स्त्रीधन की पूर्ण स्वामी महिला, पिता उसकी अनुमति के बिना ससुराल वालों से इसकी वसूली नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्त्रीधन महिला की एकमात्र संपत्ति है और उसका पिता उसकी स्पष्ट अनुमति के बिना ससुराल वालों से स्त्रीधन की वसूली का दावा नहीं कर सकता।
न्यायालय ने टिप्पणी की,
"इस न्यायालय द्वारा विकसित न्यायशास्त्र स्त्रीधन की एकमात्र स्वामी होने के नाते महिला (पत्नी या पूर्व पत्नी) के एकमात्र अधिकार के संबंध में स्पष्ट है। यह माना गया कि पति को कोई अधिकार नहीं है और तब यह आवश्यक रूप से निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि पिता को भी कोई अधिकार नहीं है, जब बेटी जीवित, स्वस्थ और अपने 'स्त्रीधन' की वसूली जैसे निर्णय लेने में पूरी तरह सक्षम है।"
जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस संजय करोल की खंडपीठ ने तलाकशुदा महिला के पिता द्वारा दायर एफआईआर खारिज की, जिसमें उसके पूर्व ससुराल वालों से उसके 'स्त्रीधन' (विवाह के समय दिए गए उपहार और आभूषण) की वसूली की मांग की गई।
“हमें लगता है कि कानून में ऐसी स्थिति का प्रावधान है, जहां महिला कानून के अनुसार, अपने द्वारा चुने गए किसी व्यक्ति को कोई ऐसा कार्य करने का अधिकार दे सकती है, जिसे वह स्वयं निष्पादित कर सकती है। पावर ऑफ अटॉर्नी अधिनियम, 1882 की धारा 5 में निम्नलिखित प्रावधान है:- “5. विवाहित महिलाओं की पावर ऑफ अटॉर्नी। - एक विवाहित महिला, जो पूर्ण वयस्क है, उसको इस अधिनियम के आधार पर गैर-वसीयतनामा लिखत द्वारा, किसी गैर-वसीयतनामा लिखत को निष्पादित करने या कोई अन्य कार्य करने के उद्देश्य से जिसे वह स्वयं निष्पादित या कर सकती है, अपनी ओर से अटॉर्नी नियुक्त करने की शक्ति होगी; और पावर ऑफ अटॉर्नी बनाने वाले लिखतों से संबंधित इस अधिनियम के प्रावधान इस पर लागू होंगे। यह धारा केवल इस अधिनियम के लागू होने के बाद निष्पादित किए गए लिखतों पर लागू होती है।”
न्यायालय ने कहा कि इस बात पर विवाद नहीं किया जा सकता कि इस अधिनियम के अर्थ में शिकायतकर्ता की बेटी द्वारा अपने पिता प्रतिवादी नंबर 2 के पक्ष में कोई पावर ऑफ अटॉर्नी निष्पादित नहीं की गई। न्यायालय ने आगे कहा कि महिला के तलाक के पांच साल से अधिक समय बाद और उसके पुनर्विवाह के तीन साल बाद दर्ज की गई एफआईआर में कोई दम नहीं।
शिकायतकर्ता ने अपनी बेटी के पूर्व ससुराल वालों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई, जिसमें उन पर उसका 'स्त्रीधन' रोकने का आरोप लगाया गया- जिसमें 1999 में उसकी शादी के समय दिए गए 40 कसुला सोना और अन्य सामान शामिल थे। बेटी ने 2016 में अपने पति को तलाक दे दिया और 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका में दोबारा शादी कर ली थी। तलाक के समय अलगाव समझौते के माध्यम से समय बीतने और सभी वैवाहिक मुद्दों के निपटारे के बावजूद, पिता ने जनवरी 2021 में एफआईआर दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि ससुराल वालों ने 'स्त्रीधन' वापस नहीं किया है।
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 406 के तहत आपराधिक विश्वासघात और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 6 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया। पूर्व ससुराल वालों ने कार्यवाही रद्द करने के लिए तेलंगाना हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने 22 दिसंबर, 2022 को एफआईआर रद्द करने से इनकार किया, आरोप पत्र में आरोपों को प्रथम दृष्टया विचारणीय पाया। इस प्रकार, आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।
सुप्रीम कोर्ट ने विचार किया कि क्या पिता के पास प्राथमिकी दर्ज करने का कोई अधिकार है। न्यायालय ने स्थापित कानूनी सिद्धांत पर जोर दिया कि 'स्त्रीधन' महिला की विशेष संपत्ति है।
न्यायालय ने प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार और रश्मि रश्मि कुमार बनाम महेश कुमार भादा, माया गोपीनाथन बनाम अनूप एसबी और माला कर बनाम उत्तराखंड राज्य सहित कई मिसालों का हवाला दिया, जो पुष्टि करते हैं कि महिला का अपने 'स्त्रीधन' पर पूर्ण स्वामित्व होता है और न तो उसका पति और न ही कोई अन्य रिश्तेदार उस पर कोई अधिकार का दावा कर सकता है। न्यायालय ने आगे कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 के तहत, एक हिंदू महिला अपनी संपत्ति की पूर्ण स्वामी है, जिसमें 'स्त्रीधन' भी शामिल है।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि एफआईआर धारा 406 आईपीसी के तहत आपराधिक विश्वासघात के मानदंडों को पूरा करने में विफल रही। न्यायालय ने कहा कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि शिकायतकर्ता ने 'स्त्रीधन' अपीलकर्ताओं को सौंपा था या उन्होंने बेईमानी से उसका दुरुपयोग किया। न्यायालय ने यह भी कहा कि एफआईआर काफी देरी से दर्ज की गई और देरी के लिए कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।
न्यायालय ने बताया कि बेटी और उसके पूर्व पति के बीच अलगाव समझौते ने तलाक के समय व्यक्तिगत सामान के बंटवारे सहित सभी मुद्दों को स्पष्ट रूप से हल कर दिया। समझौते में एक खंड शामिल था, जो दोनों पक्षों को किसी भी आगे के दावे से मुक्त करता था। इस प्रकार दहेज निषेध अधिनियम की धारा 6 के तहत आरोप नहीं बनता है।
सुप्रीम कोर्ट ने एफआईआर और उसके बाद की आपराधिक कार्यवाही रद्द की, इस बात पर जोर देते हुए कि कानून का इस्तेमाल प्रतिशोध के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने कहा,
"हम आगे यह भी देख सकते हैं कि आपराधिक कार्यवाही का उद्देश्य गलत काम करने वाले को न्याय के कटघरे में लाना है। यह उन लोगों के खिलाफ बदला लेने या प्रतिशोध लेने का साधन नहीं है, जिनके साथ शिकायतकर्ता की दुश्मनी हो सकती है।
उल्लेखनीय है कि एफआईआर में अधिकारियों से अनुरोध किया गया कि वे शिकायतकर्ता द्वारा अपनी बेटी को शादी के समय दिए गए उपहार वापस न करने के लिए अपीलकर्ता के खिलाफ कार्रवाई करें। हालांकि, आरोप-पत्र में ऐसी शिकायत दहेज की मांग और शादी से संबंधित कार्यों के लिए खर्च उठाने के लिए दबाव डालने में बदल जाती है।
न्यायालय ने कहा कि जिस प्रश्न का उत्तर दिया जाना है, वह यह है कि जब उत्पत्ति का बिंदु अलग और विशिष्ट है तो अंतिम परिणाम ऐसी चीज में कैसे बदल जाता है, जो उत्पत्ति के बिंदु से पूरी तरह से अलग है?
केस टाइटल- मुलकला मल्लेश्वर राव एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य