किसी भी विवाद में अंतरिम राहत लेते समय सबसे महत्वपूर्ण यह होता है कि मामले के पक्षकार को अवार्ड या डिक्री के तहत फायदा दिया जा सके या उसे फायदा मिल सके। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए आर्बिट्रेशन एंड कंसिलिएशन एक्ट 1996 की धारा 9 व 17 के तहत इसी तरह की राहत देने के लिए दो अंग उपलब्ध कराए गए है।
इन्हीं अभिलक्षण पर ध्यान देते हुए आर्बिट्रेशन एंड कंसिलिएशन (संशोधित)एक्ट 2015 लागू किया गया,जिसके तहत एक्ट में कई बदलाव किए गए थे। सबसे बड़ा बदलाव यह था कि किसी भी आर्बिट्रेशन केस का रेफरेंस मिलने के 12 महीने के अंदर उसे निपटा दिया जाए। साथ आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल द्वारा सिविल कोर्ट के समान पक्षकार को अंतरिम राहत दी जाए।
इतना ही नहीं संशोधन से पहले अगर कोई सफल पक्षकार आर्बिट्रेशनट्रिब्यूनल से कोई अंतरिम राहत ले ली भी लेता था तो उसके पास एक्ट के तहत कोई ऐसा साधन नहीं था,जिसके जरिए वह अपने इस अंतरिम आदेश को लागू करवा सकें। ऐसा इसलिए था क्योंकि एक्ट के तहत कोई ऐसा प्रावधान नहीं था, अगर दूसरा पक्ष इस आदेश को मानने से इंकार कर दे तो तरह के अंतरिम आदेश को लागू करवाया जा सकें।
आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल एक अप्रभावी फोरम थी। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर यह कह चुकी थी कि धारा 17 के तहत अर्बिटेªल ट्रिब्यूनल द्वारा पास किए आदेशों को लागू नहीं किया जा सकता है। परिणामस्वरूप अंतरिम राहत मांगने वाले पक्षकारों को अंत में धारा 9 के तहत कोर्ट के समक्ष केस दायर करना पड़ता था। जिस कारण कई सारी प्रक्रियाएं एक साथ शुरू हो जाती थी और इस एक्ट को बनाने का पूरा उद्देश्य निरस्त हो जाता था।
इस संबंध में यह बताना भी जरूरी है कि एक्ट के तहत फाइनल अवार्ड को एक्ट की धारा 36 के तहत लागू करवाया जा सकता है। संशोधन से पहले सिर्फ धारा 27 के तहत ही अर्बिटेªल ट्रिब्यूनल को सशक्त बनाया गया था। इस धारा के तहत अगर कोई पक्षकार आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल के आदेश का पालन नहीं कर पाता था या जानबूझकर उसका उल्लंघन करता था या आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल की कार्यवाही के दौरान अवमानना करता था तो उसे उसी तरह की सजा कोर्ट द्वारा आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल की अनुशंसा पर दी जा सकती थी। हालांकि असल में अर्बिटेªल ट्रिब्यूनल इस तरह की अनुशंसा या ज्ञापन कोर्ट के समक्ष करने से बचती थी,भले ही किसी पक्षकार ने ऐसा करने के लिए कहा हो। इस तरह का ज्ञापन न मिलने के कारण कोर्ट किसी भी ऐसे पक्षकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही नहीं कर पाती थी,जो इस तरह के काम के लिए दोषी हो।
हालांकि संशोधन के बाद अप्रभावी आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल को अब सशक्त बना दिया गया है क्योंकि अब पक्षकार आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल के आदेश को लागू करवा सकती है। पहले यह होता था कि अगर कोई पैसा रिकवरी का केस हो और आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल ने दूसरे पक्ष को यह निर्देश दे दिया हो कि वह सिक्योरटी जमा करा दे,परंतु वह ऐसा करने से इंकार कर दे तो पहले पक्षकार को फिर एक्ट की धारा 9 के कोर्ट का ही रूख करना पड़ता था और इस तरह की राहत लेनी पड़ती थी।
अब संशोधन के तहत एक्ट में धारा 17 जोड़ दी गई है,जिसने अर्बिटेªल ट्रिब्यूनल को कोर्ट की तरह पाॅवर दे दी है। संशोधन के बाद अगर अर्बिटेªल ट्रिब्यूनल धारा 17 के तहत कोई आदेश देती है तो उस आदेश को हर तरह से कोर्ट के आदेश की तरह माना जाएगा ओर कोड आॅफ सिविल प्रोसिजर 1908 के तहत कोर्ट के आदेश की तरह ही लागू करवाया जा सकेगा। यह कदम एक काफी बड़ा व विकासशील कदम है,जिसके तहत मामलों को सुलझाने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध हो जाएगा।
अंत में यह कहा जा सकता है कि एक्ट में संशोधन के तहत आर्बिटरल ट्रिब्यूनल से राहत मांगने वाले पक्षकारों को अब वह सभी राहत उपलब्ध हो गई है,जो उनको कोर्ट से मिल सकती थी। परंतु इस तरह की राहत अर्बिटेªल ट्रिब्यूनल प्रक्रिया के तहत ही ली जा सकती है,उससे पहले नहीं।
इस कदम से अब मामलों को सुलझाने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध हो गई है। इस संशोधन के बाद आशा की जा रही है कि पक्षकार व आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल एक अग्रसक्रिय भूमिका निभाएंगे और इस संशोधन का पूरा फायदा उठाएंगे। अब ऐसे मामलों में कोर्ट का हस्तक्षेप कम हो जाएगा,जो इस एक्ट का एक उद्देश्य है।
लक्कीराज इंदोरकर,जे.सागर एसोसिएट्स में सीनियर एसोसिएट है।
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