हाईकोर्ट अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र के तहत अपील या पुनर्विचार न्यायालय के रूप में कार्य नहीं करता: उत्तराखंड हाईकोर्ट

Update: 2024-06-21 05:34 GMT

अभियुक्त द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत दायर आवेदन खारिज करते हुए जस्टिस आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने कहा,

"यह अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र व्यापक होने के बावजूद मनमाने ढंग से या मनमानी तरीके से प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि वास्तविक और पर्याप्त न्याय करने के लिए उचित मामलों में इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। इस धारा के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय न्यायालय अपील या पुनर्विचार न्यायालय के रूप में कार्य नहीं करता है।"

आवेदन में गढ़वाल न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष लंबित आपराधिक मामले की पूरी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की गई। हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिए धारा 482 सीआरपीसी के तहत अपने अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र का संयम से उपयोग किया जाना चाहिए।

मामले की पृष्ठभूमि:

यह मामला 1973 में गठित और 1981 में पंजीकृत वैदिक संस्थान के इर्द-गिर्द घूमता है। 23 अक्टूबर, 2011 को संरक्षक की मृत्यु के बाद संस्थान के पूर्व ड्राइवर ने खुद को संरक्षक की संपत्ति का वारिस और संरक्षक बताते हुए वसीयत पेश की। जाली वसीयत पेश करने के लिए उसके खिलाफ़ एफआईआर दर्ज की गई। उस पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 420, 467, 468 और 471 के तहत आरोप लगाए गए।

बाद की जांच में पता चला कि वसीयत नकली थी और उसके खिलाफ़ दो दीवानी मुकदमे दायर किए गए, जिनका फ़ैसला उस पक्ष के पक्ष में हुआ, जिसने इसकी प्रामाणिकता को चुनौती दी थी। 2019 में सोसायटी के नवीनीकरण के दौरान जाली दस्तावेज़ जमा करने का आरोप लगाते हुए दूसरी एफआईआर दर्ज की गई।

इन कार्यवाहियों का विरोध करते हुए आवेदक का प्रतिनिधित्व करने वाले रामजी श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि 30 अगस्त, 2010 की तारीख वाली वसीयत वास्तविक थी और संस्थान के संरक्षक स्वामी हंसराज द्वारा आवेदक के पक्ष में निष्पादित की गई। उन्होंने तर्क दिया कि विवाद प्रकृति में सिविल था, क्योंकि दो सिविल मुकदमे पहले ही तय हो चुके थे और दो सिविल अपील अभी भी लंबित थीं।

उन्होंने आगे तर्क दिया कि 2019 की आरोपित एफआईआर में 2012 की एफआईआर के समान आरोप थे। इसलिए इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) और धारा 300 सीआरपीसी द्वारा प्रतिबंधित किया गया।

इसके अतिरिक्त, उन्होंने दावा किया कि आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण इरादों के साथ और आवेदक द्वारा प्रतिवादी के खिलाफ दर्ज की गई आपराधिक कार्यवाही के जवाब में शुरू की गई।

राज्य के लिए प्रतिरूप पांडे और प्रतिवादी के लिए यश मिश्रा ने तर्क दिया कि दूसरी एफआईआर सोसायटी के नवीनीकरण के दौरान प्रस्तुत किए गए जाली दस्तावेजों से संबंधित नए तथ्यों पर आधारित थी, जो पिछली एफआईआर से अलग थी।

उन्होंने तर्क दिया कि हाईकोर्ट को इस स्तर पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि आरोपों से संज्ञेय अपराध का पता चलता है।

न्यायालय की टिप्पणियां:

प्रतिद्वंद्वी दलीलों का विश्लेषण करने पर न्यायालय ने कहा कि नई एफआईआर नए तथ्यों पर आधारित थी, जिसका पिछली एफआईआर में लगाए गए आरोपों से कोई संबंध नहीं था। इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(2) और संहिता की धारा 300 के उल्लंघन का दावा निराधार था।

इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि वसीयत की वास्तविकता पर विवाद अभी भी सिविल अपील में लंबित है। विवाद के सिविल प्रकृति का होने के आधार पर आपराधिक कार्यवाही रद्द नहीं की जा सकती।

न्यायालय ने परमजीत बत्रा बनाम उत्तराखंड राज्य और अन्य (2013) का भी हवाला दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि दीवानी विवाद जरूरी नहीं कि आपराधिक कार्यवाही को रोक दें।

न्यायालय ने कहा,

"यह सच है कि तथ्यों का एक निश्चित समूह दीवानी अपराध के साथ-साथ आपराधिक अपराध भी बना सकता है। केवल इसलिए कि वर्तमान एफआईआर के सूचनादाता के पास दीवानी उपाय उपलब्ध था, वह अपने आप में आपराधिक कार्यवाही रद्द करने का आधार नहीं हो सकता। असली परीक्षा यह है कि आरोपों से आपराधिक अपराध का पता चलता है या नहीं।"

यह देखते हुए कि न्यायालय अपने अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत सामान्यतः यह जांच नहीं करेगा कि प्रश्नगत साक्ष्य विश्वसनीय है या नहीं या उसके आरोप की उचित सराहना के आधार पर उसे सही नहीं ठहराया जा सकता, न्यायालय ने रेखांकित किया,

“यह ट्रायल कोर्ट का कार्य है। आरोपों की सत्यता का निर्णय केवल ट्रायल के दौरान ही किया जा सकता है, जब साक्ष्य प्रस्तुत किए जाएं। यह न्यायालय धारा 482 के अंतर्गत आवेदन में समानांतर सुनवाई नहीं कर सकता।”

जस्टिस वर्मा ने कहा,

“इस स्तर पर इस न्यायालय का कार्य तथ्यात्मक क्षेत्र में प्रवेश करना और यह तय करना नहीं है कि आरोप सही हैं या नहीं या वे आवेदक द्वारा शुरू की गई किसी कार्यवाही का प्रतिवाद हैं। यह न्यायालय आरोपों की सत्यता की भी जांच नहीं करेगा, क्योंकि यह न्यायालय धारा 482 के अंतर्गत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए अपील या पुनर्विचार न्यायालय के रूप में कार्य नहीं करता।”

इन टिप्पणियों के अनुरूप न्यायालय ने आवेदन खारिज करते हुए निष्कर्ष निकाला कि आपराधिक मामले को ट्रायल के लिए आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

केस टाइटल: रवींद्र ब्रह्मचारी बनाम उत्तराखंड राज्य

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