसात करने के लिए न्यायपालिका ने अर्थान्वयन के नये सिद्धांत प्रतिपादित कर लिए हैं और यह एक स्वागत योग्य कदम है.
(प्राचार्य, भगवानदीन आर्य कन्या महाविद्यालय , लखीमपुर खीरी, उ.प्र.)