रिट कोर्ट स्वतःसंज्ञान से ऐसे अधीनस्थ विधान को निरस्त कर सकते हैं, जो मौलिक अधिकारों और प्रचलित मिसालों का उल्लंघन करते हैं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि रिट न्यायालयों के पास स्वतःसंज्ञान से ऐसे अधीनस्थ विधान को निरस्त करने का अधिकार है, जो संविधान में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिससे वह निरस्त और असंवैधानिक हो जाता है।
न्यायालय ने कहा कि उसे स्वतःसंज्ञान से किसी अधीनस्थ विधान को अमान्य घोषित करने की शक्ति न देने का कोई कारण नहीं दिखता, क्योंकि यह संवैधानिक न्यायालयों की शक्तियों के विशाल भंडार के भीतर किसी मौलिक अधिकार के स्पष्ट रूप से विपरीत है।
न्यायालय ने कहा,
"देश में रिट न्यायालयों का कर्तव्य न केवल उन व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को लागू करना है, जो उनके पास आते हैं, बल्कि रिट न्यायालयों का यह भी कर्तव्य है कि वे राज्य के तीनों अंगों द्वारा दूसरों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से सुरक्षा करें।"
न्यायालय ने कहा,
"यदि किसी मामले में यह पाया जाता है कि अधीनस्थ कानून के संचालन के परिणामस्वरूप मौलिक अधिकार का गंभीर उल्लंघन हुआ है। इस मामले का निपटारा इस न्यायालय के बाध्यकारी निर्णय द्वारा किया जाता है तो हम रिट न्यायालयों का यह कर्तव्य मानते हैं कि वे अधीनस्थ कानून को अमान्य घोषित करके न्याय प्रदान करें, जिससे उन अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा हो सके, जो इससे प्रभावित नहीं हुए।"
साथ ही न्यायालय ने चेतावनी दी कि इस शक्ति का प्रयोग बहुत कम ही किया जाना चाहिए। न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि अधीनस्थ कानून को राज्य की सुनवाई के बिना रद्द नहीं किया जा सकता, यह कहते हुए कि जबकि ऐसे कानून को प्राथमिक कानून की तरह संवैधानिकता का अनुमान है, यह रिट न्यायालयों को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने पर उसे रद्द करने से नहीं रोकता है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अधीनस्थ कानून की वैधता का आकलन करते समय रिट न्यायालयों को सख्त जांच लागू करने के बजाय सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने का अधिकार है।
अदालत ने कहा,
"आखिरकार, अधीनस्थ कानून को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग माना जाता है, जो प्राथमिक कानून से निकटता से जुड़ी होती है। इसलिए उचित मामलों में अधिक कठोर जांच अनुपयुक्त नहीं हो सकती है।"
अदालत ने कहा कि अधीनस्थ कानून से संबंधित अनुमान का स्तर वास्तव में भिन्न हो सकता है, जो कि "(i) अधीनस्थ कानून की प्रकृति; (ii) संविधान या मूल कानून जो इसका स्रोत है, के प्रति अपमानजनक पाया जाने वाला स्तर; (iii) अधीनस्थ कानून को लागू करने की अनिवार्यताएं और तरीका; और (iv) व्यक्तिगत अधिकारों के साथ-साथ सार्वजनिक हित पर संभावित प्रभाव" जैसे कारकों पर निर्भर करता है।
मामला
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें पटना हाईकोर्ट ने अपनी स्वप्रेरणा शक्तियों का प्रयोग करते हुए बिहार चौकीदारी संवर्ग (संशोधन) नियम, 2014 को रद्द कर दिया, क्योंकि इसने रिटायर चौकीदार को अपने स्थान पर नियुक्ति के लिए आश्रित रिश्तेदारों को नामित करने की अनुमति दी। पटना हाईकोर्ट की खंडपीठ ने इस प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 16 (सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर) का उल्लंघन बताते हुए खारिज कर दिया, जबकि इस प्रावधान को कोई औपचारिक चुनौती नहीं दी गई थी।
हाईकोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्ता-बिहार राज्य दफादार चौकीदार पंचायत (मगध प्रमंडल) जो मूल रूप से पक्षकार नहीं है, ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने इस नियम को असंवैधानिक घोषित करने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया, जबकि वंशानुक्रम नियम की संवैधानिकता को न्यायालय के समक्ष चुनौती नहीं दी गई।
मुद्दा
न्यायालय के विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या हाईकोर्ट द्वारा अपनी स्वप्रेरणा शक्तियों के प्रयोग में वंशानुक्रम नियम को असंवैधानिक घोषित करना उचित था, जबकि इसके विरुद्ध कोई औपचारिक चुनौती नहीं दी गई।
निर्णय
हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय ने अपीलकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि हाईकोर्ट ने उस नियम को चुनौती देने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया, जिसकी संवैधानिकता पर न्यायालय के समक्ष प्रश्न नहीं उठाया गया।
न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट द्वारा अधीनस्थ विधान को असंवैधानिक घोषित करने के लिए स्वप्रेरणा से शक्तियों के प्रयोग को बरकरार रखा, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन करता है।
न्यायालय ने हाईकोर्ट का निर्णय बरकरार रखा, यह तर्क देते हुए कि यह माना जा सकता है कि हाईकोर्ट को पता था कि नियुक्तियों को वंशानुगत अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता। इसलिए आपत्तिजनक प्रावधान को औपचारिक चुनौती न दिए जाने के बावजूद, इसे रद्द करने का हाईकोर्ट का निर्णय अपने आप में अवैध नहीं था।
अदालत ने टिप्पणी की,
"हमें इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि अनुच्छेद 141 के संदर्भ में बाध्यकारी मिसालों के साथ पढ़े गए मौलिक अधिकार के स्पष्ट रूप से विपरीत होने के आधार पर किसी अधीनस्थ कानून को स्वतः संज्ञान से अमान्य घोषित करने की शक्ति को संवैधानिक न्यायालयों की शक्तियों के विशाल भंडार के भीतर क्यों नहीं माना जाना चाहिए। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार क्षेत्र के प्रयोग में किसी उपयुक्त मामले में स्वतःसंज्ञान से शक्तियों के प्रयोग पर संदेह नहीं किया जा सकता, लेकिन यह निर्विवाद है कि ऐसी शक्ति का प्रयोग संयम से और उचित सावधानी और सतर्कता के साथ किया जाना चाहिए।"
न्यायालय ने आगे कहा,
“यह शक्ति (स्वतः) सभी संवैधानिक न्यायालयों में निहित एक पूर्ण शक्ति है। यदि किसी मामले में यह पाया जाता है कि अधीनस्थ विधान के संचालन के परिणामस्वरूप मौलिक अधिकार का घोर उल्लंघन हुआ है। इस मामले का निपटारा इस न्यायालय के बाध्यकारी निर्णय द्वारा किया जाता है तो हम रिट न्यायालयों का यह कर्तव्य मानते हैं कि वे अधीनस्थ विधान को अमान्य घोषित करके न्याय प्रदान करें, जिससे अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा हो सके, जो इससे प्रभावित नहीं हुए हैं। हम दोहराते हैं कि ऐसा केवल विरले ही किया जा सकता है और ऐसे मामलों में जो सामान्य से अलग हों।”
इस प्रकार, तदनुसार, न्यायालय ने अपील खारिज कर दी।
केस टाइटल: बिहार राज्य दफादार चौकीदार पंचायत (मगध प्रमंडल) बनाम बिहार राज्य और अन्य