अयोध्या विवाद : इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला 1994 के संविधान पीठ के आदेश पर निर्भर, इसलिए पुनर्विचार जरूरी: राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट में कहा
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को फिरदोहराया कि अयोध्या टाइटल विवाद को तय करने से पहले वह जांच करेगा कि 1994 के पांच जजों की संविधान पीठ केफैसले ‘ मस्जिद इस्लाम और नमाज के धर्म के अभ्यास का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है। मुसलमान कहीं भी, यहां तक कि खुले में भी प्रार्थना कर सकते हैं’ पर फिर से विचार करने की जरूरत है या नहीं।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नज़ीर की तीन न्यायाधीशों की पीठ में मुस्लिम पक्षकार ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने 1994 के फैसले को गलत बताया और पुनर्विचार की आवश्यकता जताई। पिछली सुनवाई के दौरान अदालत नेधवन को कानून के प्रस्तावों का तर्क देने के लिए कहा था जिसकेसंदर्भ में अदालत द्वारा बड़ी बेंच के गठन पर विचार किया जाना आवश्यक है।
शुक्रवार को भी धवन ने 1994 के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा तो CJI ने धवन को स्पष्ट कर दिया, "यदि हम आपके प्रस्तावों से सहमत हुए तो हम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा कानूनी सिद्धांतों को नए सिरे से बताने के लिए कहेंगे। अगर हम आपके तर्क से सहमत नहीं होते और निष्कर्ष पर आते हैं कि अयोध्या में भूमि अधिग्रहण के संदर्भ में 1994 का अवलोकन किया गया था, तो हम इसका उल्लेख नहीं करेंगे।”
इससे पहले एक संक्षिप्त निवेदन में वरिष्ठ वकील के परासरन और सीएस वैद्यनाथन ने इस आधार पर 1994 के फैसले पर फिर से समीक्षा करने का विरोध किया कि इस मामले में टिप्पणियों से टाइटल विवाद तय करने में कोई प्रासंगिकता नहीं है। इसके अलावा 1994 के फैसले में की गई टिप्पणियां अधिग्रहण के संदर्भ में थीं और उनका धर्मनिरपेक्ष चरित्र के साथ कुछ भी लेना देना नहीं है।
1994 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता पर बल देते हुए धवन ने तर्क दिया कि मुस्लिम कानून में मस्जिद का एक विशेष स्थान है और एक बार मस्जिद की स्थापना की जाती है और ऐसी मस्जिद में प्रार्थना की जाती है तो वह अल्लाह की
संपत्ति के रूप में जानी जाती है और कभी भी वापस दाता या मस्जिद के संस्थापक को वापस नहीं दी जा सकती। इस्लामिक विश्वास को स्वीकार करने वाला कोई व्यक्ति इस तरह की मस्जिद में प्रार्थना कर सकता है और यहां तक कि अगर ढांचे को ध्वस्त कर दिया गया हो तो भी जगह एक समान है जहां नमाज की पेशकश की जा सकती है।
वकील ने कहा कि कोर्ट ने ये पाया था कि अयोध्या को हिंदुओं की तीर्थयात्रा के स्थान के रूप में विशेष महत्व बताया कि ये प्राचीन विश्वास है कि भगवान राम वहां पैदा हुए थे जबकि मुस्लिम समुदाय के लिए एक प्राचीन मस्जिद के रूप में मस्जिद का महत्व है जो 1528 ईसवी में मीर बकी ने बनाई थी। विवादित स्थल के दो समुदायों के तुलनात्मक महत्व को इंगित करते हुए अदालत ने कहा कि हिंदुओं की पूजा पर 'यथास्थिति' रहेगी।
उन्होंने कहा कि जब धार्मिक प्रथा सभी धर्मों के लिए आम है, इस्लाम धर्म को पढ़ने और तुलनात्मक महत्व के आधार पर हिंदुओं की स्थिति बढ़ाने के लिए स्वीकार नहीं किया जा सकता।
धवन ने बताया कि विवादित स्थल में रामलला की स्थापना के संबंध में 1994 के फैसले में उस जगह पर पूजा करने के लिए हिंदुओं को मान्यता दी गई थी, लेकिन बाबरी मस्जिद में नमाज देने के लिए मुसलमानों के अधिकारों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया। यह कहा गया है कि मस्जिद इस्लाम और नमाज के धर्म के अभ्यास का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है। (मुसलमान कहीं भी, यहां तक कि खुले में भी प्रार्थना कर सकते हैं, जिस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में टाइटल के मुकदमे में हिंदुओं को एक तिहाई हिस्सा, एक तिहाई मुसलमान और एक तिहाई से राम लला को देने का फैसला 1994 के यथास्थिति आदेश पर निर्भर रहा।
धवन ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को "बर्बर कृत्य" के रूप में वर्णित किया। उन्होंने कहा कि मस्जिद को अपमानित किया गया और राम मूर्ति एक मस्जिद के अंदर स्थापित हुई और इस अदालत ने उस मूर्ति को सुरक्षा दी है जिसे कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। धवन 6 अप्रैल को 1994 के फैसले के पुनर्विचार के लिए अपनी बहस जारी रखेंगे।