कॉलेजियम पद्धति में पारदर्शिता न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को मजबूत करता है
उत्कृष्ट प्रशासन का लक्ष्य प्राप्त करने का एक सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत है महत्तम स्वैच्छिक घोषणा। देश की सर्वोच्च अदालत ने सूचना का अधिकार अधिनियम 2005, के अनुच्छेद 4 (1) के तहत इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है। इससे संबंधित एक नोट में कहा गया है, “कॉलेजियम पद्धति की गोपनीयता बरकरार रखते हुए इसमें पारदर्शिता लाने का प्रस्ताव पास किया गया है। अब आगे से हाई कोर्ट बेंच की पदोन्नति, हाई कोर्ट के जजों को नियमित करने, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की पदोन्नति, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों/न्यायाधीशों के स्थानांतरण और सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्तियों के बारे में कॉलेजियम द्वारा लिए गए निर्णय कारण सहित उस समय सुप्रीम कोर्ट के वेबसाईट पर डाले जाएंगे जब इन्हें सरकार की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा क्योंकि प्रत्येक मौकों पर कॉलेजियम जिन बातों पर गौर करता है वे बातें भिन्न होती हैं। यह एकमुश्त घोषणा “कॉलेजियम प्रस्ताव” नामक नए टैब के तहत सरकारी वेबसाईट पर उपलब्ध होगा जिसमें इस बात का जिक्र होगा कि किसी का चुनाव क्यों किया गया है और किसी प्रस्ताव को नकारने के क्या कारण हैं। इसकी शुरुआत 3 अक्टूबर को मद्रास और केरल हाई कोर्ट के जिला जजों की पदोन्नति से संबंधित पारित प्रस्ताव से हुई। अब यह कार्यपालिका पर सारा दारोमदार है कि वह भी अपने निर्णयों के बारे में इसी तरह की पारदर्शिता अपनाए।
वर्ष 1993 में इसकी शुरुआत के समय से ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सहित देश के पांच वरिष्ठतम जजों की इस मामले में कोई पारदर्शिता नहीं बरतने के लिए काफी आलोचना हुई। यहाँ तक कि इस अपारदर्शिता का बहाना बनाकर सरकार ने जजों की नियुक्ति में अपनी भूमिका बढाने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (एनजेएसी) बनाने का कदम उठाया। जब न्यायमूर्ति जयंत पटेल का कर्नाटक हाई कोर्ट से बाहर स्थानांतरण किया गया तो उन्होंने इसके विरोध में अपना पद छोड़ दिया। और जैसी कि उम्मीद थी, वह हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नहीं बन पाए।
न्यायालयों में खाली पद
सुप्रीम कोर्ट में 31 में से छह और 24 हाई कोर्टों में 413 न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं और इसका सीधा असर न्याय मिलने में देरी के रूप होती है। देश के चार हाई कोर्ट में कुल उपलब्ध पदों का आधे या इससे भी कम जज मौजूद हैं। छह हाई कोर्ट जैसे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, कलकत्ता, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और मणिपुर कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश के तहत काम कर रहा है। ऐसी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट में नए मुख्य न्यायाधीश के पदभार ग्रहण करने से पूर्व सरकार ने इन नियुक्तियों के लिए 61 नाम सुझाए। कई बार तो ऐसा होता है कि कॉलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति के लिए नामों को सुझाने के बाद उन नामों को स्वीकृति देने में सरकार सरकार समय लेती है और कई बार तो इसमें छह महीने का भी वक्त लगा देती है। हालांकि, सरकार ने 2016 में 126 जजों की नियुक्ति की जो कि अपने आप में एक इतिहास है। न्यायालयों में जो रिक्तियां है उसकी वजह से 25 प्रतिशत कम फैसले सुनाए जा रहे हैं। नियुक्तियों में धन का अभाव कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि ये पद पहले से स्वीकृत किए जा चुके हैं। आम आदमी जिसको कि इन रिक्तियों का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है यह नहीं समझ पाता कि पदों को क्यों खाली रखा जाता है, लोगों का चुनाव किस आधार पर किया जाता है, कैसे कुछ लोगों को उम्मीदवार बना दिया जाता है और किस आधार पर कुछ लोगों को छांट दिया जाता है।
पारदर्शिता के लिए कदम
न्यायमूर्ति चेल्मेश्वर ने विरोध प्रकट किया, इस पर बहस की, निराशा व्यक्ति की और कॉलेजियम का बहिष्कार किया ताकि वह पारदर्शिता के पक्ष में कदम उठा सकें। उन्होंने सवाल उठाया कि क्यों जजों के स्थानांतरण को इतना गोपनीय रखा जाता है, क्यों बैठकों का विवरण रिकॉर्ड नहीं किया जाता। उन्होंने जैसे ही कॉलेजियम के आतंरिक कार्यप्रणाली का पर्दाफ़ाश किया, लोगों को लगा कि उनकी इस मांग का समर्थन जरूरी है। उन्होंने कॉलेजियम की बैठक में शामिल नहीं होने का निर्णय किया क्योंकि उनके लिए ऐसा करने का कोई मतलब नहीं था। उन्होंने जजों की नियुक्ति के लिए मेमोरेंडम ऑफ़ प्रैक्टिस (एमओपी) को संशोधित करने को कहा। एक ओर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा की शर्त पर आपत्ति उठाई है जिसकी वजह से सरकार का हाथ ऊपर हो जाता है और वह कॉलेजियम के सुझावों को खारिज कर देता है और फिर कॉलेजियम पर पारदर्शी नहीं होने का आरोप लगाता है। हर ग्रामपंचायत अपनी बैठकों का नोट तैयार करता है और कॉलेजियम नहीं करता। जब न्यायमूर्ति चेल्मेश्वर ने यह लिखा तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ।
मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में न्यायमूर्ति चेल्मेश्वर ने कहा, “मैं जो भी कह रहा हूँ उसमें निजी कुछ भी नहीं है। न्यायिक नियुक्ति का आधार वस्तुपरक मानदंड के आधार पर होना चाहिए। एनजेएसी पर सरकार की दलीलों और संसदीय कानूनों को अस्वीकार कर देने के बाद न्यायपालिका को नियुक्तियों में पारदर्शिता लाने के लिए एक प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए...यह एक सैद्धांतिक पक्ष है। यह किसी निजी लाभ के लिए कोई लड़ाई नहीं है। दो साल से भी कम समय में मैं अवकाश ग्रहण कर लूंगा। मैं इसके बाद किसी तरह की पोस्टिंग की किसी से उम्मीद नहीं रखूंगा। मैं इस आयोग और उस आयोग के लिए भी काम नहीं करूंगा। मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है न ही कॉलेजियम किस तरह काम कर रहा है इसको लेकर आवाज उठाने में मेरा कोई निजी हित है। न्यायमूर्ति चेल्मेश्वर ने पूछा कि क्यों हम जजों के स्थानांतरण और उनके प्रोमोशन के बारे में कारणों को रिकॉर्ड नहीं करते हैं। उन्होंने सिर्फ पारदर्शिता के लिहाज से एनजेएसी का समर्थन किया था और ऐसा करने वाले वे एकमात्र जज थे। असहमति जताने का यह एक ऐतिहासिक मामला था। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को अस्वीकार कर दिया, पीठ के चार जजों का बहुमत इस पक्ष में था कि कॉलेजियम पद्धति में सुधार आना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने जब इस बारे में लोगों की राय आमंत्रित की तो उसे बदलाव के समर्थन में एक-दो महीने में ही 15 हजार पत्र मिले।
कॉलेजियम की बैठक में शरीक न होकर न्यायमूर्ति चेल्मेश्वर अपने कमरे में फाइलों का अध्ययन करते थे और अपनी राय देते थे। अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने यह बताया कि न्यायिक नियुक्तियों में जनता ही सबसे बड़ी साझेदार है और उन्होंने पूछा कि कैसे जनता को इससे अलग रखा जा सकता है? “...औसतन 150 जज हर साल रिटायर होते हैं। नए उम्मीदवार का आकलन करना मुशिकल नहीं है...उम्मीदवार को यहाँ (दिल्ली) बुलाया जा सकता है। कॉलेजियम का हर सदस्य उम्मीदवार के साथ आधा घंटा बिता सकता है, उसके साथ बात कर सकता है, अपनी बात रखने की उसकी योग्यता को खुद परख सकता है, उसका व्यक्तित्व और उसका आचार-व्यवहार मर्यादित है कि नहीं यह खुद देख सकता है। इसमें बमुश्किल दो दिन का समय लगेगा और फिर सभी 150 रिक्तियां तो एक ही बार में नहीं सामने आ जाती हैं।”
जैसे कि पारदर्शिता की मांग बढ़ रही है, न्यायमूर्ति दीपक मिश्र ने इस भारी अपारदर्शिता को समाप्त करने के लिए चुपके से और अचानक कदम उठाया। इससे अच्छे न्याय प्रशासन की नींव पड़ेगी, न्यायपालिका का संरक्षण होगा और इसकी स्वतन्त्रता को मजबूती मिलेगी । न्यायमूर्ति दीपक मिश्र और न्यायमूर्ति ने सचमुच एक इतिहास रच दिया है।
अपनी स्थापना के समय से ही सुप्रीम कोर्ट जनता के मौलिक अधिकारों का संरक्षक रहा है और इस संरक्षण को विस्तारित करने के लिए उसने कार्यपालिका का मार्गदर्शन किया है ताकि वह अच्छा प्रशासन दे सके। हमारे सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2002 में देश के वोटरों को सूचना का अधिकार दिया। वर्ष 1961 (एसपी गुप्ता में) में उसने अपने लिए वरीयता का दावा त्याग दिया और जजों की नियुक्ति और उनके स्थानांतरण के सिलसिले में होने वाले पत्र व्यवहार को गोपनीय नहीं रखने का आदेश दिया। पारदर्शिता के बिना भ्रष्टाचार और भाइभतीजावाद मुक्त प्रशासन की कल्पना नहीं की जा सकती। हर सार्वजनिक संस्थान को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए जो कि गणतंत्र का वास्तविक मालिक है। राजनीतिक कार्यपालिका के सन्दर्भ में उम्मीदवारी के बारे में खुलकर बातचीत होती है और निर्णय लिए जाते हैं; प्रशासनिक अधिकारियों का चुनाव यूपीएससी करता है। विधायिका में क़ानून बनाने के लिए खुली बहस होती है। कोई फैसला खुले रूप में सुनाया जाता है।
केनरा बैंक मामले की समीक्षा
और अब न्यायिक नियुक्तियों में अपारदर्शिता को समाप्त किया जा रहा है। जब जजों की नियुक्ति, पदस्थापना और स्थानांतरण से संबंधित कारणों और उनके प्रस्तावों के बारे में जाना जा सकता है तो फिर क्लर्कों और अन्य सरकारी अधिकारियों के बारे में सूचना कैसे निजी हो सकता है और इस बारे में कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया जा सकता? केनरा बैंक बनाम सीएस स्याम मामले में 31 अगस्त 2017 को दिए गए फैसले को 1961 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले और कॉलेजियम की कार्यवाही को सार्वजनिक करने के फैसले के आलोक में पुनरीक्षण जरूरी है।