पति की मानहानि से पत्नी भी प्रभावित हो सकती है, पति-पत्नी की साझा पारिवारिक प्रतिष्ठा होती है : सुप्रीम कोर्ट

एक सिविल मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से यह टिप्पणी की कि जहाँ पति और पत्नी की अपनी-अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा होती है, वहीं "परिवार की प्रतिष्ठा" नाम की भी कोई चीज़ होती है, और यदि पति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है तो इसका प्रभाव पत्नी पर भी पड़ सकता है।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की खंडपीठ उस अपील की सुनवाई कर रही थी जो Spunklane Media Private Limited (जो कि 'The News Minute' न्यूज़ पोर्टल का स्वामी है) द्वारा कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर की गई थी। मामला यह था कि क्या कोई पत्नी, अपने पति को सह-वादी के रूप में बाद में शामिल करके, मीडिया हाउसों को उसके पति के खिलाफ कोई खबर प्रकाशित करने से रोकने के मुकदमे में बेहतर अधिकार प्राप्त कर सकती है।
कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस आदेश में हस्तक्षेप नहीं किया जिसमें ट्रायल कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया गया था, और पत्नी को पति के मुकदमे में पक्षकार बनने की अनुमति दी गई थी।
अपील को निपटाते हुए जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, "एक महिला, एक पुरुष... दो व्यक्ति... व्यक्तिगत रूप से प्रतिष्ठा की दृष्टि से प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन निश्चित रूप से, यदि वे पति-पत्नी के रूप में एक साथ रह रहे हैं, और यदि वे एक परिवार हैं, तो जब आप एक पर हमला करते हैं, तो वह हमला दूसरे परिवार के सदस्य की मानसिकता, भावनाओं और सामाजिक प्रतिष्ठा को भी प्रभावित करता है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्नी को पति की वजह से पीड़ा होगी, और पति को पत्नी की वजह से... यही आपका तर्क हाईकोर्ट में भी था... यह कहना एक बहुत ही खतरनाक प्रस्ताव होगा कि एक ही छत के नीचे रहते हुए, पति की अलग प्रतिष्ठा है और पत्नी की अलग प्रतिष्ठा... हो सकता है कि उनकी अलग प्रतिष्ठा हो, लेकिन उनकी एक साझा, अविभाज्य और एकीकृत प्रतिष्ठा भी होती है, जिसे पारिवारिक प्रतिष्ठा, एक जोड़े की प्रतिष्ठा, या पति-पत्नी की प्रतिष्ठा कहा जाता है।"
याचिकाकर्ता की वकील ने कोर्ट को यह समझाने की कोशिश की कि पत्नी का यह दावा नहीं है कि परिवार की मानहानि हुई है, बल्कि यह कि उसके पति के निष्पक्ष मुकदमे के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। उन्होंने आगे कहा कि जो वादी (पत्नी) प्रारंभ में कोई कारण नहीं रखती थी, वह किसी ऐसे व्यक्ति (पति) को बाद में मुकदमे में शामिल करके, जिसके पास कथित तौर पर बेहतर अधिकार है, स्वयं बेहतर अधिकार नहीं प्राप्त कर सकती।
इसके उत्तर में, जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि पति अपने अधिकार में एक नया मुकदमा दायर कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करने से मुकदमों की संख्या बढ़ेगी।
उन्होंने पुछा, "अगर वह खुद मुकदमा दायर कर सकते हैं, और उनकी पत्नी ने उनके जेल में रहने के दौरान पहले ही एक मुकदमा दायर कर दिया है, तो फिर अलग-अलग मुकदमे क्यों?"
"हमारे न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत है कि मुकदमों की बहुलता से बचा जाए...", जस्टिस कांत ने आगे कहा।
याचिकाकर्ता की वकील ने पति के मुकदमे में शामिल न हो पाने (जेल में होने के कारण) के तर्क का यह कहकर विरोध किया कि पति ने जेल में रहते हुए कई अन्य याचिकाएं (जमानत, रद्दीकरण आदि की) दाखिल की थीं। इस पर जस्टिस कांत ने यह टिप्पणी की कि भले ही याचिकाकर्ता के पास मेरिट पर मजबूत तर्क हैं, लेकिन यह "नवोन्मेषी तर्क" स्वीकार करना कठिन है कि जब पति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है, तो पत्नी प्रभावित नहीं होती।