मतदाता पहचान पत्र/मतदाता सूची जन्म तिथि का निर्णायक प्रमाण नहीं: उड़ीसा हाईकोर्ट
उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि मतदाता सूची/मतदाता पहचान पत्र में दी गई जन्म तिथि, भले ही साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के तहत सार्वजनिक दस्तावेज के रूप में प्रासंगिक हो लेकिन वास्तविक जन्म तिथि का निर्णायक प्रमाण नहीं है।
मतदाता पहचान पत्र में दी गई जन्म तिथि के आधार पर बीमा दावा खारिज करते हुए डॉ. जस्टिस संजीव कुमार पाणिग्रही की एकल पीठ ने कहा,
“यह आम तौर पर भारतीय न्यायालयों द्वारा स्वीकार किया जाता है कि मतदाता पहचान पत्र/मतदाता सूची में दर्ज जन्म तिथि पर किसी व्यक्ति की आयु निर्धारित करने के लिए भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। बीमा कंपनियों की नीतियों में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया, जो मतदाता पहचान पत्र को गैर-मानक प्रमाण दस्तावेज के रूप में वर्गीकृत करती हैं।”
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता (पॉलिसी धारक) के पिता ने भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) के साथ तीन पॉलिसियाँ बनवाई थीं।
LIC ने संबंधित पॉलिसियों में बांड जारी किए थे। पॉलिसियाँ खरीदते समय, पॉलिसी धारक ने अपनी जन्म तिथि 18.03.1952 बताई थी।
इसके बाद पॉलिसी धारक की वर्ष 2012 में मृत्यु हो गई। याचिकाकर्ता ने नामिती होने के नाते LIC से बीमित राशि का दावा किया। हालाँकि वह दो पॉलिसियों के संबंध में बीमित राशि प्राप्त कर सकती थी लेकिन तीसरी पॉलिसी के संबंध में उसका दावा इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि बीमा पत्रों में दी गई जन्म तिथि मतदाता पहचान पत्र में दी गई जन्म तिथि से मेल नहीं खाती।
पीड़ित होने के कारण याचिकाकर्ता ने विवाद के निपटारे के लिए बीमा लोकपाल से संपर्क किया। हालाँकि लोकपाल ने पॉलिसी धारक की आयु छिपाने के आधार पर दावे को खारिज करने की पुष्टि की।
याचिकाकर्ता ने बीमा लोकपाल, ओडिशा द्वारा पारित अवार्ड को चुनौती देते हुए यह रिट याचिका दायर की है।
न्यायालय की टिप्पणियां
मामले के अभिलेखों का अवलोकन करने के पश्चात न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि तीन पॉलिसियों में से एक में जन्म तिथि मतदाता पहचान पत्र के आधार पर दर्ज की गई थी, दूसरी में स्कूल प्रमाण पत्र के आधार पर तथा तीसरी में पिछली पॉलिसी में की गई प्रविष्टि के आधार पर दर्ज की गई थी।
इसके पश्चात जब पॉलिसी में दर्ज जन्म तिथि जो स्कूल प्रमाण पत्र के साथ थी, मतदाता पहचान पत्र में उल्लिखित जन्म तिथि से मेल नहीं खाती थी तो LIC ने याचिकाकर्ता का दावा खारिज कर दिया।
इस प्रकार न्यायालय का विचार था कि विवाद का समाधान इस सरल प्रश्न पर निर्भर करता है कि मतदाता पहचान पत्र या मतदाता सूची में दर्ज जन्म तिथि का साक्ष्य मूल्य क्या है तथा क्या ऐसी प्रविष्टियों को किसी व्यक्ति की वास्तविक जन्म तिथि के विश्वसनीय प्रमाण के रूप में माना जा सकता है।
उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देने के लिए न्यायालय ने सुशील कुमार बनाम राकेश कुमार में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि मतदाता सूची और मतदाता पहचान पत्र में दर्ज जन्म तिथि संबंधित व्यक्ति द्वारा दिए गए बयान के अनुसार दर्ज की जाती है। इसलिए जन्म तिथि का निर्णायक प्रमाण नहीं है।
इसके अलावा बबलू पासी बनाम झारखंड राज्य पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मतदाता सूची में प्रविष्टि के आधार को दर्शाने वाले साक्ष्य के अभाव में केवल मतदाता सूची की एक प्रति प्रस्तुत करना आयु स्थापित करने के लिए अपर्याप्त है।
राम कृपाल उर्फ चिरकुट बनाम उप निदेशक चकबंदी और अन्य में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी यही रुख अपनाया था।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बीमाकर्ता मतदाता पहचान पत्र के बजाय स्कूल प्रमाण पत्र या प्रमाणित नगरपालिका रिकॉर्ड जैसे अधिक आधिकारिक दस्तावेजों को प्राथमिकता देते हैं।
उन्होंने आगे कहा,
“मतदाता पहचान पत्र नागरिक कर्तव्यों के लिए एक व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त पहचान दस्तावेज है, इसे अक्सर बीमा उद्योग के भीतर जन्म तिथि का गैर-मानक प्रमाण माना जाता है। यह वरीयता मतदाता पहचान पत्र के प्राथमिक उद्देश्य से उत्पन्न होती है, जो किसी के जन्म का कालानुक्रमिक रिकॉर्ड स्थापित करने के बजाय मतदान के लिए पात्रता की पुष्टि करता है।”
तदनुसार पीठ का मानना था कि LIC ने याचिकाकर्ता के दावे को केवल इस आधार पर खारिज करने में गलती की कि याचिकाकर्ता के मतदाता पहचान पत्र में दर्ज जन्म तिथि बीमा पॉलिसी में दर्ज तिथि से भिन्न है जो स्कूल प्रमाण पत्र के आधार पर बनाई गई थी।
केस टाइटल- तपस्विनी पांडा बनाम क्षेत्रीय प्रबंधक, एलआईसी ऑफ इंडिया, पटना और अन्य।