राजस्थान हाईकोर्ट ने गैर-इरादतन हत्या के लिए 33 साल पुराना आदेश बरकरार रखा, दोषियों को उनकी लंबी यातना का हवाला देते हुए रिहा करने का आदेश दिया

Update: 2024-09-26 06:00 GMT

चार लोगों को गैर-इरादतन हत्या के लिए दोषी ठहराने वाले 33 साल पुराना आदेश बरकरार रखते हुए राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर पीठ ने उनकी सात साल की सजा घटाकर जेल में पहले से ही काटी गई अवधि में बदल दिया। कोर्ट ने उक्त आदेश यह देखते हुए दिया कि उन्हें मानसिक और आर्थिक रूप से लंबे समय तक यातना से गुजरना पड़ा।

जस्टिस अनूप कुमार ढांड की एकल पीठ ने 19 सितंबर को अपने फैसले में कहा,

"अपीलकर्ताओं ने जांच और सुनवाई के दौरान 03.10.1990 से 15.06.1991 तक कारावास की सजा काटी और दोषसिद्धि के बाद 07.12.1991 से 18.01.1992 तक जेल में रहे। घटना साढ़े तीन दशक से भी अधिक समय पहले हुई थी। घटना के समय अपीलकर्ताओं की आयु लगभग 19-20 वर्ष थी। अपीलकर्ताओं को मानसिक और आर्थिक रूप से 34 वर्षों से अधिक समय तक इस लंबी यातना से गुजरना पड़ा।"

आगे कहा गया,

"मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार, वर्ष 1990 में हुई घटना और उस समय प्रासंगिक, अभियुक्त-अपीलकर्ताओं की आयु लगभग 19-20 वर्ष थी और वे युवा थे। मृतक-गोवर्धन की हत्या करने का उनका कोई उद्देश्य या इरादा नहीं था। मृतक बीच में आ गया और उसे चोटें आईं तथा उसकी मृत्यु हो गई वे जांच सुनवाई और दोषसिद्धि के बाद काफी समय तक हिरासत में रहे। इसलिए उनकी दोषसिद्धि बनाए रखते हुए उनकी सजा को उनके द्वारा पहले से काटी गई सजा की अवधि तक घटा दिया जाता है।”

मामले की पृष्ठभूमि

चारों व्यक्तियों-अपीलकर्ताओं ने सेशन कोर्ट के वर्ष 1991 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 304 भाग-II के तहत दोषी ठहराया गया था और प्रत्येक को 1000/- रुपये के जुर्माने के साथ सात वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। यदि कोई चूक होती है तो छह महीने का अतिरिक्त कठोर कारावास भुगतना होगा।

तथ्यों के अनुसार, शिकायतकर्ता का चार अपीलकर्ताओं के साथ शिकायतकर्ता के खेत में उनके मवेशियों के चरने के संबंध में कुछ विवाद था। बाद में शिकायतकर्ता अपने चाचा गोवर्धन (मृतक) के साथ खेत से गुजर रहा था। तभी अचानक अपीलकर्ता उनके सामने आ गए और लाठी और गंडासी से हमला करना शुरू कर दिया। शिकायतकर्ता भागने में सफल रहा, लेकिन अपीलकर्ताओं ने मृतक को पीटना जारी रखा, जिसके परिणामस्वरूप अंततः उसकी मृत्यु हो गई।

अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि अभियोजन का पूरा मामला केवल शिकायतकर्ता की गवाही पर आधारित था, जो पूरी घटना का गवाह होने का दावा कर रहा था। हालांकि, अंधेरे के कारण उसके लिए अपीलकर्ताओं को ठीक से पहचानना संभव नहीं था। यह भी आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्ता ने ही पूरी संपत्ति हड़पने के लिए अपने चाचा, जो बहरे और गूंगे थे, की हत्या कर दी थी।

निष्कर्ष

ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों और निर्णयों के साथ तालमेल बिठाते हुए हाईकोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ताओं द्वारा उठाए गए बचाव विशिष्ट या स्पष्ट नहीं थे और प्रकृति में विरोधाभासी थे। ट्रायल कोर्ट द्वारा उन पर भरोसा नहीं किया गया था।

उन्होंने पाया कि भले ही अपीलकर्ताओं और मृतक के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी। मृतक का मृतक की हत्या करने का कोई इरादा नहीं था लेकिन मृतक को जो चोटें पहुंचाई गईं वे इस ज्ञान के साथ की गईं कि वे गोवर्धन की मौत का कारण बन सकती हैं। इसलिए अपीलकर्ता गैर इरादतन हत्या करने के लिए उत्तरदायी थे।

अदालत ने मोहिंदर जॉली बनाम पंजाब राज्य में सुप्रीम कोर्ट के 1979 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को धारा 304 भाग-II आईपीसी के तहत अपराध का दोषी पाते हुए और एक साल और एक महीने की उसकी हिरासत अवधि को देखते हुए उसे उसके द्वारा पहले से काटी गई सजा के आधार पर रिहा करने के प्रभाव में एक समान निर्णय दिया था।

तदनुसार, हाईकोर्ट ने दोषियों की अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। इसने दोषसिद्धि बरकरार रखी लेकिन जांच और दोषसिद्धि के बाद 1990 और 1992 के बीच लगभग 9 महीने की कारावास की अवधि के आधार पर अपीलकर्ताओं को रिहा करने का निर्देश दिया।

केस टाइटल- पन्ना लाल और अन्य बनाम राजस्थान राज्य

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